
“... एक बात अपने ज़ेहन में बैठा लो कि दहलीज़ के पार जाना बगावत या जुनून नहीं, हिम्मत होती है, जो हर किसी के बस की बात नहीं. सच्चे प्यार और पत्नी को बराबरी के दर्जे की बड़ी-बड़ी बातें तो हर कोई कर लेता है, लेकिन जब निभाने की बात आती है तो अक्सर ख़ुद की मर्दानगी पर गुमान करने वाले ही सबसे बड़े नामर्द निकलते हैं...”
आज फिर रह-रहकर अरमान के वो कड़वे बोल ज़ेहन में गूंजने लगे, “जाने से पहले सोच लो रिचा, अगर आज तुमने ये दहलीज़ पार कर ली, तो इस घर के दरवाज़े तुम्हारे लिए फिर कभी नहीं खुलेंगे.”
मैंने अरमान की बातों को अनसुना किया, अपने आंसू पोंछे और उसके घर और उसकी ज़िंदगी से निकल आई. क्या करती, मेरे पास और कोई ऑप्शन ही नहीं छोड़ा था अरमान ने. शादी से पहले कितने वादे, कितनी बड़ी-बड़ी बातें की थीं उसने. कॉलेज में भी सब हमको परफेक्ट कपल कहा करते थे.
मुझे आज भी अरमान से वो पहली मुलाक़ात याद है, जब कॉलेज के पहले दिन ही उससे यूं ही टकरा गई थी. पहली नज़र में ही हम दोनों को यह एहसास हो गया था कि हमारा कोई न कोई कनेक्शन तो ज़रूर बनेगा और ऐसा ही हुआ. अरमान मेरा सीनियर था. अक्सर कॉलेज फेस्ट के टाइम पर हम साथ काम करते थे और इसी दौरान हम दोनों इतने क़रीब आ गए कि तभी तय कर लिया था कि अब ज़िंदगीभर एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ेंगे.
“अरे रिचा, तू अब तक यहीं बैठी है? घर नहीं चलना क्या?” मेरी दोस्त और कलीग
अमिता की आवाज़ से मेरी तंद्रा भंग हुई और हम दोनों घर के लिए निकल गए.
दरअसल घर छोड़ने के बाद मैं उसी कॉलेज में प्रोफेसर के तौर पर नौकरी करने लगी थी, जिसमें कभी मैं और अरमान पढ़ा करते थे. सच कहूं तो मैं यहां जॉब नहीं करना चाहती थी, क्योंकि यहां की हर चीज़ मुझे अरमान के साथ बिताए चाहत के लम्हों की याद दिलाती थी. यहां की हवा भी उसकी यादों की महक से सराबोर थी. कॉलेज के कैंटीन को दूर से निहारती रहती जहां हमारा प्यार और परवान चढ़ा था. ये क्लास रूम जैसे रू-ब-रू अरमान को मेरे सामने ला खड़ा कर देते थे और मेरी आंखें फिर नम हो जाती. लेकिन मेरे पास यहां काम करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था. यहां जो पैकेज और सुविधाएं मिल रही थीं, वो अन्य जॉब ऑफर्स से काफ़ी बेहतर थीं और फिर अमिता भी तो यहीं थी, मेरी और अरमान की क़रीबी दोस्त. इसके साथ ही कॉलेज की तरफ़ से ही मुझे घर भी मिल गया था, जो कॉलेज के पास ही था.
हालांकि पापा ने मुझे टोका कि मैं उनके पास आ जाऊं, लेकिन मैं फ़िलहाल ख़ुद को थोड़ा व़क्त देना चाहती थी और अपने रिश्ते को भी.
ख़ैर, घर लौटकर मैंने चाय बनाई और फिर बीते दिनों में खो गई. अपनी-अपनी पढ़ाई और प्रोफेशनल डिग्रीज़ के बाद हमने घरवालों को भी बता दिया. मेरे घर में तो सभी ख़ुश थे, लेकिन अरमान के घरवालों की तरफ़ से थोड़ा रूखापन महसूस हुआ था मुझे.
“क्या बात है अरमान, तुम्हारे पैरेंट्स ख़ुश तो हैं ना?” मैंने अरमान का मन टटोला, तो उसने कहा कि सभी ख़ुश हैं. लेकिन उसकी बात में एक हिचक सी महसूस हुई मुझे.
“तुम मुझे खुलकर बता सकते हो अरमान, कोई परेशानी है क्या?”
“रिचा, मेरे घरवाले थोड़े पारंपरिक ख़यालात के हैं, आई होप कि तुम एडजस्ट कर लोगी.” अरमान ने कहा तो मैंने भी हामी भर दी.
इसी बीच मुझे जॉब ऑफर आने लगे और अरमान ने भी अपना फैमिली बिज़नेस जॉइन कर लिया था.
अरमान एक बहुत बड़ी ख़ुशख़बरी है, मुझे अपने ही कॉलेज से जॉब ऑफर आया है, अगले महीने से जॉइन करना है.” मैंने
चहकते हुए अरमान से लिपट गई, लेकिन उसने मुझे एक झटके से दूर कर दिया, “रिचा, मैंने तुमको बताया था ना कि मेरे
घरवाले पारंपरिक ख़यालात के हैं, वो कभी नहीं चाहेंगे कि उनकी होनेवाली बहू घर की
दहलीज़ पार करके नौकरी करने जाए.”
अरमान की बातें सुनकर मैं स्तब्ध रह गई. “लेकिन मैं पढ़ी-लिखी हूं और जॉब करने से कौन सी परंपरा टूटेगी?”
“तुम समझ नहीं रही हो, मां को यह बात पसंद नहीं आएगी, तुम प्यार करती हो न
मुझसे? मेरे लिए, हम दोनों के लिए क्या इतना नहीं कर सकती? मैं रखूंगा ना तुम्हारा और तुम्हारी ज़रूरतों का ख़्याल.”
अरमान ऐसे गिड़गिड़ाकर कह रहा था कि मुझे उसकी बातों में बस प्यार ही नज़र आया, आनेवाले तूफ़ान की आहट नहीं. मैं मान गई.
कुछ दिनों बाद हमारी सगाई हुई और शादी की डेट भी फाइनल हो गई. इसी बीच पापा ने मुझे कई बार टोका कि मैं एक बार फिर सोच लूं, कहीं उस परिवार में बंधकर
न रह जाऊं. लेकिन मैंने उनको भी समझा दिया कि अरमान सब संभाल लेगा.
अपनी नई ज़िंदगी का सपना और कई
ख़ूबसूरत ख़्वाहिशों को लेकर मैं अरमान के साथ विदा होकर आ गई. हालांकि मुझे अरमान की मम्मी अभी भी उखड़ी-उखड़ी लगीं, पर मैंने सोचा कि शायद उनका स्वभाव ही ऐसा होगा, मुझे इतनी जल्दी किसी को जज नहीं करना चाहिए.
अरमान के साथ शुरुआती दिन-रात ऐसे कटे कि बाकी बातों पर ज़्यादा ध्यान नहीं गया, पर एक दिन मैं किचन में जा ही रही थी कि अरमान और मम्मीजी की बातें मेरे कानों में पड़ीं, “देख अरमान तेरी ख़ुशी के लिए मैं इस शादी के लिए तैयार हुई थी, लेकिन अब मैं चुप नहीं रहूंगी. तुझे कहा था न कि रिचा से बात कर, तेरे नए बिज़नेस सेटअप के लिए उसके पापा थोड़ी मदद तो कर ही सकते हैं. एक तो इतने कंजूस निकले वो लोग कि अपनी ख़ुशी से भी बेटी-दामाद को न कोई महंगा तोहफ़ा दिया और न ही कुछ और...”
“मां, ऐसी बात नहीं है, वो लोग दहेज जैसी प्रथा के सख़्त ख़िलाफ़ हैं और वो बेटा-बेटी को एक समान मानते हैं. रिचा ने आपके लिए बाहर काम न करके ख़ुशी-ख़ुशी हाउसवाइफ बनना स्वीकार किया ना? तो आप भी उसके गुणों को देखिए.” अरमान की बातों से मुझे तसल्ली हुई और मैं मम्मीजी का हाथ बंटाने किचन में चली गई.
हालांकि मम्मीजी मुझसे ज़्यादा ख़ुश कभी नहीं थीं. खैर, शाम को अरमान जब घर आए तो मैंने यूं ही पूछ लिया कि हमने अब तक
अपना हनीमून प्लान नहीं किया.
अरमान बोले, “रिचा हमारे यहां इसकी परंपरा नहीं है और सबसे बड़ी बात कि मां को
अच्छा नहीं लगेगा. बड़े भइया-भाभी भी कभी भी हनीमून पर नहीं गए, तुमको थोड़ा
एडजस्ट करना पड़ेगा.”
लेकिन मेरी बात पूरी होने से पहले ही अरमान ने मुझे टोक दिया, “प्लीज़ यार, मेरी ख़ातिर, हमारे प्यार की ख़ातिर.”
इसी बीच पापा मुझसे मिलने आए और मुझे और अरमान को उन्होंने हनीमून पैकेज गिफ्ट किया, “बेटा शादी को काफ़ी टाइम हो गया और तुम लोग हनीमून के लिए भी कहीं नहीं गए और रिचा का स्विट्ज़रलैंड जाने का मन था, तो तुम दोनों हो आओ.”
ख़ैर, पापा तो चले गए, लेकिन अरमान असमंजस में थे. इतने में ही मम्मीजी कमरे
में आईं तो अरमान ने उन्हें मेरे पापा के गिफ्ट के बारे में बताया. मम्मीजी नाराज़ होकर बोलीं, “इतनी फ़िज़ूलख़र्ची के लिए पैसे हैं, लेकिन अपने दामाद के नए बिज़नेस के लिए कुछ नहीं है उनके पास. अब जाओ, हनीमून की तैयारी करो.” इतना बोलकर वो चलीं गईं.
अरमान काफ़ी हैरान थे कि मम्मीजी मान कैसे गईं, लेकिन अगले ही दिन पापाजी की
तबीयत बिगड़ गई और हमने हनीमून कैंसिल कर दिया. धीरे-धीरे व़क्त गुज़र रहा था. लेकिन मैं अंदर ही अंदर घुटन महसूस कर रही थी. न नई-नई शादी का उत्साह कभी
महसूस हुआ और न ही नए रिश्तों में गर्माहट और आत्मीयता का एहसास हुआ. हां, एक बदलाव ज़रूर आया था मम्मीजी में कि अब वो मुझसे बहुत ज़्यादा उखड़ी-उखड़ी नहीं रहती थीं, क्योंकि मेरे पापा ने अरमान के बिज़नेस सेटअप के लिए काफ़ी आर्थिक मदद की थी. हालांकि अरमान इसके ख़िलाफ़ थे, लेकिन मैंने ही उन्हें समझाया कि इससे मम्मीजी मुझे दिल से अपना लेंगी.
मैंने अरमान से कहा कि कुछ दिनों के लिए मैं अपने मायके जाना चाहती हूं, लेकिन उसने वही राग अलापा कि मां कहीं नाराज़ न हो जाएं.
“अरमान तुमने शादी से पहले कहा था कि तुम्हारा परिवार पारंपरिक ख़यालात का है, लेकिन पारंपरिक और दक़ियानूसी में फ़र्क़ होता है. मैं अपनी ज़िंदगी मम्मीजी की दक़ियानूसी सोच के हिसाब से कब तक जीती रहूंगी?” मैंने थोड़ा ग़ुस्से में कहा.
“रिचा! ये मत भूलो कि तुम मेरी मां कि बारे में बात कर रही हो. वो बड़ी हैं, उनका अपमान मैं बर्दाश्त नहीं करूंगा.” अरमान भी बिफर पड़े.
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आज पहली बार हम दोनों में इस तरह की बहस हुई, पर ग़ुस्सा शांत होने पर अरमान ने कहा, “मुझे माफ़ कर दो, तुम ग़लत नहीं हो, मैं मां से बात करूंगा, तुम कुछ दिन रह आना अपने पैरेंट्स के साथ.”
अगली ही शाम अरमान मुझे मेरे मायके छोड़ आए. मुझे ऐसे बुझा-बुझा देखकर मम्मी-पापा थोड़े चिंतित हुए. उनके पूछने पर मैंने सब बता दिया, तो पापा बोले, “मैंने तो तुझे पहले ही आगाह किया था. तू बेहद खुले माहौल में पली-बढ़ी है, ज़ाहिर है अरमान के घर में तुझे घुटन ही महसूस होगी. ख़ैर, अब क्या सोचा है तूने? बस ऐसे ही व़क्त काटेगी या ज़िंदगी को जिएगी भी?”
“आप क्या कहना चाहते हैं पापा?” मैंने पूछा तो वो बोले, “तेरी सास उम्र और रिश्ते
में बड़ी हैं, उनका अपमान करने को नहीं कह रहा. लेकिन तू तो अपनी ख़ुशियों का
रास्ता बना. अगर बाहर जॉब करने नहीं जा सकती, तो घर से कुछ कर, पार्ट टाइम
कर, ट्यूशन ले सकती है बच्चों के. अरमान काम में बिज़ी रहता है तो तू अपनी सहेलियों के साथ थोड़ा घूम-फिर, लंच-डिनर पार्टी कर. ये व़क्त वापस नहीं आएगा बेटा. यूं मर-मर के मत जी.”
मैं यकायक ज़ोर-ज़ोर से हंस पड़ी. पापा हैरानी से मुझे देखते रहे. तब मैंने उनको कहा, “जो मम्मीजी हनीमून के ख़िलाफ़ हैं, मेरे ही पति के साथ मुझे बाहर जाने के लिए इतना रोक-टोक करती हैं वो मुझे दोस्तों के साथ पार्टी करने देंगी पापा आप भी न...” यह कहते- कहते मैं फफक पड़ी. पापा ने मुझे सीने से लगा लिया, फिर बस इतना ही कहा, “मेरी बहादुर बेटी.”
मायके में कुछ दिन बिताने के बाद मैं ख़ुद ही घर वापस आ गई. अरमान मुझे देखते
ही ख़ुशी से खिल उठे.
“मुझे फोन कर देतीं तो मैं तुम्हें लेने आ जाता रिचा.” अरमान बोले, पर मैंने कोई
जवाब नहीं दिया. बस आंखों से आंसू बहे जा रहे थे.
“रिचा, क्या हुआ? तुम रो क्यों रही हो?” अरमान ने पूछा तो मैंने कहा, “मुझसे अब और एडजस्ट नहीं होगा. बस एक जॉब और थोड़ी सी छूट, थोड़ा स्पेस, थोड़ी आज़ादी और व़क्त ख़ुद के लिए बस यही तो चाहती हूं मैं.”
“देखो रिचा मम्मी भी अब थोड़ी नर्म पड़ी हैं न, अगर हम उनको एक पोता दे देंगे तो वो और बदल जाएंगी. ख़ुद मम्मी भी चाहती हैं कि वो जल्द ही दादी बनें.” अरमान ने अपनी बात रखी तो मैं बिफर पड़ी.
“मैं फ़िलहाल तैयार नहीं हूं. बच्चे के लिए तन
और मन दोनों स्वस्थ होने चाहिए और ये पोता-पोता क्या लगा रखा है. तुम जानते हो मुझे इस तरह का भेदभाव पसंद नहीं और जहां तक मैं तुम्हें जानती हूं तुम भी ऐसी सोच नहीं रखते थे.”
“सॉरी रिचा, वो बस मैं फ्लो में कह गया था, तुम ले लो अपना व़क्त सोचने के लिए.” अरमान ने कहा.
उस रात मैं सो नहीं पाई. बहुत से ख़्याल आ-जा रहे थे और फिर मैंने निश्चय किया. अपने मन की सारी आशंकाओं और इस घुटन को दूर करने का. सुबह होते ही मैं मम्मीजी के पास गई, “मम्मीजी, मैंने एक निर्णय लिया है अपने लिए. मैं कुछ काम
करना चाहती हूं, चाहे पार्ट टाइम ही सही या फिर घर से ही कोई काम, यही आपको बताना था.”
मम्मीजी कुछ नहीं बोलीं और उनकी ख़ामोशी मुझे बेहद परेशान कर रही थी. शाम को
अरमान ग़ुस्से में कमरे में आए और आते ही मुझ पर बरस पड़े, “तुम इतनी बड़ी हो गई हो कि इस घर के निर्णय भी लेने लगीं? मम्मी-पापा घर के बड़े हैं और उनसे बदतमीज़ी इस घर में नहीं चलेगी.”
“अरमान, सबसे पहले तो इस लहज़े में बात मत करो. दूसरी बात, मैंने इस घर को लेकर कोई निर्णय नहीं लिया. मैंने अपने लिए एक निर्णय लिया है और मुझे लगता है कि मेरी ख़ुद की लाइफ पर इतना हक़ तो मुझे भी है कि मैं अपने बारे में और अपनी ख़ुशियों के बारे में कुछ सोच सकूं.” मैंने दृढ़ता से कहा.
“तो तुम क्या कहना चाहती हो कि मैं तुम्हें ख़ुश नहीं रखता? इस घर में तुम दुखी हो?” अरमान काफ़ी ग़ुस्से में थे.
“हां, मैं ख़ुश नहीं हूं. मुझे ऐसे घुट-घुट के और नहीं जीना.” मैंने भी साफ़-साफ़ अपनी
बात रखी.
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“देखो रिचा, यहां मां हमारी फैमिली को आगे बढ़ाने के बारे में सोच रही हैं और वो भी तो हमारी ख़ुशी ही चाहती हैं. थोड़ा ठंडे दिमाग़ से सोचो.” अरमान ने अपने ग़ुस्से को थोड़ा कंट्रोल में करते हुए कहा.
“अरमान, मैं अभी बच्चे के लिए तैयार नहीं हूं, ये बात तुम साफ़-साफ़ समझ लो और
मम्मीजी को भी समझा दो.” मैंने भी आज ठान लिया था कि पीछे नहीं हटूंगी.
“इस तेवर के साथ मां तुम्हें इस घर में बर्दाश्त नहीं करेंगी और मैं भी नहीं.” अरमान
का ग़ुस्सा फिर भड़क गया और वो कमरे से चले गए.
अगली सुबह मैंने अपना सामान पैक किया और घर छोड़ने का ़फैसला ले लिया. पीछे
से अरमान की आवाज़ गूंजी, “जाने से पहले सोच लो रिचा, अगर आज तुमने ये दहलीज़ पार कर ली, तो इस घर के दरवाज़े तुम्हारे लिए फिर कभी नहीं खुलेंगे.”
लेकिन मैंने दहलीज़ भी पार की और प्यार के नाम पर बंधी हुई वो भावनाओं की बेड़ियां भी तोड़ीं, लेकिन रह-रहकर मुहब्बत के वो पल ठहरे हुए मन को फिर से बेचैन कर देते हैं. क्या अरमान को कभी मेरी याद नहीं आई? ये कैसा प्यार था उसका, जिसके नाम मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी कर दी थी और उसने मेरी छोटी सी बात भी समझने की कोशिश नहीं की... सोचते-सोचते आंख लग गई.
अगली सुबह मैं चाय पी रही थी, वैसे भी संडे का दिन था तो ़फुर्सत थी. इतने में ही डोर बेल बजी. दरवाज़ा खोलते ही देखा तो यक़ीन नहीं हुआ, सामने अरमान था. मेरी आंखों में अलग ही चमक आ गई थी.
“अंदर आ जाऊं?” अरमान ने कहा तो मैंने ख़ुद को संभाला.
“हां, इसमें पूछने की क्या बात है.”
“रिचा, मैं जो भी कह रहा हूं उसे ध्यान से और शांत मन से सुनो. मैंने बहुत सोचा हम दोनों के बारे में और मुझे भी अब यह बात समझ में आ गई कि हमारे बीच प्यार भले ही था, पर कम्पैटिबिलिटी नहीं. हमारी परवरिश और घर के माहौल में काफ़ी फ़र्क है. यह बात मेरी मां ने और तुम्हारे पापा ने शादी से पहले हमको समझाने की कोशिश की थी, पर उस व़क्त हम प्यार में इतने डूबे हुए थे कि हमें
प्रैक्टिकल बातें और सच्चाई नज़र नहीं आ रही थी. लेकिन अब हमें समझ लेना
चाहिए कि हमारे रास्ते अलग हैं, इसलिए मैं ये डिवोर्स पेपर्स लाया हूं. तुम्हें फोर्स नहीं
करना चाहता, जो तुम्हें ठीक लगे तुम वही करो. लेकिन हां, मैं अब मूव ऑन करना
चाहता हूं, मम्मी ने मेरे लिए एक लड़की पसंद की है, काफ़ी पारंपरिक है और उसे दहलीज़ के पार जाने का कोई जुनून भी नहीं.” अरमान उठकर जाने लगे तो मैंने कहा, “रुको ज़रा, मैंने पेपर्स साइन कर दिए हैं, लेते जाओ. और हां, एक बात अपने ज़ेहन में बैठा लो कि दहलीज़ के पार जाना बगावत या जुनून नहीं, हिम्मत होती है, जो हर किसी के बस की बात नहीं. सच्चे प्यार और पत्नी को बराबरी के दर्जे की बड़ी-बड़ी बातें तो हर कोई कर लेता है, लेकिन जब निभाने की बात आती है तो
अक्सर ख़ुद की मर्दानगी पर गुमान करने वाले ही सबसे बड़े नामर्द निकलते हैं. गुडबाय मिस्टर अरमान और थैंक यू मुझे मुक्त करने के लिए.”
आज वाक़ई ख़ुद को बेहद हल्का महसूस कर रही थी, जैसे ज़िंदगी का सबसे बड़ा बोझ उतर गया हो. मैंने झट से पापा को फोन किया और चहक कर बोली, “पापा, दिल से शुक्रिया, आपने जो रास्ता दिखाया था, वो सही था और आज अपने निर्णय पर मुझे कोई अफ़सोस नहीं. मैं घर आ रही हूं, क्योंकि नई ज़िंदगी मेरी तरफ़ बांहें फैलाई खड़ी है.”

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