कभी अंधे रास्तों पर चलते-चलते ख़ुद ही अपनी रोशनी तलाश कर लेना... कभी ठोकरों के बीच ख़ुद संभलकर अपनी मंज़िल को पा लेना... ज़िंदगी की तपती धूप के बीच सूरज को ही हथेली में कैद कर लेना, तो कभी चुभती चांदनी को दामन में समेटकर दूसरों के जीवन को रोशन कर देना... जहां ख़ुद का रास्ता बेहद कठिन हो, वहां
मासूम-सी, नासमझ उम्र में दूसरों की राहें न स़िर्फ आसान बनाने का जज़्बा रखना, बल्कि उन्हें नई मंज़िलों तक पहुंचाने का संकल्प लेना साधारण बात नहीं है... यही वजह है कि साधारण-सी नज़र आनेवाली फ़ातिमा ख़ातून (Fatima Khatoon) ने बेहद असाधारण काम किया है अपने जीवन में... जिस्मफ़रोशी के दलदल से ख़ुद निकलकर दूसरों के जीवन को संवारना बेहद कठिन है... लेकिन नामुमकिन नहीं... यह साबित कर दिखाया है फ़ातिमा ने.
मासूम उम्र में दिखाए बड़े हौसले... “नौ वर्ष की मासूम उम्र में तीन गुना अधिक उम्र के व्यक्ति से शादी और कुछ ही समय बाद इस बात का एहसास होना कि यह दरअसल शादी थी ही नहीं, यह तो सीधे-सीधे जिस्मफ़रोशी थी... दरअसल, शादी के नाम पर ख़रीद-फ़रोख़्त की शिकार हुई थी मैं. जब तक कुछ समझ पाती, तब तक मैं इस चक्रव्यूह में फंस चुकी थी. धीरे-धीरे समझने लगी कि मेरे पति और सास असल में वेश्यालय चलाते हैं.” बिहार की रहनेवाली फ़ातिमा अपने आप में हिम्मत व हौसले की बड़ी मिसाल हैं. उनके इसी जज़्बे को सलाम करते हुए हमने उनसे उनके संघर्षपूर्ण जीवन की चुनौतियों पर बात की.
अपने संघर्ष के बारे में वो आगे कहती हैं, “मैं अक्सर देखती थी कि लड़कियां व महिलाएं यहां बहुत सज-धजकर रहती थीं. बचपन में ज़्यादा समझ नहीं पाती थी, लेकिन धीरे-धीरे मुझे एहसास हो गया कि यहां सब कुछ ठीक नहीं है. अपनी सास से पूछने पर मुझे यही कहा जाता कि मैं अभी छोटी हूं. ये सब समझने के लिए और मुझे अपने काम से काम रखना चाहिए. समय बीत रहा था कि इस बीच मेरी बात वहां एक लड़की से होने लगी, जिससे मुझे पता चला कि उस लड़की को और वहां रह रही अन्य लड़कियों से भी ज़बर्दस्ती वेश्यावृत्ति करवाई जाती है. जब मैं 12 साल की थी, तब मुझे एक रोज़ मौक़ा मिला. मेरा परिवार एक शादी में गया हुआ था और मैंने वहां से 4 लड़कियों को आज़ाद करवाने में मदद की. उसके बाद मुझे काफ़ी मारा-पीटा गया. कमरे में बंद करके रखा गया. खाना नहीं दिया गया.”
इतनी कम उम्र में इतना हौसला? क्या कभी डर नहीं लगा? “कहते हैं ना कि एक स्तर पर आकर डर भी दम तोड़ देता है. मेरे साथ भी यही हुआ. रोज़ इतना अत्याचार और मार खाते-खाते मेरा सारा डर ही ख़त्म हो चुका था. मार-पीट के डर ने मेरे हौसले कम नहीं होने दिए.
मैंने भी सोच लिया था कि वैसे भी एक रोज़ तो मरना ही है, तो क्यों न कुछ बेहतर काम करके मरें. 12 साल की उम्र में ही मैं मां बन चुकी थी. अक्सर मुझे मेरी बेटी के नाम पर इमोशनली ब्लैकमेल किया जाता कि अगर मैं चुप न रही, तो मेरी बेटी को मार दिया जाएगा. लेकिन मैंने भी यह सोच लिया था कि एक बेटी को बचाने के बदले में बहुत-सी बेटियों की कुर्बानी देना कितना सही होगा? ‘अपने आप’ नामक एनजीओ से जुड़ने के बाद मुझे हौसला मिला, जिससे मेरी लड़ाई को भी बल मिला कि कैसे एक लड़की रोज़ इन लड़कियों को मरते हुए देख सकती है?
मेरे घरवालों तक जब यह बात पहुंची, तो वो भी बीच-बीच में आते थे, लेकिन मुझे वापस घर ले जाने को वो भी तैयार नहीं थे. इसी बीच समय गुज़रता गया, मेरी उम्र बढ़ रही थी, मेरी हिम्मत भी बढ़ गई थी. मेरी सास ने मेरी ही एक दोस्त, जो वहीं काम करनेवाली एक सेक्स वर्कर की बेटी थी, को ज़बर्दस्ती जिस्मफ़रोशी में शामिल करने की कोशिश की. यह जानने के बाद मैं काफ़ी ग़ुस्से में थी और मैंने अपनी सास को लकड़ी से पीट डाला. उसके बाद तो मैं खुलेआम उन सबका विरोध करने लगी. साल 2004 में मुझे एक बहुत बड़ा सपोर्ट मिला, जब एनजीओ ‘अपने आप’ से मेरा संपर्क हुआ और मैंने वो जॉइन कर लिया.”
आपके मन में कोई शिकायत, कोई सवाल या किसी भी तरह की भावनाएं, जज़्बात... जो आप कहना चाहती हों लोगों से? “बहुत कुछ है मन में...
- मेरा कहना यही है कि ख़रीददारों को क्यों नहीं पकड़ा जाता है?
- ज भी महिलाओं की स्थिति में अधिक बदलाव नहीं आया है, चारदीवारी में कैद उस औरत को कोई नहीं पूछता.
- परिवारवाले हमें वापस अपनाना ही नहीं चाहते. ऐसे में परिवारों को व समाज को अपनी सोच बदलनी चाहिए, क्योंकि इसमें हमारा तो कोई क़ुसूर नहीं होता, तो सज़ा स़िर्फ हमें ही क्यों मिलती है?
- जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदलेगी, कुछ भी नहीं बदलेगा.”
क्या आप लोग ऐसा कोई अभियान भी चलाते हैं, जिसमें परिवारवालों से संपर्क करके अपनी बच्चियों को अपनाने की बात होती हो? “जी हां, हम परिवारवालों को भी जागरूक करते हैं. हम चाहते हैं कि समाज इन बच्चियों को अपनाए. लेकिन समाज तो परिवार से ही बनता है, तो इसमें पहल परिवारवालों को ही करनी होगी.
दरअसल, मैं यह देखती और महसूस करती हूं कि जब एक आम लड़की का बलात्कार होता है, तो किस तरह से मीडियावालों से लेकर देश का हर आदमी जागरूक हो जाता है. बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, न्यूज़ में भी दिखाया जाता है, लोग विरोध करते हैं, मोर्चा निकालते हैं, चक्का जाम करते हैं, लेकिन लाल बत्ती इलाकों में रोज़ 100 बार लड़कियों का बलात्कार होता है... कितने लोग परवाह करते हैं?
सच में औरत आज भी आज़ाद नहीं हुई है. यही वजह है कि हम ऐसी महिलाओं को न स़िर्फ उस गंदगी से बाहर निकालने का प्रयास करते हैं, बल्कि उन्हें पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा करते हैं, ताकि परिवार व समाज के मुंह फेरने के बाद भी वो दोबारा उस जगह जाने को मजबूर न हों. ख़ुद अपना गुज़ारा कर सकें और अपने बच्चों को बेहतर भविष्य दे सकें.”
फ़ातिमा को उनके बेहतरीन काम के लिए अन्य संस्था से भी इनाम मिला, वे ‘कौन बनेगा करोड़पति’ शो में भी आकर 25 लाख का इनाम जीतकर गई थीं. अमिताभ बच्चन साहब और उस एपिसोड में ख़ास अतिथि रानी मुखर्जी ने भी फ़ातिमा के हौसलों को सलाम किया. हम भी उनकी निर्भीकता व कम उम्र में ही बड़ा काम करने की परिपक्वता को सेल्यूट करते हैं.
- गीता शर्मा