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काव्य- कसक (Kavay- Kasak)
बिखरते ख़्वाबों को देखा
सिसकते जज़्बातों को देखा
रूठती हुई ख़ुशियां देखीं
बंद पलकों से
टूटते हुए अरमानों को देखा...
अपनों का बेगानापन देखा
परायों का अपनापन देखा
रिश्तों की उलझन देखी
रुकती सांसों ने
हौले से ज़िंदगी को मुस्कुराते देखा...
तड़प को भी तड़पते देखा
आंसुओं में ख़ुशियों को देखा
नफ़रत को प्यार में बदलते देखा
रिश्तों के मेले में
कितनों को मिलते-बिछड़ते देखा...
नाकामियों का मंज़र देखा
डूबती उम्मीदों का समंदर देखा
वजूद की जद्दोज़ेहद देखी
एक ज़िंदगी ने
हज़ारों ख़्वाहिशों को मरते देखा...
- ऊषा गुप्ता
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