काव्य- तुम सम्हालो ख़ुद को… (Kavay- Tum Samhalo Khud Ko…)
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बेटी तो होती है एक कली
अगर खिलेगी वह नन्ही कली
तो बनेगी एक दिन फूल वह कली
चाहे हो वह बेटी किसी की भी
बस तुम सम्हालो ख़ुद को
बेटी तो सम्हल जाएगी अपने आप
फिर चाहे तुम दो या ना दो साथ
तुम संभालो ख़ुद को
अपनी बुरी नज़र को
अपनी भूखी हवस को
अपनी झूठी मर्दानगी को
अपने वहशीपन को
अपनी दरिंदगी को
अपनी हैवानियत को
जगाओ अपनी इंसानियत को
फिर बेटी तो सम्हल जाएगी ख़ुद अपने आप
तुम सम्हालो ख़ुद को
छोड़ो करना भेदभाव
छोड़ो करना अन्याय
छोड़ो कसना फ़ब्तियां उस पर
छोड़ो करना बदनाम उसे
छोड़ो डालना हीन दष्टि उस पर
छोड़ों जंजीरों में जकड़ना उसे
फिर बेटी तो सम्हल जाएगी ख़ुद अपने आप
तुम सम्हालो ख़ुद को
मारो ना कोख में ही उसे
आने दो इस दुनिया में भी उसे
दो जीने का अधिकार उसे
दो उसका पूरा हक़ उसे
दो बराबरी का मौक़ा उसे
दो आगे बढ़ने का हौसला उसे
दो थोड़ा तो समय उसे
फिर बेटी तो सम्हल जाएगी ख़ुद अपने आप
तुम सम्हालो ख़ुद को
बुनने दो कुछ सपने उसे
उड़ने दो खुले नभ में उसे
पढ़ने दो किताबें उसे
बढ़ाने दो आगे कदम उसे
करो उसका भी सम्मान
समझो उसे घर की शान
फिर बेटी तो सम्हल जाएगी ख़ुद अपने आप
अगर तुम सम्हाल लोगे अभी ख़ुद को
सम्हालेगी बुढ़ापे में वह तुम्हें
जब होगे तुम बहुत लाचार
और चलना-फिरना भी होगा दुष्वार
बेटी तो सम्हल जाएगी ख़ुद अपने आप
फिर चाहे तुम दो या ना दो साथ
बस तुम सम्हालो खुद को...
- सुरेखा साहू
मेरी सहेली (Meri Saheli) वेबसाइट पर सुरेखा साहू की भेजी गई कविता (Poem) को हमने अपने वेबसाइट में शामिल किया है. आप भी अपनी कविता, शायरी, गीत, ग़ज़ल, लेख, कहानियों को भेजकर अपनी लेखनी को नई पहचान दे सकते हैं…