सुनो कवि..
पहाड़ी के उस पार
वो स्त्री.. रोप रही है नई-नई पौध
सभ्यताओं की
और उधर.. गंगा के किनारे
विवश खड़ी है.. वो स्त्री
एक और 'कर्ण' लिए
तर-बतर हैं दोनों की ही आंखें
बताओ तो
क्या गीले नहीं हुए अब भी तुम्हारे शब्द!
सुनो लेखक..
पीठ पर बच्चा बांधे
वह स्त्री कर रही है मजदूरी
और उधर, व्यस्त है वो स्त्री कब से
सरकारें बनाने-गिराने में
कहो न
क्यों तुम्हारी बहस में शामिल नहीं होते वो नाम
जो संभाले रहते हैं गृहस्थी को अंत तक!
सुनो ईश्वर..
तुमने तुलसी को गढ़ा, लक्ष्मी को भेजा..
दुर्गा, सीता, राधा, मीरा..
जब भी दफ़नाया होगा उसने अपने सपनों को
थोड़ा-बहुत तुम भी मृत ज़रूर हुए होंगे
बता सकते हो
क्यों हर बार रखा तुमने उसको पराश्रित ही!
नहीं है कोई जवाब.. किसी के पास भी!
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