दिवाली की झालरें…
..टिम-टिम करती
रंग-बिरंगी झिलमिलाती हुईं झालरें
बतियाती रही रातभर
दो सहेलियों की तरह
कभी हंसतीं-खिलखिलाती..
कभी चुप-चुप
पोंछती आंसुओं को
एक-दूसरे के
दर्द.. कुछ क़िस्से..
कुछ तेरे.. कुछ मेरे..
शोर पटखों का भी अवाक् रहा..
"सहेलियां हमेशा बहुत बातूनी ही होतीं हैं"..
समझ से परे रही यह बात उनके लिए
अब तक…
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मैंने रोशनी सा झिलमिलाने की बात की…
जब-जब भी दिखा गाढ़ा अंधेरा कहीं
मैैंने रोशनी सा झिलमिलाने बात की..
यहां जब भी चलन था आगे बढ़ने का
मैंने बीते पलों को संजोने की बात की..
आता है तुम्हें दुनिया को जीने का हुनर
पर मैंने ख़ुद को जिए जाने की बात की..
जहां उलझनों में उलझना ही सबब था
मैंने आभावों में भी उड़ने की बात की..
तुम तो खो ही गए थे इस सफ़र में कहीं
मैंने अंत तक तुमको तलाशने की बात की..
जहां शोर था मिलने और बिछड़ने का ही
मैंने मौन में ही अपने मिलने की बात की..
चाहे कोई जवाब आए या न आए तुम्हारा
फिर भी रोज़ ख़त लिखने की बात की..
और..
जीते रहे समझौतों को सौग़ात समझकर
मैंने बिना शर्त प्रेम किए जाने की बात की…
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