पहला अफेयर: ख़ूबसूरत बहाना... (Pahla Affair: Khoobsurat Bahana)
बैंक में मेरी छवि एक शर्मीले स्वभाव वाले अफसर की थी. अपने केबिन में एकांत में अकाउंट के आंकड़ों में उलझे रहना ही मुझे भाता था. घर पर भी मैं कम ही बोलता था. मेरी अंतर्मुखी प्रवृत्ति देख भाभी अक्सर कहतीं, “देवरजी ऐसे अकेले-अकेले मौनी बाबा बनकर रहोगे, तो कौन तुम्हें अपनी लड़की देगा? संन्यासी बनने का इरादा है क्या?” मैं भी हर बार की तरह हंसकर यही कहता, “क्या करूं भाभी लड़कियों के सामने बड़ा ही संकोच होता है.” कुछ दिनों बाद दिवाली थी. भइया-भाभी ने मुझे दीदी को लाने उनकी ससुराल भेज दिया. दीदी की ससुराल में काफ़ी आवभगत हुई. खाना खाने के दौरान ही एक मधुर आवाज़ कानों में पड़ी, “आप तो कुछ खा ही नहीं रहे, एक रोटी और लीजिए ना.” मैंने देखा तो दीदी की ननद मानिंदी हौले-हौले मुस्कुरा रही थी. उसकी सौम्य मुस्कुराहट में न जाने क्या बात थी, मैं उसे देखता ही रह गया. आंखें मिलीं और मेरे दिल में पहली बार अजीब-सी हलचल हुई. अब मैं मानिंदी की एक झलक पाने को ही बेताब रहता. उसकी खिलखिलाती हंसी और उसकी मासूमियत में अजीब-सी कशिश थी. मैं कुछ-कुछ समझने लगा था कि शायद इसी को प्यार कहते हैं और अब मैं भी इसकी गिरफ़्त में आ चुका हूं. एक दिन मैं पानी पीने के बहाने डायनिंग रूम में आया. मानिंदी फिल्मी पत्रिका पढ़ते-पढ़ते कुछ गुनगुना रही थी, “होशवालों को ख़बर क्या, बेख़ुदी क्या चीज़ है...” दीदी ने उसे छेड़ा, “मेरा भाई है ही इतना प्यारा कि उसे देखकर लड़कियां अपने होश खो बढ़ती हैं... बस थोड़ा शर्माता है, उसे इश्क़ करना सिखाना पड़ेगा.” यह भी पढ़ें: पहला अफेयर: कैसा तेरा प्यार…? (Pahla Affair: Kaisa Tera Pyar) “धत् भाभी...” कहते हुए शर्माकर वह भागी और सीधे आकर मुझसे ही टकरा गई. फिर आंखें चार हुईं और उसके गालों पर हया की सुर्ख़ी उतर आई. वो फिर भागी, मैं हिरणी-सी भागती मानिंदी को देखता ही रह गया. उसकी चंचलता, चपलता और अल्हड़पन पर मैं मर मिटा. इतने में ही दीदी ने बताया कि कल मुंबई की टिकट कंफर्म हो गई. यह सुनकर तो मैं जिसे आसमान से सीधे ज़मीन पर गिर पड़ा. मेरे होश ठिकाने आ गए थे. मानिंदी ने उदास होकर दीदी से पूछा, “भाभी आप कल चली जाएंगी?” पर न जाने क्यों मुझे ऐसा लगा जैसे उसे मेरा विरह सता रहा है. मुझे रातभर नींद नहीं आई. करवट बदलते-बदलते न जाने कब सुबह हो गई. जीजाजी और उनके परिवारवाले हमें विदा कर रहे थे. मानिंदी दूर खड़ी जुदाई की पीड़ा झेल रही थी. उसकी आंखों में साफ़ नज़र आ रहा था. रास्ते में दीदी ने न जाने क्यों अचानक पूछा, “मानिंदी के बारे में क्या ख़्याल है?” मैं चुप ही रहा, शायद दीदी को हमारे मौन प्रेम की भनक लग चुकी थी. घर पहुंचकर भइया ने दीदी से पूछा, “सफ़र कैसा रहा?” दीदी ने मुस्कुराकर कहा, “प्रदीप से ही पूछ लो.” भाभी भी किचन से आकर बोलीं, “क्या बात है देवरजी, बदले-बदले से सरकार नज़र आ रहे हैं.” मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि यह सब क्या चल रहा है. कुछ समझ पाता इससे पहले ही दीदी ने तपाक से जवाब दिया, “बात ही कुछ ऐसी है. प्रोजेक्ट मानिंदी सफल रहा, “भइया भी फ़ौरन बोले, “तो बात चलाई जाए?” अब मैं सब समझ चुका था कि ये सब भइया-भाभी की ही मिलीभगत थी. दीदी के ससुराल भेजना तो स़िर्फ एक बहाना था. लेकिन मुझे कोई गिला नहीं, यह बहाना इतना हसीं थी कि मुझे मेरी ज़िंदगी का सबसे ख़ूबसूरत मक़सद मिल गया था. मेरा पहला प्यार, मेरी प्यारी मानिंदी, जो कुछ ही दिनों में मेरी जीवन संगिनी भी बननेवाली थी!- प्रदीप मेहता
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