पहला अफेयर: समर्पित प्यार (Pahla Affair: Samarpit Pyar)
प्यार एक ख़ूबसूरत एहसास (Emotion) है. कहते हैं, लोग प्यार में जान दे देते हैं, तो ले भी लेते हैं. न जाने कैसा जुनून छा जाता है प्यार भरे दिलों पर. पर बरसों पहले प्यार (Love) करने वालों के ख़याल कुछ अलग ही हुआ करते थे. जिसे चाहा उसके प्रति पूर्ण समर्पण और उसकी ख़ुशी की ख़ातिर त्याग भरी भावना हुआ करती थी. अपने हिस्से चाहे जितने ग़म व तन्हाई आए, पर प्यार को वे रुसवा न होने देते थे. ऐसी ही प्यार भरी अनुभूति से सराबोर हूं मैं भी. आज भी उसके प्यार व समर्पण का ख़याल आते ही दिल में एक टीस-सी उठती है. बिना कुछ कहे-सुने भी अपने सेवा भाव से प्यार का इज़हार किया जा सकता है, यह मैंने उसी से जाना. अब तो कई सदियां बीत गयीं, लेकिन आज भी उसका रुहानी प्यार मेरे दिल में महफूज़ है.
अब तो प्यार-मोहब्बत को जानते हुए मैं इस दौर तक आ गई हूं, जब मेरे नाती अपने प्यार की बातें कहने-सुनने लगे हैं. आज से चार-पांच दशक पहले प्यार करना क्या है, ये तो हम जान ही नहीं पाते थे. आज जैसा खुलापन और बड़ों का उदारवादी स्नेह हमें प्राप्त नहीं था.
बात उन दिनों की है जब हम गुड्डे-गुड़ियों से खेला करते थे. मासूम बचपन और हरदम चेहरे पर शरारत रहती. लेकिन तब का व़क़्त अलग था. बड़े-बुज़ुर्गों के लिहाज और संस्कारों के चलते बड़े घरों की बहू-बेटियों का बाहर आना-जाना उतना होता न था. वह हमारे मुनीमजी का बड़ा बेटा था. बचपन से काम के बहाने घर के अंदर आता रहता. वह कब हमारे दिल में बस गया, जान ही न पाए हम.
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यह भी पढ़ें: पहला अफेयर: तुमको न भूल पाएंगेमास्टर साहब मुझे पढ़ाने आते तो वह भी साथ ही पढ़ने बैठ जाता. महाराजिन दाई मां के साथ वह खाना भी बहुत अच्छा बना लेता. शाम की संध्या पूजा की तैयारी, जो मेरी ज़िम्मेदारी थी, कब उसका फ़र्ज बन गया, यह देख मैं हैरान थी. बचपन के 8-10 वर्ष का यह साथ किशोरावस्था का संकोच बनता चला गया. मैं साड़ी पहनने लगी तो वह मेरे लिए बाग से फूल ले आता. अमराई के आम, कच्ची इमली, अमरूद, करौंदे के दाने मेरे लिए झट तोड़ कर ले आता. हर पल मुझे हंसते-खेलते, इठलाते देखने की तमन्ना रहती उसकी.
लेकिन तक़दीर मेें तो कुछ और ही होना लिखा था. दरअसल, मेरा विवाह मेरे जन्म के समय ही बुआ के देवर के बेटे से तय हो गया था, पर जाने क्यों दिल इसे मानने को तैयार न था. मन हर पल उसके ख़यालों में खोया रहता. अब इस वजह से मैं घरवालों से दूर रहकर घंटों अकेले सोचती रहती और उसे याद कर मुस्कुराती. पर ज़ुबां न खुलती, नज़रें ऊपर न उठतीं. लेकिन एक दिन मां के उन शब्दों ने मेरी ज़िंदगी ही बदल दी, ङ्गङ्घअर्चु, बाबा की पगड़ी कभी तेरी वजह से उतर ना पाए.फफ शायद मेरे दिल का हाल, मुझसे पहले मां समझ गई थी, तभी तो मां ने मुनीम जी से कह कर उसकी नौकरी मेरी मौसी के यहां करवा दी.
मेरे विवाह तक उसने सारा काम बड़ी ईमानदारी से किया और मेरे विदा होने से पहले ही ख़ुद अलविदा कहकर चला गया. उसके प्यार के समर्पण ने मेरी गृहस्थी की सुरक्षा की है. जब कभी उसे याद करती हूं तो उसके समर्पण और प्यार से भावुक हो उठता है मन.
- अर्चना