मैं उसके गले लगकर, जीभर कर रो भी नहीं सका, उसे चुप भी नहीं करा सका. सीने में एक सैलाब उमड़ आया था, जो शरीर की हदें तोड़कर बह जाना चाहता था, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. हां मुझे यह ज़रूर लगा कि मेरे अस्तित्व का ज़र्रा-ज़र्रा सुमित नहीं रहा, वनिता हो गया मैं, मैं नहीं रहा, इस रिश्ते को नाम देने की पागल कर देनेवाली इच्छा नहीं रही.
मुझे देखकर वह एकदम खिल उठी, पहले की तरह.
“सुमित! तुम! कहां चले गए थे तुम? अब कहां से आ रहे हो? मेरा तुम्हें कभी ध्यान नहीं आया?”
वह एक ही सांस में न जाने क्या-क्या कहती जा रही थी और मैं अपलक उसे देख रहा था. वक़्त इतना भी बेरहम नहीं था. वह तो ज़रा भी नहीं बदली थी. वह जलन जो न जाने कब से अनदेखे प्रतिद्वन्द्वी से हो रही थी, कहीं लुप्त-सी हो गई.
वह किसी की है, उसके तन-मन पर, ज़िन्दगी पर किसी अन्य का अधिकार है, मेरे साथ तो शायद यूं ही बात कर लेती थी- यह सोच थी जो घने कोहरे की तरह मेरे अस्तित्व पर छाई हुई थी और मेरे हृदय में पल्लवित प्यार की कोंपल, जो बढ़कर वृक्ष में परिवर्तित हो चुकी थी, को ठिठुरा रही थी. पर वनिता की सरल हंसी की धूप में कोहरा उड़ गया, पत्ती-पत्ती बसन्त के आगमन पर खिल उठी.
“अरे! यहीं खड़े रहोगे? अन्दर आओ न.” यह क्या? उसकी आंखें नम. पर वह तो हंस रही थी. और शायद मेरी ही तरह भावातिरेक से हल्का-सा कांप भी रही थी.
मैं अभिभूत-सा उसके पीछे-पीछे चलता हुआ ड्रॉइंगरूम में जाकर बैठ गया. किसी से कुछ भी कहते नहीं बन पा रहा था. एक अजीब से आनन्द के सागर में मैं डूब-उतरा रहा था, शायद… वो भी. हालांकि उसने अपनी भावनाएं स्पष्ट शब्दों में मेरे लिए कभी भी अभिव्यक्त नहीं की थीं, फिर भी मुझे हमेशा यही लगता रहा था कि जो मुझे महसूस होता है, वही उधर, उसके हृदय में भी प्रतिबिम्बित होता है.
“कैसे हो सुमित!” उसकी मधुर आवाज़ खनकी. मेरा जवाब सुने बिना ही जैसे कि उसकी आदत थी, उसके मन में जो कुछ आता गया, वह बोलती गई.
“कमज़ोर हो गए हो, बीमार रहे हो क्या? अपना ध्यान नहीं रखा होगा. मशीनों के साथ उलझे रहते होगे? अकेले थे? बातें किससे करते थे?”
आख़री वाक्य कहते-कहते उसकी आवाज़ में स्पन्दन आ गया. सोचा, कह दूं ‘बहुत अकेला हूं वनिता तुम्हारे बिना. कोई दोस्त आए-जाए… क्या फ़र्क़ पड़ता है. तुम तो लुप्त हो गई न अकेला छोड़कर, मेरी नज़रें उसकी मांग में चमकते हुए सिन्दूर पर अटकी हुई थीं. वनिता की शिकायतें अभी समाप्त नहीं हुई थीं.
“मेरी शादी पर भी नहीं आए. मैं इन्तज़ार करती रही. तुम्हारी तरह तो कोई नहीं करता. ख़ैर!”
कैसे कह दूं- ‘वनिता अपनी बर्बादी का तमाशा देखने आता क्या?’
पर उससे क्या शिकायत? कब उसने कुछ भी ऐसा कहा था, जिससे मैं कह सकूं कि हमारे बीच में फलां रिश्ता था या हो सकता था. वह मेरे साथ हंस-बोल लेती थी, इसका अभिप्राय यह तो नहीं कि मैं उससे शादी के सपने सजाने लगूं या उससे जलूं, जिसे उसे पाने की ख़ुशक़िस्मती हासिल हुई.
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मेरे सपनों पर… हां, सपने ही कहूंगा, क्योंकि वे हक़ीक़त में कभी बदल ही नहीं पाए. वैसे वे कभी हक़ीक़त में बदल पाएंगे, ऐसा सोचने का भी शायद कभी मैंने साहस नहीं किया था. मेरे सपनों पर, मेरी सोच पर क्यों एकाधिकार उस लड़की का हो गया था, जो या तो इतनी भोली थी, जिसे अपने दिलो-दिमाग़ का पता ही नहीं था या जान-बूझकर अपनी और दूसरों की भावनाओं को न समझने का अभिनय करती थी.
वनिता खन्ना साहब की, जो कि शहर के बहुत बड़े उद्योगपति थे, सबसे छोटी सन्तान थी. बड़ी बेटी दिल्ली के एक प्रतिष्ठित औद्योगिक घराने में ब्याही गई थी. बड़ा बेटा अमेरिका में व्यवस्थित था. और मैं… खन्ना साहब की फर्म में इंजीनियर था. मेरी पृष्ठभूमि गांव की थी. शहर में निवास ढूंढ़ने में थोड़ी द़िक़्क़त आई तो खन्ना साहब ने अपने ही बंगले में दो कमरे मुझे रहने के लिए दे दिए.
यहीं पर मेरी मुलाक़ात उस हंसती-खिलखिलाती, मस्त पहाड़ी नदी की सादगी, ताज़गी और चुलबुलापन लिए उस लड़की से हुई, जिसने मेरी रूखी-सूखी मशीनी ज़िन्दगी को एक कविता बना दिया था. बी.ए. करने के पश्चात् वह इंटीरियर डेकोरेशन का कोर्स कर रही थी. मैंने पाया कि वह अत्यधिक मेधावी थी. लगभग हर विषय पर वह अपने विचारों को अभिव्यक्त कर सकती थी.
मैं यह तो नहीं जानता था कि यह लम्बी, छरहरी, काली आंखों और घने-लम्बे काले बालों वाली लड़की का शारीरिक आकर्षण था या उसके निष्कपट दिल की ख़ूबसूरती या उसके तेज़ दिमाग़ का प्रभाव, पर कुछ तो था उसमें, जो कुछ ही देर में दुनिया की हर ख़ूबसूरत चीज़ में मुझे वही नज़र आती- सुबह के उगते सूरज में, तारामण्डित रात में, चन्द्रमा के चेहरे में, फूलों की मुस्कान में, हर जगह! हर तरफ़! काम करते-करते ध्यान उचट-उचट कर उसकी तरफ़ चला जाता. उसकी आवाज़ सुनने की, उसे देखने की ललक हर व़क़्त लगी रहती, मुझे क्या हो गया था यह!
कभी-कभी मुझे लगता कि वह भी मेरे बारे में कुछ तो सोचती होगी. नहीं तो क्यों इतनी देर बातें करती रहती थी मेरे साथ! पर लगता यह उसका सरल, उन्मुक्त व्यवहार ही है, उसके दिल में ऐसा-वैसा कुछ नहीं.
एक बार यूं ही बातें करते हुए मैंने कहा, “वनिता, तुम्हारे ख़्याल में शादी माता-पिता द्वारा ढूंढ़े गए लड़के या लड़की से करनी चाहिए या यह चुनाव अपना होना चाहिए?” उसने मुझे अरेंज्ड मैरिज के पक्ष में एक अच्छा-ख़ासा भाषण सुना डाला. मैं पता नहीं उससे क्या मनवाना चाहता था, जो मैंने फिर कहा, “मैं तुमसे सहमत नहीं हूं वनिता! जिसके साथ ज़िन्दगी बसर करनी है, अगर अपनी पसन्द का न हो तो क्या ज़िन्दगी का सफ़र कांटों भरा नहीं हो जाएगा?” मेरी बात बीच में ही काट कर खफ़ा होते हुए उसने कहा, “तुम मुझे क्या उल्टी-सीधी बातें सिखाने की कोशिश कर रहे हो? माता-पिता क्या बुरा करेंगे तुम्हारा? और फिर, शादी तो एडजस्टमेंट का नाम है. अगर एडजस्टमेंट अपने चुनाव के साथी से भी नहीं हो पाई तो शादी चलेगी नहीं.”
मैं तिलमिला उठा…
मैं इसे उल्टी-सीधी बातें सिखा रहा हूं? यह तो पहले ही इतना सीखी-समझी हुई है. परिवार के संस्कार इतना कूट-कूटकर इसकी रगों में भरे हुए हैं कि इसकी अपनी कोई सोच है ही नहीं. कुछ और समझने की तो क्या, शायद महसूस करने तक की भी गुंजाइश नहीं.
सोचा- अब इससे कोई बात नहीं करूंगा. पर कुछ ही दिनों में मैंने महसूस किया कि वह जैसी भी है, उसने जो भी कहा, इस बात से कोई इन्कार नहीं कि उसकी सीधी-सादी दोस्ती मुझे अपरिमित आनन्द देती थी. मैं क्यों उस आनन्द से वंचित हो रहा हूं? मेरी मशीनों के बारे में, मेरे काम के बारे में उसका पूछना, मेरे जीवन की, मेरे बचपन की, मेरे कॉलेज के दिनों की बातों में रुचि लेना, अपने कॉलेज की हल्की-फुल्की बातें सुनाना, कभी हंसना, कभी हैरान होना, कभी किसी सामाजिक बुराई पर जोश से बोलना, कभी किसी और के दुख पर द्रवित होना, आकाश की यह इन्द्रधनुषी छटा क्या कम थी मेरे लिए? दो-तीन वर्ष बाद क्या होने जा रहा है, उसके ग़म में आज ही क्यों मरा जा रहा हूं? शादी ही तो हर जान-पहचान या लगाव की मंज़िल नहीं- यह मैंने अपने दिल को समझा दिया था.
पर नहीं! आनेवाले दिनों ने मेरा करार छीन लिया. ज़िन्दगी वैसे भी एक ढर्रे पर तो चलती नहीं रह सकती. हम क्या चाहते हैं, क्या नहीं- यह ज़िन्दगी का सरोकार नहीं. इसकी अपनी राहें हैं, अपने तौर-तरी़के. वनिता के लिए बड़े ज़ोर-शोर से लड़के की तलाश हो रही थी और यह भी उसने ही मुझे बताया था. यह स्पष्ट था कि वह ज़्यादा-से-ज़्यादा मुझे अपने बचपन का दोस्त-सा समझती थी. मैं अपने आपको उस स्थिति का सामना करने के लिए तैयार नहीं कर पा रहा था जब वह किसी और की होकर वहां से चली जाएगी. हालांकि वनिता का व्यवहार मेरे प्रति यथावत था, पर मैं वहां से भाग जाने को अमादा था. मैंने कई फर्मों में नौकरी के लिए निवेदन पत्र भेजे. अन्तत: मुझे एक बहुत बड़ी फर्म में असिस्टेंट इंजीनियर की नौकरी मिल गई.
वनिता को बताया कि अगले महीने कॉन्टीनेंटल कंस्ट्रक्शन कम्पनी ज्वाइन करने जा रहा हूं. पहले तो उसे विश्वास ही नहीं आया. उसे लगा कि मैं मज़ाक कर रहा हूं. सुमित… सुमित कैसे जा सकता है कहीं भी कभी? मैडम कहीं भी, किसी के साथ भी घूमकर आएं, नए रिश्ते बनाएं, सुमित को तो वहीं पत्थर की तरह उसका इन्तज़ार करना चाहिए, है न. मैं विजेता की तरह महसूस करने लगा. पर अब उसे लगा कि मैं वाकई गम्भीर हूं… ओफ़! जैसे भूचाल आ गया. मैं उसे दोस्ती में विश्वासघात करनेवाला, मित्रता की पीठ में छुरा भोंक देनेवाला लगा.
“ओह! तुम्हारे लिए चार पैसे ज़्यादा और साथ में मिलनेवाली कार और फ्लैट बहुत बड़ी चीज़ हो गए? मुझे तुमने कुछ नहीं समझा? मैं तुम्हें अपनी हर बात बताऊं और तुमने मुझसे बात तक नहीं की कि तुम क्या करने जा रहे हो.”
वह बहुत ग़ुस्से में थी, उसकी आवाज़ कांप रही थी, वह हांफ रही थी.
“जाओ! अगले महीने क्यों, अभी जाओ, कोई मर नहीं जाएगा तुम्हारे बगैर. मैं… मैं जी सकती हूं, सुमित, तुम्हारे बिना. तुम्हारे सारे कार्ड लाकर मैं अभी तुम्हारे मुंह पर मारती हूं. ले जाना उन्हें भी अपने साथ. कोई निशानी छोड़कर मत जाना…” कहते-कहते वह सीढ़ियां उतर कर भाग गई.
….और मैं अपने आपको अपराधी-सा महसूस कर रहा था, थोड़ा महत्वपूर्ण भी. अगले दिन मिली तो उसकी आंखें रोने से सूजी हुई थीं, पर वह शान्त थी. मेरे कार्ड जो मैंने विभिन्न अवसरों पर जैसे कि उसका जन्मदिन, नया साल, दीवाली या उसके बीमार होने पर ‘गेट वेल सून’ की शुभकामनाओं के साथ दिए थे- वे भी उसने नहीं मोड़े, जो कि मुझे डर था कि अपनी धमकी के अनुरूप अवश्य मेरे मुंह पर मारेगी.
वह मेरे पास आई और सन्तुलित लहजे में कहा, “सुमित, आई एम सॉरी. कल पता नहीं क्या हो गया था मुझे! पता नहीं क्या कुछ कह दिया मैंने तुम्हें. अगर कुछ चुभनेवाली बातें कह दी हों तो प्लीज़ माफ़ कर देना.”
मैं उसे अपलक देख रहा था. वह कितनी मासूम थी. मैंने उसे तकलीफ़ क्यों दी?
उसने आगे कहा, “तुम्हारी ग़लती ही कहां है? सब अपनी उन्नति के लिए प्रयत्न करते हैं. तुम इतने प्रतिभा सम्पन्न हो, तुम क्या इसलिए आगे न बढ़ो कि मैं तुम्हें जानती हूं? डैडी अक्सर कहते हैं- बहुत होनहार, मेधावी लड़का है. ज़िन्दगी में बहुत ऊंचा उठेगा. जब वे तुम्हारी प्रशंसा करते हैं तो मैं कितनी ख़ुश होती हूं और अब जब तुम्हें सचमुच ही इतना अच्छा अवसर मिला है तो बजाए बधाई देने के मैंने तुमसे झगड़ा किया.” कहकर वह मुस्कुराई, “भगवान तुम्हें आगे बढ़ने के और अच्छे-से-अच्छे अवसर दे.”
मैं रोने के कगार पर था. मैं चीख-चीख कर कहना चाहता था, ‘वनिता मुझे तुम्हारी शुभकामनाएं नहीं चाहिए. मैं मर कर भी तुमसे अलग नहीं होना चाहता. मुझे किसी भी तरह किसी भी रूप में अपने आसपास ही रहने दो. तुम कार, फ्लैट की बात करती हो, मुझे तो वह दुनिया ही नहीं चाहिए जिसमें वनिता न हो…’ पर घुटे-घुटे स्वर में इतना ही कह पाया,
“मैं आता-जाता रहूंगा… आप सबसे मिलने.” फिर थोड़ा नर्म पड़ते हुए कहा,
“जब भी बुलाओगी, जहां भी होऊंगा, चला आऊंगा.”
और एक दिन मैं आ गया उसे बिना बताए. पर यह कैसा चैन था. ज़िन्दगी नीरस, रेतीली और बोझ लग रही थी. मैं उदास था, अकेला था, मेरा दम घुट रहा था, पर मैं उससे मिलने नहीं गया. उसने बुलाया भी नहीं.
सिर्फ सालभर बाद उसकी शादी का कार्ड मिला, जिसने एक बार फिर मुझे झकझोर कर रख दिया. उसकी तरफ़ से कार्ड के रूप में जो हवा आई थी, उससे उदासीनता की राख उड़ गई. मुहब्बत के अंगारे अभी भी सुलग रहे थे. सांसें चल रही थीं, इसलिए ज़िन्दा तो था ही, पर ज़िन्दगी से अजनबी हो गया था. एकाकीपन और गहरा हो गया था.
और उसके छह महीने बाद मैं फिर उसके सामने बैठा था.
पता नहीं किस भावना के वशीभूत होकर खन्ना साहब के यहां चला आया था मैं. यह भी इत्तफ़ाक़ ही था कि वह भी अपनी मम्मी से मिलने आई हुई थी.
वह कुछ नर्वस-सी लग रही थी. हालचाल पूछने के बाद रुक-रुककर इधर-उधर की बातें होती रहीं. कोई तार जुड़ नहीं रहा था. पहले की तरह बातों का कोई सिलसिला नहीं चला. अचानक पता नहीं कैसे पूछ बैठा, “और बताओ, राजन से कैसे बनती है? कैसा स्वभाव है उसका?”
एक पल के लिए उसने मुझे ग़ौर से देखा और खिलखिलाकर हंस पड़ी.
“बहुत अच्छे हैं वो. मेरा बहुत ध्यान रखते हैं. ज़रा भी उदास नहीं होने देते मुझे. बहुत हैंडसम और स्मार्ट हैं. आई लव हिम ए लॉट. राजन चाहे एक बहुत बड़े बिज़नेस एम्पायर के मालिक हैं, पर स्वभाव में ज़रा भी घमण्ड नहीं. तुम दो दिन ठहरो, मुझे लेने आ रहे हैं. मिलवाऊंगी उनसे…”
उसे तो जैसे पति की प्रशंसा का मौक़ा मिल गया. मुझे उस पर कम और अपने पर ज़्यादा ग़ुस्सा आ रहा था. मुझे क्या पड़ी थी यहां आने की और अब उससे यह बेतुका सवाल पूछने की. सुन लिया उसका बेतरतीब, असम्बद्ध भाषण. वह है ही इतनी परफेक्ट, उसका पति कम कैसे हो सकता है. क्रोध और जलन की भावना मेरा दिल फूंक दिए. तभी उसकी आवाज़ खनकी.
“तुम भी अब शादी कर लो न किसी सुन्दर-सी लड़की से.”
“हां जल्दी ही कर लूंगा, लड़कियों की कोई कमी नहीं है. तुमसे कहीं सुन्दर और इंटेलीजेंट लड़की ढूंढ़कर लाऊंगा. तुम समझती क्या हो अपने आपको?”
कहते-कहते मैं खड़ा हो गया, जाने के लिए तत्पर. वह भी उठी और बिल्कुल मेरे सामने आकर खड़ी हो गई, आहिस्ता से. और मुझसे बिना नज़रें मिलाए जैसे दीवार की ओर ही देखते हुए कहा, ‘सचमुच सुमित! जिसे तुम्हारा ज़िन्दगीभर का साथ मिलेगा, तुम्हारी या किसी और की नज़र में हो या न हो, मेरी नज़र में वह सबसे सुंदर लड़की होगी, सारी दुनिया से सुंदर, तक़दीर भी साथ में लिए हुए.”
फिर एकदम मेरी तरफ़ पलटी और नज़रों में नज़रें डालकर उस आवाज़ में बोली, जो अब तक बिल्कुल रुआंसी हो आई थी.
“पर तुम मुझसे नाराज़ क्यों होते हो सुमित? मुझे डांटते क्यों हो? क्या मैं तुम्हारे इसी व्यवहार के क़ाबिल हूं?”
मैं अपराधी की तरह उसके सामने खड़ा था. कुछ भी कहते नहीं बन पा रहा था. सदा ही ऐसा होता था, कुसूर चाहे उसका ही हो, अपराधी वह मुझे ही बनाती थी और मैं भी अपने आपको ही कुसूरवार समझता था, उसे नहीं.
“…तुम मेरी ज़िन्दगी में आए बिना बुलाए और मुझे पता भी नहीं चला कब मेरे जीवन का हिस्सा बन गए. और जब जी में आया चले गए, मुझे बिना बताए. तुम्हारे जाते हुए क़दमों की आवाज़ तो सुनी थी मैंने… पर आगे बढ़ के भागकर तुम्हें रोक नहीं पाई. मेरे पैर इस ज़मीन में ही गड़े रहे. कभी भी समझ नहीं पाई, तुम्हें रोकूं तो कैसे? किस अधिकार से? किस रिश्ते से?”
आंसू बहकर उसके गालों पर आ गए थे.
“… आज… आज तुम मेरे सामने खड़े हो. कल मुझे लगेगा जैसे यह सपना था. तुम न जाओ सुमित… तुम न जाओ. तुम होते हो, तो सब कुछ अच्छा लगता है. नहीं तो यह भरी-पूरी, रंगबिरंगी दुनिया अन्तहीन वीराना लगती है. अकेली हूं तुम्हारे बिना मैं, बिल्कुल अकेली. मुझे उस दुनिया में छोड़कर न जाओ जहां मैं तुम्हें देख न सकूं. तुम से बात न कर सकूं… मुझे शून्य में भटकने के लिए छोड़कर न जाओ सुमित. न जाओ…” कहते-कहते बुरी तरह से हिचकियां लेकर रोते हुए, हाथों में मुंह छिपाए वह घुटनों के बल बैठ गई. जैसे खड़े होने की शक्ति शेष न बची हो. काली घटा से बाल खुलकर उसके चेहरे पर फैले हुए थे. मांग में सिन्दूर चमक रहा था.
…और मैं आगे बढ़ कर उसको बांहों में नहीं भर सका. मैं उसे बेतहाशा चूम न सका, जो कल्पना में मैंने जाने कितनी बार किया था.
मैं उसके गले लगकर, जीभर कर रो भी नहीं सका, उसे चुप भी नहीं करा सका. सीने में एक सैलाब उमड़ आया था, जो शरीर की हदें तोड़कर बह जाना चाहता था, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. हां मुझे यह ज़रूर लगा कि मेरे अस्तित्व का ज़र्रा-ज़र्रा सुमित नहीं रहा, वनिता हो गया मैं, मैं नहीं रहा, इस रिश्ते को नाम देने की पागल कर देनेवाली इच्छा नहीं रही.
मैं कहना चाहता था, ‘वनिता, मैं नहीं जा रहा. मैं तुम्हारे पास ही रहूंगा. तुम्हारे सपनों में, तुम्हारी कल्पना में, जो न तुमसे छिनेगी, न कभी बूढ़ी होगी, न जुदा होगी’ पर कह नहीं पाया. मैं उसे वह सुकून नहीं दे पाया, जो मुझे मिल गया था. मैं उसकी तलाश में कहां-कहां नहीं भटका था? वह तो मेरे भीतर थी, मेरे वजूद के हर ज़र्रे में.
- सुमन बाली
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