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कहानी- अतीत के बिछड़े पन्ने… (Short Story- Ateet Ke Bichhde Panne…)

"वहां कौन है?" उसकी आवाज़ सुन खिड़की पर खड़े साये में थोड़ी हरकत हुई, पर कोई जवाब नहीं मिला. वह खिड़की की तरफ़ लपकी. एक साया तेज़ी से उसकी खिड़की से हटकर मंदिर की तरफ़ जानेवाले रास्ते की तरफ़ मुड़ गया. एक पल के लिए लैंप पोस्ट की रोशनी पड़ी, तो उसमें स्पष्ट दिखा, वह मानवी की ही आकृति थी. वही पर रुककर वह आकृति पलटी और उसे बाहर आने का इशारा किया. वह सन्न खड़ी रह गई, तो क्या मानवी की आत्मा भटक रही है या मानवी अभी भी ज़िंदा है.

रात के लगभग सात बज रहे थे. पटना एयरपोर्ट पर लैंड करने के लिए प्लेन आकाश में चक्कर लगा रहा था. विंडो सीट पर बैठी सुनंदा की नज़रें पल-पल क़रीब आते एयरपोर्ट की झिलमिल करते सितारों-सी रोशनी पर टिकी हुई थी. पूरे चार बरस बाद उसके पांव भारत की धरती पर पड़नेवाले थे. अपनों से मिलने और अतीत के एहसास से जुड़ने का विचार ही मन को उद्वेलित कर रहा था. अपनों से मिलना और अपनी धरती से जुड़ना कितना सुखद होता है, यह वही बता सकता है, जो बरसों अपनी धरती से दूर रहा हो.
हमेशा की तरह, प्लेन के लैंड करने के बाद भी, वह सीट पर बैठी थोड़ा भीड़ के कम होने का इंतज़ार कर रही थी कि तभी उसके सामनेवाले सीट को थामनेवाली हाथ पर उसकी नज़र गई. वह एक बेहद ख़ूबसूरत किसी लड़की का लंबी, पतली, उंगलियों वाला हाथ था, जिसमें हीरा जड़ा अंगुठी दमक रहा था. न जाने क्यों वह हाथ उसे बहुत ही जाना-पहचाना, अपना सा लगा. अचानक उसे एक झटका सा लगा. ऐसा हाथ तो सिर्फ और सिर्फ़ मानवी का ही हो सकता था. हीरे के अंगुठी का भी उसे कितना शौक था. उसने मुड़कर उस औरत की तरफ़ नज़रें घुमाई. उसने अपना पूरा चेहरा ओढ़नी से ढ़क रखा था, फिर भी कद-काठी मानवी से ही मिलता-जुलता था. वह झट से अपना बैग उठाए, उस भीड़ का हिस्सा बन गई. जाने क्यों उसे लग रहा था, वह औरत दूर होते हुए भी तिरक्षी निगाहों से उसे ही देख रही थी.
तभी उसके पैरों में जैसे ब्रेक लग गया. अपने बचपन की सहेली मानवी से मिलता-जुलत, कद-काठी देखकर जिस लड़की के पीछे, सुनंदा भाग रही थी, वह मानवी कैसे हो सकती थी? आज से पूरे छह साल पहले उसकी आंखों के सामने जिस मानवी के अस्तित्व का विसर्जन गंगा में कर दिया गया था, उसके दिख जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था. पर मन का कोई क्या करे. जहां भी थोड़ी गुंजाइश नज़र आती है, असंभव को भी संभव मान लेता है. सामान लेकर एयरपोर्ट से बाहर निकली, तो इधर-उधर उसकी निगाहें अपने ममेरे भाई सुबोध को खोजने लगी. इतने बरसों बाद यहां आना भी तभी संभव हो पाया था, जब मामाजी ने सुबोध की शादी हाजीपुर के अपने पुश्तैनी मकान से ही करने का फ़ैसला किया था.
सुबोध को ढूढ़ती उसकी निगाहें सामने एक काले रंग के कार पर पड़ी, जिसमें वह औरत बैठ रही थी. बैठने के दौरान अचानक उसके चेहरे से ओढ़नी सरक गई, जिससे उसका चेहरा अनावृत हो सुनंदा की आंखों के सामने आ गया. मानवी की ही सूरत थी, जिसे देख वह स्तब्ध रह गई थी. उसके नसों में दौड़ता खून जैसे जम गया था. वह जड़वत उसे निहारती रह गई. बस, पल-दो पल में ही कार का दरवाज़ा बंद हुआ और कार आगे बढ़ गई. कार के आगे बढ़ते ही सुनंदा को जैसे होश आया, वह मानवी का नाम पुकारते हुए, उसके पीछे भागी, पर कार तेज़ी से आगे बढ़ गई और सामने से सुबोध आ गया.
उसे संभलते हुए बोला, ‘दीदी, आपको हो क्या गया है? कहां भागी जा रहीं हैं?’’
सुबोध की आवाज़ से जैसे उसकी चेतना वापस आ गई.
‘‘कुछ नहीं.. यूं ही… कोई परिचित दिखा गया था.’’
उसके पांव स्पर्श कर सुबोध सामान गाड़ी में व्यवस्थित करने लगा. जब दोनो एयरपोर्ट से बाहर निकले, सुबोध ख़ुश होते हुए बोला, "दी, मुझे तो अपनी आंखों पर विश्‍वास नहीं हो रहा है कि सचमुच आप मेरी शादी में आ गई हैं.’’
‘‘अपने सबसे प्यारे भाई की शादी में भला मैं कैसे नहीं आती?’’
फिर दोनों बातों में मशगूल हो गए. कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद अचानक मन में मानवी को लेकर उमड़ते-घुमड़ते प्रश्‍न होंठों पर आ ही गए थे, "सुबोध, तुम भी तो उस दिन सबके साथ थे, जब मानवी को लोग श्मशान घाट ले गए थे. क्या तुम लोगों ने वास्तव में मानवी को ही जलाया था या वह कोई और थी.’’

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"अचानक ये आप कैसे प्रश्‍न कर रही हैं दी? मानवी को मरे हुए लगभग छह साल गुज़र गए. ख़ुद उसके चाचा ने उसकी शिनाख्त की थी. उसके अस्थि विसर्जन के समय आप भी वहां उपस्थित थी. फिर भी…’’ वह वाक्य अधूरा छोड़कर उसे ऐसे देखने लगा जैसे उसका दिमाग़ बौरा गया हो.
वह सुबोध की शादी में आई थी, दूसरी कोई बात पूछने के बदले मानवी के विषय में पूछना उसे ख़ुद ही अटपटा-सा लगा. वह थोड़ी लज्जित होते हुए बोली, ‘‘सुब्बु, तू तो मेरा बचपन से राज़दार रहा है, फिर मैं आज कैसे तुमसे ये ना कहती कि अभी थोड़ी देर पहले, मैंने एयरपोर्ट पर मानवी को देखा था. तुमने भी तो मुझे उसके पीछे भागते देखा था.’’
"इतने दिनो बाद आप आईं हैं, तो अपनी बेस्ट फ्रेंड की याद आ जाना स्वाभाविक है. हो सकता है उसकी यादों में उलझा आपका दिमाग़ किसी दूसरी लड़की में उसे ढूंढ़ लिया हो. आप हैं भी तो बहुत भावुक न."
उसे हल्के से चपत जमाते हुए हंसकर सुनंदा बोली, ‘‘चुप कर… ज़्यादा अपनी साइकोलाॅजी मत बघार. इतनी अक्ल है मुझमें.’’
बातें करते-करते पटना से हाजीपुर का रास्ता, जो क़रीब आधे घंटे का था कब समाप्त हो गया पता ही नहीं चला. जब कार उसके चिर-परिचित ननिहाल के दरवाज़े पर आ रुकी, उसकी ख़ुशी का पारावार न रहा. सामने ही मामी खड़ी उसी का इंतज़ार कर रही थीं. वह कार से उतर कर सीधे उनके गले से जा लगी. मामी उसे अपनी बांहों के घेरे में लिए अंदर आ गईं. बरसों बाद, एक बार फिर उनकी आत्मियता और प्यार ने उसे अंदर तक भीगो दिया.
वैसे भी मामी उसकी मां से कम नहीं थीं. मां के इस दुनिया से जाने के बाद वह मामी के ममता के आगोश में ही पली-बढ़ी थी. मामा -मामी की इकलौती संतान सुबोध उसके लिए अपने भाई से भी बढ़कर था. यही उसे मानवी जैसी दोस्त मिली थी, जो उसकी बहन जैसी थी. फिर भी जब मानवी मुसीबत में पड़ी, तो वह उसकी सहायता नहीं कर पाई थी, जिसका मलाल आज तक उसे सालता है. तभी मामी की आवाज़ ने उसे चौंका दिया था.
‘‘कहां खो गई बिटिया… परदेश क्या बसी हम सब तो तेरे लिए बेगाने ही हो गए."
‘‘नहीं मामीजी, ऐसा कैसे हो सकता है? इस दुनिया में आप से ज़्यादा मेरा अपना कोई नहीं है. आप ही मेरी मां हो.’’
शादी-ब्याह के माहौल में मामी को कैसे समझाती कि जब से आई है, उसका मन मानवी में ही उलझा हुआ था. न जाने क्यूं, धीरे-धीरे उसका विश्‍वास पक्का होने लगा था कि मानवी ज़िंदा है. वह पूरे दो महीने की छुट्टी में आई थी. कितने ही लोगों से मिलना था. अब जाने कब आना संभव हो. वह सोचकर ही आई थी कि इस बार निश्चित रूप से मानवी के मौत की मिस्ट्री सुलझा कर ही जाएगी. पर शादी के माहौल में वह इसकी चर्चा किससे करे? कैसे करे, कुछ समझ नहीं पा रही थी. घर आए लोगों और रिश्तेदारों से ही बातें करने में व्यस्त थी.
रात में मामी ने उसका बिस्तर उसके उसी पुराने चिर-परिचित कमरे में लगवा दिया था, जिसके ईंट-ईंट पर अतीत की यादें बिखरी पड़ी थीं. बेहद थके होने के बावजूद सुनंदा की आंखों से नींद कोसो दूर था. वह टहलते हुए खिड़की के पास तक आ गई थी. खिड़की से सामने ही मानवी के घर का पिछला हिस्सा नज़र आ रहा था.
चांदनी रात में भी वह विशाल हवेलीनुमा मकान, अजीब तरह का मनहूसियत समेटे, किसी भूत बंगले से कम नहीं लग रहा था. उसने एक लंबी सांस ली. इस हवेली में न जाने कितने राज़ दफ़न थे. कभी हवेली के इस पिछले हिस्से में फल-फूलों से लदा एक सुंदर बगीचा हुआ करता था. वह जगह अब लंबे-लंबे घासों और जंगली पेड़-पौधों से भरा पड़ा था. काई से भरे दीवारों पर उग आए बरगद और पीपल के पेड़ों ने उस मकान को और भी मनहूस बना रखा था. वह कुछ देर तक उस मकान को यूं ही देखती अतीत के गलियारों में भटकती मानवी को याद करती रही, फिर बिछावन पर आ लेटी.
तभी उसे लगा उस कमरे की खिड़की पर एक साया सा खड़ा है. वह हड़बडाकर उठ बैठी.
"वहां कौन है?" उसकी आवाज़ सुन खिड़की पर खड़े साये में थोड़ी हरकत हुई, पर कोई जवाब नहीं मिला. वह खिड़की की तरफ़ लपकी. एक साया तेज़ी से उसकी खिड़की से हटकर मंदिर की तरफ़ जानेवाले रास्ते की तरफ़ मुड़ गया. एक पल के लिए लैंप पोस्ट की रोशनी पड़ी, तो उसमें स्पष्ट दिखा, वह मानवी की ही आकृति थी. वही पर रुककर वह आकृति पलटी और उसे बाहर आने का इशारा किया. वह सन्न खड़ी रह गई, तो क्या मानवी की आत्मा भटक रही है या मानवी अभी भी ज़िंदा है.
न चाहते हुए भी उसके मुंह से एक हल्की-सी चीख निकल गई. उसकी आवाज़ सुनकर सुबोध उसके कमरे में आ गया, जो शायद अब तक जगा हुआा था.‘‘ "क्या बात है दी? कोई था क्या? आपको मानवी फिर से दिख गई क्या?’’

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वह अवाक.. निशब्द खड़ी उसकें प्रश्नों को सुन रही थी. उसका उ़ड़ा हुआ पसीने से तर चेहरा देखकर ही वह सब समझ गया था कि उसकी दी को फिर से मानवी के कहीं आसपास होने का भ्रम हो गया है. फिर तो उसी कमरे में वह अपना खाट खींच ले लाया और वही सो गया. सुनंदा ने भी राहत की सांस ली थी और आंख बंदकर सोने का प्रयास करने लगी, पर वह सो नहीं सकी थी. रातभर मन अतीत के गलियारों में भटकता रहा था.
जब सुनंदा की मां मरी थीं, वह मात्र 10 वर्ष की थी. उसके पापा ऑफिस के काम से अक्सर टूर पर रहते थे, इसलिए सुनंदा को मामा-मामी का सौप दिया था. उसके मामा-मामी सुबोध के साथ हाजीपुर के अपने पुश्तैनी मकान में ही रहते थे. उसके मामा वहां के एक प्रतिष्ठित काॅलेज में बाॅटनी पढ़ाते थे. सुबोध उस समय लगभग 5 वर्ष का था. सुनंदा का उसके साथ बहुत ही सौहार्दपूर्ण रिश्ता था, दोस्तों जैसा. मामी भी सगी बेटी की तरह उसे प्यार करती थी. मानवी मामा के घर के बगल में बने कोठीनुमा मकान में रहती थी. वह और मानवी, दोनो एक ही स्कूल के एक ही क्लास में पढ़ती थीं. स्कूल में तो दोनो का साथ रहता ही था, पास-पड़ोस में रहने के कारण दोनो की शामें भी साथ गुज़रती थी. धीरे-धीरे दोनों अंतरंग सहेलियां बन गई थी. मन से नज़दीक होते हुए भी दोनों के स्वभाव में काफ़ी अंतर था. मानवी एक मुखर स्वभाव की निर्भीक और साहसी लड़की थी. ज़रूरत पड़ने पर वह अपना फ़ैसला ख़ुद लेती थी और उस पर कायम भी रहती थी. छोटी थी, तभी वह अपनी उम्र से ज़्यादा समझदारी की बातें करती.
वही सुनंदा सरल स्वभव की दुर्बल लड़की थी, जो हमेशा शांत और चुप रहतीे थी. वह अपना छोटा से छोटा फ़ैसला भी मामी से पूछकर लेती थी. उसके इस स्वभाव के कारण अक्सर उसे किसी न किसीे सहपाठी के कुटिलता का शिकार होना पड़ता. जिसे वह तो बर्दाश्त कर लेती, लेकिन जब मानवी को मालूम हो जाता, तो वह जिसने भी सुनंदा को सताया हो या उसे उल्टा-सीधा कुछ भी बोला हो, उसे कभी नहीं छोड़ती. उसके साथ होनेवाले हर एक अन्याय का विरोध करती. घर हो या बाहर, सब से सुनंदा के लिए झगड़ती रहती थी. अपने बेबाक स्वभाव के कारण वह अपने ही घर के लोगाें की भी निष्पक्ष आलोचना करने से नहीं घबराती थी. उसकी मां भी अपनी इस बिना किसी बाधा के बोलनेवाली स्पष्टवादी बेटी से कभी-कभी परेशान हो जाती थी. अक्सर सुनंदा से कहती, ‘‘अरे सुनंदा, कुछ तो समझा इसे तेरी ही बातें तो सुनती है. कुछ दूसरों की बातें भी सहना-समझना सिखे. कल को दूसरे घर जाएगी और ऐसी ही उद्दंड बनी रही, तो कैसे निभाएगी?’’
धीरे-धीरे समय गुज़रता गया और दोनों स्कूल छोड़ काॅलेज में आ गईं. यह उन्हीं दिनों की बात है, जब वे दोनो ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरा करने में लगी थी. एक दिन सुनंदा को मानवी और जगवीर के लव स्टोरी के विषय में कुछ उड़ती-उड़ती बातें काॅलेज में पता चली. मौक़ा पाते ही वह मानवी से उलझ पड़ी थी, ‘‘मानवी, तुम्हारे और जगवीर के विषय में ये सब क्या सुन रही हूं? तुम्हे कुछ होश है कि तुम्हारा एक ग़लत कदम तुम्हे और तुम्हारे परिवार को कहां ला खड़ा करेगा? यह मत भूलो कि तुम अपने पापा को खोकर, अपने चाचा पर निर्भर हो. तुम अच्छी तरह जानती हो अपने चाचा को भी, जो कभी किसी को छोटी से छोटी ग़लती के लिए भी माफ़ नहीं करते, इसलिए देख सब सच-सच बता मुझे, मैं पूरा सच जानना चाहती हूं.’’
मानवी कुछ देर तक चुपचाप उसकी परेशानी का लुत्फ़ उठाती रही, फिर बोली, ‘‘तुम जैसा सोच रही हो वैसा कुछ भी नहीं है. हां, यह सच है कि जगवीर मेरे ऊपर जान छिड़कता है. मेरा पीछा करता रहता है, पर मैं हमेशा उसे नज़रअंदाज़ करती रहती हूं. तुम तो जानती हो मधुकर भी मेरे इर्दगिर्द कम नहीं मंडराया था, पर क्या हुआ? अंत में थक-हारकर मेरा पीछा छोड़ दिया. इस प्रेमालाप का भी वही अंजाम होना है.’’
पर सुनंदा क्या जानती थी कि इस प्रेम का कितना भयंकर परिणाम होनेवाला था. उस समय मानवी की बातों सुनकर उसने राहत की सांस ली थी, "तू उसके विषय में सोचेगी भी नहीं और उससे दूर रहेगी. तुम्हारा एक ग़लत कदम कई ज़िंदगियां तबाह कर देगी."
मानवी ने वही पर बात समाप्त कर दी थी, ‘‘सारी समझदारी का ठेका तुमने ही नहीं ले रखा है. मैं भी अपनी मर्यादा और अपनी ज़िम्मेदारियां समझती हूं.’’
बात आई गई हो गई थी. सुनंदा हमेशा मानवी के लिए परेशान रहती थी, क्योंकि उसे पता था, जितनी संपत्ति उन लोगों को विरासत में मिली थी, उतनी ही दकियानूसी और रूढ़िवादी सोच भी विरासत में मिली थी. मानवी का संयुक्त परिवार था, जिसमें उसकी मां और उसके अलावा उसके चाचा-चाची, दादी और तीन चचेरे भाई भी रहते थे. उसकी एक बड़ी बहन थी, जिसकी शादी हो चुकी थी.
घर के लोग कहते, जन्मते ही उसने पिता को डस लिया था, इसलिए सबने उसे बचपन से ही मनहूस का ख़िताब दे रखा था. उसके चाचा दिवाकर सिंह, गु़स्सैल स्वभाव के काफ़ी दबंग आदमी थे, जिनका घर में ही नहीं, आस-पड़ोस में भी लोग विरोध करने का साहस नहीं करते थे. कभी-कभी मानवी ही अपने अधिकारों को लेकर अपने चाचाजी से भी भिड़ जाने का साहस रखती थी. वैसे घर के हर मामले में मानवी के चाचा-चाची की बातें ही चलती थी.
उस वर्ष गर्मी की छुट्टियों में सुनंदा पापा से मिलने नहीं जा सकी. वह काम के सिलसिले में देश से बाहर चले गए थे. एक दिन दोनों सहेलियां सड़क पर टहल रही थी कि उनकी नज़र मंदिर के आंगन में पड़ी, जहां बेंच पर जगवीर बैठा था. सुनंदा को लगा काटो तो ख़ून नहीं, पर मानवी ने उसे समझाया कि डरने की क्या बात है? मैंने तो उसे बुलाया नहीं है. थोड़ी देर बाद किसी तरह हिम्मत जुटाकर सुनंदा उससे मिली और वहां आने के लिए मना किया. मना करने पर भी जगवीर वहां आता रहा. जब भी उस पर नज़र पड़ती मानवी उसे सख़्ती से मना करती.
छोटे शहरों में ये सब बातें, तो हवा के संग फैलती हैं. यह बात भी आस-पड़ोस में दावानल की तरह फैलने लगी कि मानवी से कोई मिलने आता है. गांव के लोगों की नज़र उसकी गतिविधियों पर थी. एक दिन ये सब बातें उसके चाचाजी के कानों में भी पड़ी. इसे मानवी का दुःसाहस समझ, वह ग़ुस्से से आगबबूला हो उठे थे. वह जगवीर के ख़ून के प्यासे हो गए थे. एक दिन जगवीर फिर आ गया था. उसे बचाने के लिए मानवी भागी-भागी मंदिर गई, तो फिर वह भी वापस नहीं लौटी.
मानवी के चाचा ने पता लगाने की बहुत कोशिश की पर उसका कहीं पता नहीं चला. अपमान की आग में जलते दिवाकरजी दोनों से अपने परिवार के अपमान का प्रतिशोध लेना चाहते थे. पर दोनो को ज़मीन निगल गई या आसमान कुछ पता ही नहीं चला. वह सुनंदा पर भी नज़र रखते, पर उसके पास भी मानवी का कोई फोन नहीं आया. पूरे तीन महीने बाद जब सुनंदा एक दिन काॅलेज में थी, मानवी का फोन आया. फोन उठाते ही बोली, "तू कुछ मत बोल बस मेरी सुन. उस दिन परिस्थिति ऐसी हो गई कि जगवीर की जान बचाने के चक्कर में मुझे उसके साथ भागने का फ़ैसला लेना पडा़, वरना वह चाचाजी के आदमियों द्वारा मारा जाता. मैं जहां भी हूं ठीक हूं. दीदी को मेरी क्या फ़िक्र होगी, वह तो अपने ससुरल में मस्त होगी, बस मेरी मां को किसी तरह मेरा संदेशा, पहुंचा देना कि मैंने जगवीर से शादी कर ली है.’’
इतना बोलकर उसने फोन काट दिया. सुनंदा किसी तरह 2-3 दिनों के प्रयास के बाद उसका संदेशा उसकी मां के पास तक पहुंचा दी थी.
इस घटना के पूरे छह महीने बाद एक दिन अचानक मानवी की मुलाकात दिल्ली के कनाटप्लेस पर अपने चाचा से हो गई. उन्हे देखकर मानवी काफ़ी भयभीत हो गई थी, पर उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उसके चाचाजी, उसकी उम्मीद के विपरीत अपनी सारी नाराज़गी को भूलाकर मानवी को घर चलने के लिए कहा. चाचा का प्यार देख उसका मन भी भावुक हो उठा. चाचा के गले लगते हीे उसकी आंखों से जैसे आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा. अपने घरवालों से मिलने के लिए उसका मन विकल हो उठा. उसी दिन शाम की ट्रेन से उसके चाचा वापस हाजीपुर लौटने वाले थे. उनके कहने पर वह भी उनके साथ जाने के लिए तैयार हो गई. जगवीर के बहुत मना करने पर भी मानवी नहीं मानी और जल्द ही वापस आने का वादा कर हाजीपुर चली आई.
उसके आने की ख़बर सुनते ही सुनंदा, अपने सारे काम छोड़ भागी-भागी मानवी से मिलने चली गई थी, पर मानवी की चाची ने उसे यह बोलकर की अभी बहुत थकी हुई है कल बात करना उसे वहां से वापस भेज दिया था. सुनंदा की समझ में नहीं आ रहा था कि उसके और मानवी के बीच ऐसी कैसी औपचारिकता आ गई थी कि बात करने के लिए भी उसे अनुमति की ज़रूरत आन पड़ी थी. पर परिस्थितियां तेज़ी से बदल रही थीं, जिससे कोई भी रिश्ता अछूता नहीं रह गया था, इसलिए कुछ भी कहना-सुनना बेकार था.
उसके बाद भी वह दो दिनों तक मानवी से मिलने की कोशिश करती रही, पर कोई न कोई बहाना बनाकर उसे टाल दिया गया. एक दिन वह हिम्मत कर मकान के पिछले हिस्से से मानवी के कमरे की खिड़की तक जा पहुंची. बाहर काफ़ी अंधेरा था. कमरे में भी एक छोटा सा बल्ब जल रहा था. भय से उसके दिल की धड़कनें काफ़ी तेज हो गई थी, पर हिम्मत कर उसने धीरे से मानवी को पुकारा. उसकी आवाज़ सुन झट से वह खिड़की के पास आ गई थी. सुनंदा को इतने क़रीब देखकर उसके सब्र का बांध टूट गया था. खिड़की पर अपना सिर रखकर फूट-फूटकर रो पड़ी थी. उसे रोते देख सुनंदा की आंखों से भी आंसू बह निकले. दोनों का मन रोकर थोड़ा हल्का हुआ, तो मानवी बोली, ‘‘सुनंदा, मैं चाचाजी के साथ यहां आकर बुरी तरह फंस गई हूं. मेरे यहां आने के बाद से चाचाजी के तेवर पूरी तरह से बदल गए हैं. अपनी ज़िद में आकर अब वह मेरी और जगवीर की शादी को किसी भी तरह स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं. वह किसी भी शर्त पर मुझे वापस नहीं जाने देना चाहते. मां भी अभी तक चुप है. मुझे कमरे में बंद कर दिया गया है. मैं कैसे क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा? मैंने इस परिवार को शायद बहुत कठोर आघात दिए हैं, पर मेरे साथ तो चाचाजी और भी बुरा कर रहे हैं. तुम मेरे लिए कुछ करो. मुझे यहां से किसी तरह निकालो.’’

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वह थोड़ी देर तक चुप रही फिर बोली, ‘‘इस घर से तो मुझे हमेशा तिरस्कार ही मिला, केवल लांछन और अपमान, पर जगवीर से मुझे जीवन में पहली बार मिला निश्छल और अनंत प्रेम, जिसे मैं खोना नहीं चाहती. तुम कुछ भी करके मेरी मदद करो.’’
‘‘तुम चिंता मत करो मैं हूं न, कुछ न कुछ करती हूं."
बिना किसी हिचक के उसे तसल्ली तो दे दी थी, पर कैसे वह उसकी मदद करेगी यह उसके समझ में नहीं आ रहा था. दोनो अभी और भी कुछ बातें करतीं कि उस कमरे का दरवाज़ा खुलने की आवाज़ से दोनों चौंककर चुप हो गईं. बाहर का अस्वभाविक अंधकार भी सुनंदा की हिम्मत तोड़ रहा था. मानवी से जल्द ही मिलने का वादा कर सही समय के इंतज़ार में वह लौट आई थी. उस दिन रातभर वह सो नहीे सकी. दूसरे दिन सुबह उठकर वह मानवी को वहां से निकालने का कोई उपाय सोचती उसके पहले ही आस-पड़ोस में चर्चा होने लगी थी कि मानवी अचानक ही रात के जाने किसी बेला में घर छोड़कर चली गई. उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इतने कड़े पहरे के बावजूद कैसे मानवी वहां से भागने में सफल हुई?
देखते-देखते एक हफ़्ता गुज़र गया. एक दिन अचानक जगवीर उसे ढूंढ़ता हुआ हाजीपुर पहुंचा. तब एक नई बात सामने आई कि मानवी तो दिल्ली पहुंची ही नहीं. जब से वह दिल्ली से आई थी, उसका फोन भी नहीं लग रहा था, इसलिए जगवीर घबराकर चला आया था. जब उसने दिवाकरजी से बातें कि तो वे बोले, ‘‘यह बात तो सब को पता है कि उसे तो इसी तरह घर छोड़कर भागने की आदत थी. न जाने किस समय बिना घर में किसी को बताए दिल्ली के लिए रवाना हो गई. अब तो मुझसे ज़्यादा उसे खोजने की ज़िम्मेदारी तुम्हारी है. तुम्ही पता करो वह कहां गई? उसका पता लगाने में मैं भी तुम्हारी मदद करूंगा.’’
जगवीर द्वारा पुलिस में भी कंप्लेन किया गया, पर मानवी का कही पता नहीं चल सका था. मानवी न जाने कहां थी? अपने हृदयहीन चाचा के कठोर सज़ा का दंड भुगत रही थी या फिर कही दूसरी मुसीबत में फंस गई थी. सभी सिर्फ़ उसे खोजने की बातें कर रहे थे, पर उसका पता कोई नहीं लगा पा रहा था.
इस घटना के पूरे तीन महीने बाद अचानक एक बड़ी ट्रेन दुर्घटना दानापुर के आसपास हुई. इस एक्सिडेंट के दूसरे दिन दिवाकरजी के पास फोन आया कि एक मरी हुई लड़की के पास से उनका फोन नंबर और पता मिला है. आकर उसकी पहचान करें. जब वह वहां गए, तो उस लड़की का चेहरा बुरी तरह से कुचल गया था कि पहचानना मुश्किल था. उसकी पहचान कुछ उसके कद-काठी, हाथ की बनावट और उसमें अटकी अंगूठी से की गई थी. वह अंगूठी सुनंदा की थी, जिसने कभी खेल-खेल में पक्की दोस्ती की ख़ातिर मानवी की अंगूठी से बदल ली थी. वह अंगूठी मानवी हमेशा पहने रहती थी. उसके बांह में अटके बैग में हाजीपुर का पता और फोन नंबर भी मिला, तो शक की कोई गुंजाइश नहीं रह गई. जब मानवी को हाजीपुर लाया गया, ख़ुद सुनंदा भी क़रीब जाकर देखी थी.
शत-प्रतिशत वही अंगूठी थी. मानवी को क्षत-विक्षत अवस्था में देखते ही दुख और संताप से थर-थर कांपती सुनंदा वही गिरकर बेहोश हो गई थी. उसी बीच उसके चाचा आनन-फानन में उसे अंतिम संस्कार के लिए ले गए.
जब उसे होश आया, तब तक मानवी के अंतिम विदाई हो चुकी थी. कहने-सुनने को बचा ही क्या था? कड़वा सच आंखों के सामने था. सवाल तो कई थे, पर जवाब देनेवाला कोई नहीं था. हां, उस रात जब वह कमरे में क़ैद मानवी से मिलने गई थी, अगर उस समय अपनी कायरता दिखाकर भागने के बदले, थोड़ी हिम्मत दिखाई होती, तो आज शायद मानवी ज़िंदा होती. तीन महीने तक वह कहां थी? किसी को कुछ पता नहीं था. न जाने मानवी को क्या-क्या झेलना पड़ा होगा. कितना अपमान, कितनी कटुता सह मानवी इस दुनिया से विदा हुई होगी.
अब भी जब कभी वह अकेली होती, तो उसकी आत्मा उसे कचोटती रहती. मानवी उसके लिए न जाने कितने लोगों से लडती-झगड़ती रहती थी. जब उसकी बारी आई, वह कायरों की तरह सोचती ही रह गई. मानवी के अकाल मृत्यु से उसे गहरा सदमा लगा था. परिस्थिति को देखते हुए उसके पापा ने उसकी शादी अमेरिका में कार्यरत दीपक से तय कर आए थे. दीपक से उसकी शादी क्या हुई भारत ही छूट गया. अतीत में भटकते हुए जाने कब उसकी आंख लग गई. सपने में भी उसे मानवी ही नज़र आई, जो उसके बगल में बिस्तर पर बैठी उसे उदास नज़रों से देख रही थी. जैसे कह रही हो सबके साथ तुमने भी मुझे भूला दिया. उसका दिल जोरों से धड़कने लगा और उसकी नींद खुल गई.
जब से वह आई थी, सपनों का एक सिलसिला-सा बन गया था. कभी आधी रात को, तो कभी सुबह-सबेरे के सपने में मानवी उसे नज़र आने लगी थी. वह जब कभी भी इन सपनों की चर्चा सुबोध से करती, तो वह उसे समझाता, ‘‘दी, वह आपकी बेस्ट फ्रेंड थी. उसकी यादें अक्सर आपके दिलोंदिमाग़ पर छाई रहती है, इसलिए वह आपको सपने में भी दिखती है.’’
वह चुप रह जाती. कुछ दिनों बाद उसे पता चला कि आस-पड़ोस में भी लोगों के बीच चर्चा थी कि मानवी की आत्मा शिव मंदिर के आसपास भटकती रहती थी. लोगों ने शाम के बाद उधर जाना छोड़ दिया था. बस एक मानवी की मां सावित्री देवी थी, जो अब भी शाम के समय बदस्तूर वहां दीया जलाने जाती थीं.
लोगों से तरह-तरह की बातें सुनकर मानवी के मौत का सत्य जानने के लिए सुनंदा और भी परेशान हो गई थी. पर घर में शादी के माहौल होने के कारण कुछ भी खुलकर बाते नहीं कर पा रही थी. एक दिन मामी ने उसे विवाह संबंधित कुछ सामान लाने के लिए पटना भेजा. वह उनके ही बताए एक दुकान पर सामान छांटने में व्यस्त थी कि एक जानी-पहचानी सी आवाज़ सुनाई दी, ‘‘अरे, दूसरे पैकेट में देखो न मैं जानती हूं, उसे सब पसंद आ जाएगा.’’
हूबहू मानवी की आवाज़ थी, वह चौंककर आवाज़ की तरफ़ मुड़कर बोलनेवाले को देखने की कोशिश की, पर कोई दिखाई नहीं दिया. उसने सेल्सगर्ल से जानना चाहा कि कौन बोल रहा था. उसने किसी सपना मैडम का नाम बताया और मिलवाया भी, पर उसकी आवाज़ कहीं से भी मानवी जैसी नहीे थी, पर थोड़ी देर बाद दुकान में लगे आईने में उसे मानवी की एक झलक ज़रूर दिखाई दी. पर उसके मुड़ते ही वहां कुछ भी नज़र नहीं आया.
एक दिन उसके एक क्लासमेट मधुकर ने उसे फोन कर खाने पर बुलाया. साथ ही उसने कुछ और भी लोगों को जो उस समय उसके साथ पढ़ते थे और आसपास ही रहते थे, उन्हें भी फोन कर एक होटल में एकत्रित किया. मानवी को आश्चर्य लगा. इतने कम समय में ही सब लोग कितने बदले-बदले से लग रहे थे. फिर भी आपस में स्नेह वही था. सब लोग मिलकर देर तक बातें करते रहे. एक-दूसरे की जानकारियां लेते रहे. जब सब लोग चले गए, एकांत पाकर वह मधुकर से मानवी के विषय में अपने मन में उठते सारे संशय और अपने अनुभव को शेयर किया. कभी मधुकर के मन में जो मानवी क लिए प्यार था, उस प्यार का वास्ता देकर उसके विषय में सही जानकारियां प्राप्त करने के लिए बोली, तो वह थोड़ा कनफ्यूज-सा दिखा. फिर भी उसके साथ सहयोग करने और जल्द ही मानवी के विषय में जानकारियां हासिल करने का वादा किया.
सुबोध की शादी क़रीब होने पर वह ख़ुद भी काफ़ी व्यस्त हो गई. शादी के बाद वह सोच ही रही थी कि वह मानवी के विषय में सही जानकारी प्राप्त करने के लिए अपना काम कहां से शुरू करे, तभी एक दिन मधुकर का फोन आ गया था. वह उसे अपने घर पर बुला रहा था. वहां उसने सुनंदा के लिए एक सरप्राइज़ प्लान कर रखा था. वहां जाने का उसका मन तो नहीं कर रहा था, पर जाना ही पड़ा. वहां मधुकर और उसकी मां ने बहुत प्रेम और आत्मियता से उसका स्वागत किया. कुछ औपचारिक बातों के बाद मधुकर बोला, ‘‘आज मैं तुम्हे एक बहुत बड़ा सरप्राइज़ देनेवाला हूं. मानवी के विषय में तुुम जानना चाहती थी न कि उसका क्या हुआ?’’
‘‘हां… हां… ज़रूर, तो फिर देर किस बात की है. जल्दी बताओ.’’

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‘‘तो सुनो मानवी मरी नहीं, ज़िंदा है. आज मैंने उससे मिलवाने के लिए ही तुम्हे यहां बुलवाया है.’’
‘‘क्या…’’ वह जड़वत शब्दहीन बैठी रह गई थी, जैसे उसे सांप सूंघ गया हो. वह सपने में भी नहीं सोची थी कि मानवी से यूं मुलाक़ात होगी. वह अभी अपने को संभाल भी नहीं पाई थी कि बगलवाले कमरे से निकलकर मानवी वहां आकर खड़ी हो गई. हल्के नीले रंग के सूट में बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी. पहले से काफ़ी दुबली हो गई थी, पर उसके हंसमुख चेहरे पर वही आकर्षण था. आते ही सुनंदा के गले से लग गई. फिर तो देर तक दोनों एक-दूसरे को अपने-अपने आंसुओं से भिगेाती रहीं. जैसे आंसुओं से ही दोनों बरसों की अनकही बातें कह डालेंगी. जब दोनों का मन थोड़ा शांत हुआ, तो मधुकर बोला, ‘‘मेरा यह सरप्राइज़ तुम्हे कैसा लगा सुनंदा?’’ मधुकर की आवाज़ ने जैसे दोनों को वापस इस दुनिया से जोड़ दिया.
एक लंबी सांस भर सुनंदा बोली, ‘‘मौत और मातम के बाद ज़िंदगी से मुलाक़ात कितनी अलौकिक लगती है यह कोई मुझसे पूछे मधुकर! मेरे पास तो शब्द ही नहीं है अपने मन की भावनाओं को प्रगट करने के लिए. ऐसी सुंदर सौगात जीवन में पहली बार मिली है. जहां प्रकाश की एक किरण नसीब नहीं थी, तुमने तो प्रकाश पुंज ही पकड़ा दिया. अब तुम दोनों मुझे इस नाटक का रूपक भी समझा दो, ताकि मुझे पुरी तसल्ली हो जाए.’’

तब मानवी ने बिना किसी भूमिका के बोलना शुरू कर दिया था, ‘‘तुम्हे याद होगा, जब हम दोनों की मुलाकात उस रात खिड़की पर हुई थी. मैंने तुम्हे बताया था कि मैं किस तरह चाचाजी के चंगुल में फंस गई थी. उनके प्रवंचन से जर्जर हो गए मेरे हृदय पर आघत पर आघात हो रहे थे कि मैं जगवीर को छोड़ दूं. मैं उन्हें समझाने की कोशिश कर रही थी कि अब उसे छोड़ देने से यहां किसी का कोई फ़ायदा नहीं होनेवाला था. जगवीर से अलग होकर उसकी ज़िंदगी ज़रूर तबाह हो जाएगी. जो हो गया, सो हो गया, उसे वापस सुधारा नहीं जा सकता था. अपनी चुप्पी तोड़कर मां भी मेरे साथ खड़ी हो गई. उन्होने मेरी शादी को मान लिया था और मुझे वापस जगवीर के पास भेजना चाहती थी. मां का चाचाजी के विरुद्ध जाना, उन्हें और भी क्रोधित कर दिया. उसी दिन मुझे चाचाजी ने घर से दूर एक सुनसान स्थान पर क़ैद करवाकर रख दिया और इसकी भनक मां को भी नहीं लगने दी.’’
‘‘देखते-देखते उस क़ैद में तीन महीने गुज़र गए. मैं वहां से किसी तरह भागना चाहती थी, मुझे भागने का कोई मौक़ा नहीं मिल रहा था, अलबत्ता धमकियां ज़रूर मिल रही थी कि मैंने भागने की कोशिश की, तो जगवीर को मार दिया जाएगा. फिर भी एक दिन मुझे मौक़ा मिल ही गया, जब मेरी देखभाल करनेवाला ताला खुला छोड़ किसी से बात करने में व्यस्त हो गया. मैं धीरे से बाहर निकलकर दरवाज़ा सटा दी. वह थोड़ी देर में आकर ताला लगाकर चला गया. उसके जाते ही मैं भी वहां से चल दी. क़रीब आधा किलोमीटर चलने के बाद मुझे सड़क दिखा. जिसके साथ-साथ चलते हुए मैं शहर में आ गई. चलते-चलते सुबह हो गई थी. तुरंत मुझे याद आया कि यहां पर मधुकर का घर था. मैंने बिना सोचे-समझे मधुकर के घर के बेल का बटन दबा दिया. मुझे फटेहाल अवस्था में पाकर पहले तो मधुकर बहुत घबराया, पर मेरी सारी बातें सुनने के बाद मधुकर और उसकी मां मनीषा आंटी दोनों ने मुझे बड़े प्यार और सम्मान से अपने घर में शरण दिया और तत्काल किसी से भी संपर्क करने के लिए मना कर दिया. तभी बिहार से दिल्ली जानेवाली ट्रेन के पटरी से उतर जाने के कारण भयंकर रेल दुर्घटना हो गई. चुकी मधुकर रेलवे में ही काम करता है, इसलिए वह काफ़ी व्यस्त हो गया. तभी उसके दिमाग़ में एक योजना आई, क्यों न चाचाजी का मुझ पर से ध्यान हटाने के लिए इस दुर्घटना का फ़ायदा उठाया जाए. उसने मुझसे सलाह कर एक लावारिस लाश को मेरा नाम दे दिया और मुझे मृत घोषित करवा दिया.’’
थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने आगे बताना शुरू किया, ‘‘मेरी मृत्यु का चाचाजी को आसानी से विश्‍वास हो गया, क्योंकि यहां से दिल्ली जानेवाली हर ट्रेन में वह मुझे तलाश रहे थे, जिससे मेरे मरने का उन्हें पूरा विश्वास हो गया और चाचाजी ने मेरी तलाश बंद करवा दी. यहां का मामला शांत होते ही मैं मधुकर के साथ दिल्ली पहुंची, तो वहा एक दूसरा दुर्भाग्य मेरा पहले से ही इंतज़ार कर रहा था. घर के बाहर ही पता चल गया कि जगवीर की मां ने पहले मुझे गायब, फिर मरा हुआ जानकर अपनी पसंद की लड़की से उसकी शादी करवा दीं. उन्हें वैसे भी मैं पसंद नहीं थी. जब फोन कर मधुकर ने उसे बाहर बुलाया, तो मुझे देखकर वह जितना ख़ुश हुआ, उससे ज़्यादा परेशान हो गया. अजीब से धर्मसंकट में वह फंस गया था. तब मुझे बोलना ही पड़ा कि वह किसी को मेरे जीवित होने के विषय में कुछ ना कहे और मुझे मरा हुआ ही मान ले. तलाक़ का पेपर तैयार करवाए मैं समय पर आकर साइन कर दूंगी. मैं उल्टे पांव वापस आ गई. मधुकर ने ही मुझे अपने एक दोस्त के कंपनी में नौकरी दिलवा दिया. उसका एक्सपोर्ट-इंपोर्ट का बिज़नेस है. मैं इस कंपनी के लखनऊ वाले ब्रांच में काम कर रही हूं.
काम के सिलसिले में अक्सर पटना आती-जाती हूं. कभी-कभी अपना चेहरा ढंककर हाजीपुर के शिव मंदिर तक मां को देखने चली जाती हूं. वही किसी की नज़र मुझ पर गई और लोगों ने मुझे भटकती हुई आत्मा का ख़िताब दे दिया. एक दिन मां को मंदिर में अकेला पाकर मैंने अपने ज़िंदा होने की बात उन्हें बता दी. उन्होने चाचाजी के ख़तरनाक इरादे को समझते हुए किसी से कुछ नहीं कहा. उस दिन तुमसे मिलने भी मैं गई थी, क्योंकि प्लेन में ही तुम मुझे दिख गई थी. तुम्हे मंदिर तक आने का मैंने इशारा भी किया था, पर तुम मुझे भूत समझकर, शायद डर गई थी.’’
‘‘फिर क्या तुम्हारी मुलाक़ात जगवीर से कभी नहीं हुई?’’ पहली बार सुनंदा के मुंह से आवाज़ निकली थी.
‘‘हां, मुलाक़ात हुई थी, पर कोर्ट में तलाक़ लेने के लिए. वह एक लंबी-चौड़ी रकम भी मुझे देना चाह रहा था, पर मैंने इंकार कर दिया.’’
‘‘तब आगे तुमने क्या सोचा है?’’
जवाब मधुकर ने दिया, ‘‘मैंने इसे शादी के लिए प्रपोज किया है, पर यह कुछ फ़ैसला नहीं कर पा रही है. मैं और मेरी मां दोनों इस शादी के लिए तैयार हैं. मैं तो अपना ट्रांसफ़र भी लखनऊ करवा रहा हूं.’’
‘‘ठीक है. अगर यह तैयार नहीं हो रही है, तो अब तैयार होगी. इसकी तरफ़ से मैं हां करती हूं. मेरी दोस्ती की ख़ातिर मानवी को तुमसे शादी करनी ही होगी. क्यों मानवी चुप क्यों हो? कुछ तो बोलो.’’
सब की नज़रें मानवी पर टिकी थी. उसने मुस्कुराते हुए जैसे ही हामी भरी, वहां हंसी-खुशी का माहौल बन गया.
चार दिन बाद ही पटना के एक मंदिर में मधुकर और मानवी की शादी का समारोह साधारण ढ़ंग से संपन्न हो गया.
सुनंदा जब दोनों से विदा लेने गई, मधुकर से बोली, "तुम मानवी का ख़्याल रखना. इतनी सी उम्र में ही इसने बहुत दुख झेले है."
मधुकर उसे आश्वस्त करते हुए बोला, ‘‘इससे पहले मानवी के साथ उसके चाचा ने चाहे जो किया, पर अब मानवी उन लोगों से नहीं डरेगी. सच सबके सामने आएगा. उन्हे भी तो पता चले कि उनके शक्तियों का दायरा चाहे कितना बड़ा भी क्यूं न हो, पर वह अंजाम के दायरे से बड़ा नहीं हो सकता, क्योंकि अंजाम हमेशा नियति ही निर्घारित करती है, इसलिए तुम निश्चिंत रहो अब मानवी के साथ कुछ भी ग़लत नहीं होगा.’’
अमेरिका लौटते समय सब से विदा लेकर जब सुनंदा फ्लाइट में बैठी, तो उसका मन बिल्कुल शांत था. अतीत का जो पन्ना उससे अलग होकर उसे दर्द दे रहा था, फिर से जीवन के किताब में जुड़ गया था.

Rita kumari
रीता कुमारी

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