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कहानी- कैनवास (Short Story- Canvas)

वह अपनी छोटी सोच के चलते आज तक ज़िंदगी को एक छोटे से फे्रम में कैदकर एक निश्‍चित एंगल से उसका मूल्यांकन करती आई थी, जबकि ज़िंदगी का कैनवास तो बहुत बड़ा होता है. न जाने कितने एंगल और फे्रम इसमें छिपे होते हैं. कहीं ख़ुशियों के शोख़-चटक रंग, तो कहीं ग़मों के उड़ते बादल इस कैनवास पर दिखाई देते हैं. Kahani जीवन में न जाने ऐसे कितने ही प्रश्‍न हैं, जो समझ से परे होते हैं. जिनके उत्तर चाहकर भी इंसान खोज नहीं पाता है. ऐसा ही एक प्रश्‍न उसके मन को अक्सर उद्वेलित करता है कि एक ही घर में पले-बढ़े, एक ही माता-पिता की दो संतानों की तक़दीर में इतना अंतर क्यों होता है. यह टीस उस समय और बढ़ जाती है, जब कर्त्तव्य और फ़र्ज़ जैसे भारी-भरकम शब्दों के बोझ तले उसकी छोटी-छोटी इच्छाएं भी दम तोड़ देती हैं और उससे उपजी पीड़ा का समीर को एहसास तक नहीं होता. उस समय न चाहते हुए भी वह अपनी ज़िंदगी की तुलना दीपा दी से करने लगती है और समीर से उसका झगड़ा हो जाता है. तनिक-सी भी परवाह नहीं है समीर को उसकी ख़ुशियों की, उसकी भावनाओं की. कौन-सा पहाड़ टूट पड़ता, अगर उस दिन समीर उसे एक्स स्टूडेंट मीट में जाने देते. लेकिन समीर ने उसकी इच्छा को अनदेखा करते हुए कहा था, “तुम्हें पता है न कि मम्मी की तबीयत ख़राब है.” “मैंने मम्मी को नाश्ता करवाकर दवा दे दी है. महाराजिन लंच बनाएगी. तीन बजे तक मैं लौट भी आऊंगी.” “स़िर्फ दवा देने से फ़र्ज़ पूरा नहीं होता है. बड़ों को अपनेपन की भी ज़रूरत होती है. उनके पास बैठोगी, माथा सहलाओगी, तो आधी तबीयत तो यूं ही ठीक हो जाएगी. एक बेटे की मां बन चुकी हो, फिर भी ज़िम्मेदारी का एहसास नहीं.” नीतू को भी ग़ुस्सा आ गया था, “कौन-सी ज़िम्मेदारी है, जो पूरी नहीं करती. सारा दिन तुम लोगों के इशारों पर नाचती हूं. ज़रा-सा अपने मन की कर लो, तो तुम्हें बुरा लग जाता है. आख़िर दीपा दी भी तो हैं.” दीपा का नाम सुनते ही समीर भड़क उठा, उसकी बात उसने बीच में काट दी, “नीतू, दीपा दी से अपनी तुलना मत किया करो. निखिलजी शिप पर रहते हैं और वह यहां अकेली. उन पर किसी की जवाबदेही नहीं है, किंतु तुम तो परिवार के बीच में हो. क्या यह फ़र्क़ तुम्हें दिखाई नहीं देता.” “उफ़़्फ्!” पैर पटकते हुए वह कमरे से बाहर निकल गई थी. यह कोई एक दिन की बात नहीं थी. यह भी पढ़ेलघु उद्योग- वड़ा पाव मेकिंग: ज़ायकेदार बिज़नेस (Small Scale Industries- Start Your Own Business With Tasty And Hot Vada Pav) ऐसे कितने ही मौ़के आते जब वह अपना मनचाहा करना चाहती. छोटी-छोटी ख़ुशियों को अपनी दोनों हथेलियों में समेटकर अपने जीवन में इंद्रधनुषी रंग बिखेरना चाहती, किंतु अक्सर ही उसकी मासूम भावनाओं को छिन्न-भिन्न करने के लिए कोई न कोई बाधा रास्ते का रोड़ा बन जाती. वसंत पंचमी पर भी तो ऐसा ही हुआ था. निखिल जीजू आए हुए थे. उसने और दीपा दी ने मसूरी घूमने का प्लान बनाया था. समीर भी तैयार हो गए थे, किंतु ऐन व़क्त पर उसकी ननद लतिका दी का फोन आ गया कि वह दो दिनों के लिए दिल्ली आ रही हैं और समीर ने प्रोग्राम कैंसल कर दिया. दी और जीजू तो आराम से चले गए थे और वह मन मसोसकर रह गई थी. ऐसे समय अक्सर ही उसकी रातों की नींद उड़ जाती है और वह सोचती रहती है कि ज़िंदगी की तस्वीर को बदल देनेवाले इतने महत्वपूर्ण फैसले में उससे चूक हो गई. समीर का लाखों का बिज़नेस, इतनी बड़ी कोठी, घर में नौकर-चाकर, इन्हीं को वह ख़ुशियों का मापदंड समझ बैठी थी, लेकिन अब समझ आया कि ख़ुशियां स्वच्छंदता में है. मौजमस्ती में है. क्या उसकी नियति यही है कि वह ख़ामोशी से अपने मन को मरता देखती रहे. दो दिन बाद उसकी किटी पार्टी थी. ध्रुव को खाना खिलाकर वह अपनी सहेली सारिका के घर पहुंच गई. उनका छह सहेलियों का गु्रप हर माह किसी एक के घर एकत्रित होता था, जहां वे लंच के साथ तम्बोला का मज़ा लेते थे, लेकिन उस दिन रिया ने सुझाव दिया था, “क्यों न आज कुछ चेंज किया जाए. लंच के बाद मूवी देखने चलें?” “वाउ, गुड आइडिया.” सभी ख़ुशी से चिल्लाईं. नीतू ने मम्मी को फोन करके बता दिया. उन्होंने भी प्रसन्नता से उसे जाने की इजाज़त दे दी थी. अभी वह मल्टीप्लेक्स पहुंची ही थी कि उसका फोन बज उठा. मम्मी का कॉल था, किंतु उनसे बात करती, तो मूवी शुरू हो जाती. हॉल में भी उसे एक-दो बार लगा कि उसका फोन बज रहा है, लेकिन उसने अनदेखा कर दिया. बाहर निकलने पर देखा, उसके मोबाइल पर पांच मिस्ड कॉल थीं. घर पहुंची, तो पता चला धु्रव झूले से गिर गया था. उसके सिर में चोट लगी देख उसका कलेजा मुंह को आ गया. मम्मी ने तो कुछ नहीं कहा, लेकिन कमरे में आते ही समीर ने आड़े हाथों लिया, “सहेलियों के साथ इतना खो गईं कि घर का होश ही नहीं रहा. फोन उठाने की भी फुर्सत नहीं मिली. किटी के बाद मूवी जाना ज़रूरी था क्या?” “समीर, तुम बेकार ही बात को बढ़ा रहे हो. मुझे क्या पता था कि धु्रव को चोट लग जाएगी.” “जानती हो, तुम्हारे फोन न उठाने से मुझे मीटिंग छोड़कर घर आना पड़ा.” “मैं भी तो घर के सारे दायित्व अकेले उठा रही हूं. एक दिन तुम्हें आना पड़ा, तो क्या हो गया?” “कौन से दायित्व? सुनूं तो. ऐश करने के सिवा तुम करती क्या हो?” वह कहना चाहती थी, बंधन में रहकर भी भला कोई ऐश कर सकता है क्या, किंतु कुछ तो धु्रव के चोटिल हो जाने का दर्द और कुछ अपनी लापरवाही का मन ही मन मलाल, वह ख़ामोश रही. यह भी पढ़ेआईपीएल में क्रिकेटर्स के बच्चों की धूम… (Children Bring Joy To IPL) अगले शनिवार को वह पैरेंट्स टीचर्स मीटिंग से लौटी, तो दीपा दी भी उसके साथ थीं. धु्रव और दीपा की लड़की पीहू दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे. नीतू और दीपा को मम्मी ने अपने कमरे में बुलाकर कहा, “नैनीताल से तुम्हारे चाचा का फोन आया था. दो दिन बाद उनकी शादी की 50वीं सालगिरह है, जिसे वे लोग धूमधाम से सेलिबे्रट कर रहे हैं. तुम दोनों को उन्होंने ख़ासतौर पर बुलाया है.” नीतू बोली, “हम कैसे जा सकते हैं मम्मी. बच्चों की परीक्षाएं सिर पर हैं. उनकी स्कूल से छुट्टी करवाना ठीक नहीं है.” “धु्रव और पीहू की तुम दोनों चिंता मत करो. ये दोनों यहीं रहेंगे हमारे साथ और स्कूल भी जाएंगे. क्यों बच्चों रहोगे न दादा-दादी के साथ?” “हां, हम रहेंगे दादा-दादी के साथ. लूडो खेलेंगे, आइस्क्रीम खाएंगे, ख़ूब मज़े करेंगे.” धु्रव और पीहू ख़ुश थे. “लेकिन आंटी, आप परेशान हो जाएंगी.” दीपा संकोच से बोली. “क्यों दीपा, क्या पीहू मेरी पोती नहीं? अब दोनों जाने की तैयारी करो और हां, गिफ्ट बढ़िया-सा लेकर जाना.” दो दिन बाद वे दोनों कार से नैनीताल जा रहे थे. नीतू बेहद ख़ुश थी. एक उन्मुक्तता का एहसास उसके मन को उड़ाए लिए जा रहा था. मार्ग के विहंगम दृश्यों को अपलक निहारते हुए वे लोग जल्दी ही नैनीताल पहुंच गए. चाचा-चाची और उनके परिवार के संबंध हमेशा से ही घनिष्ठ और आत्मीय रहे हैं. उन्होंने अपनी बेटी अल्पना और नीतू-दीपा में कभी फ़र्क़ नहीं किया और अब तो जब से मम्मी-पापा का स्वर्गवास हुआ, चाचा-चाची ही उनके सब कुछ थे. रात में पूरा परिवार रजाई में बैठा गपशप में तल्लीन था. चाचा बोले, “नीतू, तुम्हारे सास-ससुर की सज्जनता का मैं क़ायल हो गया. मेरे एक फोन पर ही उन्होंने न स़िर्फ तुम दोनों को भेजा, बल्कि दोनों बच्चों को भी रख लिया. इतना बड़प्पन बहुत कम लोगों में होता है.” “हां चाचा, इसमें संदेह नहीं कि हम उन्हीं की वजह से आ पाए, लेकिन...” “लेकिन क्या बेटा?” चाचा-चाची की सवालिया नज़रें उसकी ओर उठ गईं, नीतू दुविधा में पड़ गई. क्या करे वह, ज़ाहिर कर दे सबसे अपनी नाराज़गी? तभी उसने सुना, दीपा दी कह रही थीं? “अरे! मैं बताती हूं. नीतू सास-ससुर के साथ रहना नहीं चाहती.” “आप तो चुप ही रहो दी. जिस तन लागे सो तन जाने. आप स्वच्छंद हो. आपको क्या पता बंधन में रहना किसे कहते हैं?” “अरे, आख़िर पता तो चले बात क्या है?” चाची असमंजस में थीं. नीतू के मन का गुबार आख़िर छलक ही पड़ा, “मम्मी-पापा और आप लोगों ने मेरी शादी में बहुत जल्दबाज़ी की. यह भी नहीं सोचा कि संयुक्त परिवार में लड़की की ज़िंदगी कैसे कटेगी?” “इसका सीधा-सा अर्थ है कि तुम वहां ख़ुश नहीं हो. तुम्हारी सास तुम्हें तंग करती हैं. यह सब पहले क्यों नहीं बताया?” “ओहो चाची, सास की प्रताड़ना ही एक अकेला दुख नहीं होता. कुछ दुख ऐसे होते हैं, जो दिखाई नहीं देते, किंतु मन को टीसते रहते हैं. बंधन, कर्त्तव्य और ज़िम्मेदारियों के बीच क्या इंसान स्वच्छंदतापूर्वक घूम-फिर सकता है? मौजमस्ती कर सकता है? आप ही बताइए, मन मारकर जीना भी कोई जीना है.” नीतू की बातें सुनकर चाचा गंभीर हो उठे. कुछ पल वह सोचते रहे, फिर बोले, “जानती हो नीतू, भइया-भाभी यानी तुम्हारे मम्मी-पापा के विवाह को तीन वर्ष ही बीते थे, जब अम्मा का स्वर्गवास हो गया. मैं उस समय कॉलेज में पढ़ता था. भाभी पर परिवार का पूरा दायित्व आ गया. सोचो बेटा, उस समय उनकी क्या उम्र रही होगी. क्या उनके मन में उमंगें नहीं रही होंगी, किंतु उन्होंने अपनी ख़ुशियों से अधिक अपने कर्त्तव्यों को अहमियत दी. अपनी ज़िम्मेदारियों को कभी बोझ नहीं समझा. एक बड़ी बहन की तरह मेरे और तुम्हारी चाची के सिर पर सदैव उनका हाथ रहा. नीतू, भाभी के कर्त्तव्यों में आस्था थी. उनकी इस आस्था ने पूरे परिवार को स्नेह के एक अटूट बंधन में बांध दिया. बेटा, घूमने-फिरने और मौज-मस्ती का ही नाम ज़िंदगी नहीं है. त्याग, समर्पण, पे्रम और रिश्तों को सहेजने का नाम भी ज़िंदगी है. अपनों को प्यार देने और प्यार पाने का नाम भी ज़िंदगी है.” चाचा की बातों पर नीतू नि:शब्द थी. अपने ही शब्दों के कारण उसे अपना अस्तित्व बौना महसूस हो रहा था. सचमुच मम्मी ने अपने परिवार के लिए इतने त्याग और समझौते न किए होते, तो उनके जाने के बाद भी क्या उसे और दीपा दी को चाचा-चाची के घर मायके-सा सुख मिलता. आज भी वे दोनों गर्मी की छुट्टियों में पूरे हक़ से यहां आती हैं और चाचा-चाची पूरी शिद्दत से रिश्ता निभाते हैं, जैसे कभी मम्मी-पापा ने उनके साथ निभाया था. अब जीवन का एक दूसरा पहलू उसके समक्ष था. तो क्या उसे मम्मी की इस परंपरा को आगे नहीं बढ़ाना चाहिए? अपने परिवार को पूर्ण आस्था के साथ अपनाकर प्रेम के सूत्र में नहीं बांधना चाहिए, ताकि रिश्तों की गरमाहट को वह अपने दूसरे परिवार में भी महसूस करे, जो यहां करती आई है. उसकी आंखों के समक्ष ऐसे कितने ही दृश्य तैर गए, जब उसकी सास और ननद लतिका ने अपने स्नेह की खाद से रिश्तों को पल्लवित करने का प्रयास किया था. धु्रव पैदा हुआ, तो मम्मी ने जी-जान से उसकी देखभाल की थी, किंतु वह उनसे सदैव औपचारिकता ही निभाती रही. रिश्तों को बोझ समझकर कर्त्तव्य निभाए. न तो ससुराल में किसी को अपना प्रेम दिया और न ही अपनापन. वह अपनी छोटी सोच के चलते आज तक ज़िंदगी को एक छोटे से फे्रम में ़कैदकर एक निश्‍चित एंगल से उसका मूल्यांकन करती आई थी, जबकि ज़िंदगी का कैनवास तो बहुत बड़ा होता है. न जाने कितने एंगल और फे्रम इसमें छिपे होते हैं. कहीं ख़ुशियों के शोख़-चटक रंग, तो कहीं ग़मों के उड़ते बादल इस कैनवास पर दिखाई देते हैं. इसका मूल्यांकन करने के लिए विस्तृत दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है. दो दिन नैनीताल रहकर नीतू और दीपा दिल्ली लौट आए. कार से उतरकर ज्यों ही वे अंदर की ओर बढ़े, अंदर से आती आवाज़ों ने उनके पांव रोक दिए. लतिका कह रही थी, “मम्मी, नीतू का साहस देखकर मैं अचम्भित हूं. ख़ुद तो मैडम मज़े से घूम रही हैं और अपने बेटे के साथ-साथ अपनी बहन की बेटी को भी आपके पास छोड़ गई. समीर ने भी उसे मना नहीं किया. इस घर को क्या डे केयर समझा हुआ है. नहीं मम्मी, आपने और पापा ने उसे बहुत छूट दे रखी है. पछताएंगे आप लोग किसी दिन.” यह भी पढ़ेहम क्यों पहनते हैं इतने मुखौटे? (Masking Personality: Do We All Wear Mask?) “बस लतिका, अब चुप हो जाओ. बहुत सुन चुकी मैं तुम्हारी बेकार की बातें. याद रखो, मैं उन मांओं में से नहीं हूं, जो बेटी के कहने में आकर बहू से दुर्व्यवहार करने लगती हैं और अपना घर ख़राब कर लेती हैं और न ही मेरी ममता अंधी है. अरे, ध्रुव मेरा पोता है, मेरा अपना ख़ून. उसके लिए कुछ करना मुझे आत्मसंतोष देता है. उसके लिए तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो? क्या वह तुम्हारा भतीजा नहीं? जानती हो, नीतू मेरा कितना ख़्याल रखती है. न जाने कितनी बार हमारी ख़ातिर अपना मन मार लेती है, लेकिन उसके चेहरे पर कभी शिकन नहीं आती. उसके स्नेह को मैं हृदय की गहराइयों से महसूस करती हूं. लतिका, कभी तुम्हारे बच्चे भी छोटे थे. उन्हें मेरे पास छोड़कर तुम कितना घूमती-फिरती थी और आज जब मैं धु्रव को संभाल रही हूं, तब तुम्हें बुरा लग रहा है. मेरी तबीयत का ख़्याल आ रहा है.” “मम्मी, आप बेकार ही नाराज़ हो रही हैं. मेरा मतलब धु्रव से नहीं पीहू से था.” लतिका की खिसियाई हुई-सी आवाज़ आई. “पीहू के लिए भी तुमने इतनी छोटी बात कैसे कह दी? नीतू की बहन के साथ क्या हमारा कोई संबंध नहीं?” मम्मी की बातों से नीतू की आंखों में आंसू आ गए. उसकी भावनाओं से अनभिज्ञ वे उसे इतना अच्छा समझती हैं. उनके मन में उसके लिए इतना प्यार छिपा हुआ है और वह... दो दिन पूर्व उसने लतिका दीदी की ऐसी बातें सुन ली होतीं, तो उनसे बात तक नहीं करती, लेकिन आज... आज वह बदल चुकी थी. अपने परिवार को अपने पे्रम और समर्पण की डोर में बांधने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ थी. भावविह्वल हो वह तेज़ी से अंदर की ओर बढ़ी. “अरे दीदी, आप कब आईं?” उसने चौंकने का अभिनय किया. मम्मी और लतिका की बातें उन दोनों ने सुन ली हैं, यह दर्शाकर वह उन्हें शर्मिंदा करना नहीं चाहती थी. “अभी थोड़ी देर पहले आई हूं.” लतिका बोली. “कैसा रहा वहां का प्रोग्राम? घर में सब कैसे हैं?” मम्मी ने पांव छूने को झुकी नीतू को गले से लगाते हुए पूछा. “सब अच्छे हैं मम्मी. प्रोग्राम भी अच्छा रहा.” मम्मी के गले से लगी नीतू के मन में चाचा की कही बातें गूंज रही थीं, ‘हमारी भावनाएं और सोच का नज़रिया रिश्तों को स्वरूप प्रदान करता है.’ कितना सच कहा था उन्होंने. आज उसकी बदली हुई भावनाओं के कारण मम्मी में उसे अपनी सास नहीं, वरन् ममतामयी मां नज़र आ रही थीं. renu mandal        रेनू मंडल

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