“इंसान बच्चे क्यों पैदा करता है? अपना खानदान चलाने के लिए, अपने ममत्व को परितृप्त करने के लिए. उन्हें पालता-पोसता है, उन पर प्यार लुटाता है, क्योंकि उसे इससे ख़ुशी और तृप्ति मिलती है, तभी तो जो दंपति मां-बाप नहीं बन पाते, वे अपने इस सूनेपन को भरने के लिए बच्चा गोद ले लेते हैं.... तो फिर बच्चे पर यह एहसान क्यूं कि हमने तुझे पैदा किया, पाला-पोसा, बड़ा किया?” मुझे हतप्रभ, प्रश्नों के चक्रव्यूह में घिरा छोड़ वह चाबी घुमाती चली गई. मैं चाइल्ड साइकोलॉजी के इस सर्वथा नवीन अध्याय के पन्ने पलटता रह गया.
पलक ख़ुशी-ख़ुशी अपने कमरे में चली गई थी, निर्मला घर के कामों में लग गई थी और मैं स्टडी रूम में बैठा आदि से अंत तक के घटनाक्रम का विश्लेषण करने लगा था. चाइल्ड साइकोलॉजी को समझने की डींगें हांकनेवाला मैं अपनी ही साइकोलॉजी को नहीं समझ पा रहा था. इसका मतलब मैं व्यर्थ ही ऊपर से कठोर होने का ढोंग करता था. पलक के आने से लेकर अब तक का घटनाक्रम शनैः शनैः मेरी आंखों के सम्मुख जीवंत होने लगा.
पिछले वर्ष की ही तो बात है. मुझे किराएदार के लिए फ़ोन पर बात करते देख निर्मला ने टोका था.
“अं... रहने दीजिए. आज ही एक किराएदार का हो गया है.”
“अच्छा! तुमने बताया नहीं?” मैंने फ़ोन रखते हुए कहा.
“कौन है? कितने सदस्य हैं उनके परिवार में?”
“आप पहले खाना खा लीजिए. थके हुए आए हैं, मैं खाना लगाती हूं.” निर्मला तुरंत रसोई की ओर चल दी, तो मैं काफ़ी देर तक उसे जाते देखता रहा.
ज़रूर कोई ऐसी बात है, जिसे मुझे बताने से वह कतरा रही है. इतने बरसों के वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी एक-दूसरे को इतना तो समझ ही जाते हैं कि कौन कब कतरा रहा है या कुछ बताने को आतुर हो रहा है.
“हां तो कौन आए हैं नए किराएदार?” मैंने खाना शुरू करते हुए फिर से पूछा, क्योंकि निर्मला का इस तरह कतराना मुझे थोड़ा रहस्यमय लग रहा था.
“एक लड़की है. कॉलेज स्टूडेंट है. बहुत ज़रूरत थी उसे मकान की.” निर्मला भी बात को तूल दिए बिना फटाफट समाप्त करने के मूड में थी. इसलिए एक ही बार में जवाब भी दे डाला और सफ़ाई भी.
“पर निर्मला, हमने तय किया था कि हम मकान किसी परिवारवाले को ही देंगे. अकेली लड़की इतने बड़े कमरे और किचन का क्या करेगी?”
“वह हमें पूरा किराया यानी पांच हज़ार देने को तैयार है, फिर हमें क्या फ़र्क़ पड़ता है कि एक रहे या चार?” निर्मला ने अंतिम हथियार इस्तेमाल करना चाहा.
“बात पैसों की नहीं है. वो तो हज़ार-पांच सौ कम भी होते तो भी चलता. पर हमें किराएदार के तौर पर परिवार चाहिए था. अपनी हिफ़ाज़त के लिए, तुम्हारा मन बहलाने के लिए. अब इसकी तो हमें हिफ़ाजत करनी होगी. मैं तो सेवानिवृत्ति के बाद भी पूरे दिन अध्यापन में व्यस्त रहता हूं. कभी घर पर बच्चे पढ़ने आ रहे हैं, तो कभी मैं पढ़ाने जा रहा हूं. परिवार होता, बच्चे होते, तो तुम्हारा मन भी लगा रहता.” मैंने अपना पक्ष रखा. वैसे भी मुझ जैसे कड़क, अनुशासनप्रिय शिक्षक को सब कुछ नियमों में बंधा- बंधाया ही अच्छा लगता है, चाहे वो पुस्तक का अध्याय हो या फिर ज़िंदगी का अध्याय, लेकिन कॉलेज स्टूडेंट्स का बंधी-बंधाई ज़िंदगी से छत्तीस का आंकड़ा होता है. किसी भी तरह के नियम में बंधना उन्हें अपने पर कतर दिए जाने का एहसास कराता है. यह उम्र तो खुले आसमान में स्वच्छंद विचरण की है. नए-नए उग आए डैनों से ऊंची उड़ान भरने की है और वह भी एक मादा पंछी की मतवाली उड़ान! एक ही पल में मैंने न जाने क्या-क्या सोच डाला? मेरी सोच से सर्वथा अनजान, मेरे तर्क पर कि ‘बच्चे होते तो तुम्हारा मन लगा रहता’ का निर्मला के पास बेहद मासूम-सा प्रत्युत्तर था, “वह बच्ची ही तो है. किसी संपन्न-भले घर की अल्हड़-सी गुड़िया है. उससे मेरा मन लगा रहेगा.”
मैं कहना चाहता था तुम इन उड़ती तितलियों को नहीं पहचानती, पर प्रत्यक्ष कह नहीं पाया. दरअसल जब से तनु ने घर से भागकर उस पंजाबी मुंडे से ब्याह रचाया है, निर्मला इतनी टूट गई है कि टूटे हुए पर और प्रहार करने को दिल नहीं करता. हालांकि दिल तो मेरा भी छलनी हुआ है. इकलौती बेटी यदि इस तरह घर से भागकर ब्याह रचा ले, तो किन मां-बाप पर पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा? फ़र्क़ है, तो यह कि मैं पुरुष हूं और अपने को कमज़ोर दिखाना पुरुषों को कतई गवारा नहीं होता, बल्कि दुल्हन का लिबास पहने पति के संग आशीर्वाद लेने आई तनु को दुत्कार कर हमेशा के लिए घर से बेदख़ल कर देने से मेरे पुरुषोचित अहं को अद्भुत सुकून मिला था. गाहे-बगाहे मैं निर्मला पर यह ज़ाहिर करने से भी नहीं चूकता था कि उसके ज़रूरत से ज़्यादा लाड़-प्यार और दब्बू रवैए के कारण ही तनु ऐसा दबंग क़दम उठा सकी.
घुटती हुई निर्मला ने भी एक दिन यह कहकर अपनी भड़ास निकाल ही दी थी कि मेरे तानाशाही रवैए ने ही तनु को ऐसा क़दम उठाने के लिए मजबूर किया, वरना उसकी लाड़ली उसे बताए बिना ऐसा क़दम कभी नहीं उठाती. इस आक्षेप से मैं और भी तिलमिला उठा था. तनु की हमउम्र हर लड़की में मुझे वही बागी तेवर नज़र आने लगे थे. इसलिए मुझे उनसे एक दूरी बनाए रखना ही उचित प्रतीत होता था. पलक को किराएदार रख मानो निर्मला ने मुझे चुनौती दे डाली थी कि मैं अपने ग़ुस्से को कितना नियंत्रित रख पाता हूं?
पलक को किराएदार रखने पर मैंने निर्मला से असंतोष ज़रूर जताया था, लेकिन मन ही मन यह सोचकर राहत भी महसूस की थी कि चलो, इससे निर्मला का अतृप्त मातृत्व तो परितृप्त हो जाएगा, लेकिन पलक किसी और ही मिट्टी की बनी थी. उसे निर्मला की संवेदनाओं की कोई परवाह नहीं थी. मुझे याद आ रहा है. उस दिन पलक देरी से घर लौटी थी. वह अपने कमरे की सीढ़ियां चढ़ पाती, इससे पूर्व ही निर्मला ने उसे रोक लिया था.
“यह गरम पुलाव लेती जाओ. टिफिन का खाना तो अब तक ठंडा हो चुका होगा.”
“मुझे ठंडा खाने की आदत है.” एक पल में निर्मला की चिंताओं की धज्जियां उड़ाते हुए वह सीढ़ियां चढ़ गई थी. मैं तिलमिलाकर रह गया. मन हुआ निर्मला पर खीझूं, पर चुप रह गया था. जानता था, निर्मला पलटकर जवाब नहीं देगी और तनु की जुदाई ने तो उसे ठंडी शिला ही बना डाला है. जिस दिन से उसने तनु के जाने का दोष मेरे कड़े अनुशासनात्मक रवैए पर मढ़ा था, मैं ख़ुद को मन ही मन उसका गुनहगार समझने लगा था. आक्रोश की बजाय उस पर तरस आने लगा. हर बार पलक द्वारा उसकी ममता ठुकराए जाने पर मैं तिलमिला उठता था, पर यही गुनहगार होने का एहसास मेरे होंठों पर ताला लगा देता था. मेरे फटकारने से यदि पलक भी चली गई, तो निर्मला की ममता को फिर से आघात लगेगा. वह बेचारी तो पलक में ही तनु की छवि देखने लगी है, तभी तो उस दिन पलक के लिए कितनी व्याकुल हो उठी थी.
उस दिन देर रात मोबाइल पर पलक की किसी से ग़ुस्से में बातें करने की आवाज़ें आती रही थीं और फिर सवेरे देर तक उसके जागने की कोई हलचल भी नज़र नहीं आई. मैं अख़बार में मुंह गड़ाए बैठा रहा. जैसा कि पुरुषों का पलायनवादी स्वभाव होता है, जब भी उन्हें किसी परिस्थिति से भागना यानी मुंह चुराना होता है, वे अख़बार में मुंह डालकर बैठ जाते हैं. निर्मला की बेचैनी मुझसे छुपी नहीं थी. वह बार-बार अंदर-बाहर हो रही थी. आख़िर जब पलक का कोचिंग क्लास जाने का वक़्त हो गया, तो उससे रहा नहीं गया और उसने ज़ोर से उसका दरवाज़ा थपथपा दिया.
अलसाई पलक ने दरवाज़ा खोला. दरवाज़ा भड़भड़ा जाने का कारण जानकर उल्टे निर्मला पर ही बरस पड़ी.
“आज कोचिंग की छुट्टी है. एक तो वैसे ही रात को देर से सोई थी. ऊपर से आपने सवेरे-सवेरे नींद ख़राब कर दी.” ग़ुस्से में बड़बड़ाते हुए उसने ज़ोर से दरवाजा बंद कर दिया. निर्मला के ममतामयी दिल को उसके रूखे व्यवहार से कितनी ठेस पहुंची होगी, मैं समझ सकता था, लेकिन मेरी उपस्थिति को ध्यान में रखते हुए वह चुपचाप लौटकर ऐसे काम में लग गई, मानो कुछ हुआ ही न हो. मैं खून का घूंट पीकर रह गया था.
उसी शाम मैं गार्डन में पानी दे रहा था. निर्मला मंदिर गई हुई थी. पलक चाबी लेने आई. मैंने अंदर से चाबी लाकर चुपचाप उसे पकड़ा दी. चाबी लेकर भी वह गई नहीं, वहीं खड़ी रही. मैंने प्रश्नवाचक नज़रों से उसे ताका. मेरा मंतव्य समझ वह बोल उठी, “अंकल, आप यह पौधों को पानी क्यों पिलाते हैं?”
“वरना वे सूख जाएंगे.” मैंने सीधा संक्षिप्त जवाब दिया.
“और सूखा मुरझाया हुआ गार्डन आपको अच्छा नहीं लगता होगा. है न?”
“हां.”
“आपने यह गार्डन लगाया भी अपनी ख़ुशी के लिए होगा न? क्योंकि आपको हरियाली से प्यार है. है न अंकल?”
“हां.” मुझे उसके गोलमाल सवाल-जवाब समझ में नहीं आ रहे थे.
“जब हम हर काम अपनी ख़ुशी, अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए करते हैं, तो दूसरों पर एहसान क्यों लादते हैं?” मेरी आंखों में अब भी प्रश्नवाचक चिह्न देख उसने बात को आगे बढ़ाया.
“इंसान बच्चे क्यों पैदा करता है? अपना खानदान चलाने के लिए, अपने ममत्व को परितृप्त करने के लिए. उन्हें पालता-पोसता है, उन पर प्यार लुटाता है, क्योंकि उसे इससे ख़ुशी और तृप्ति मिलती है, तभी तो जो दंपति मां-बाप नहीं बन पाते, वे अपने इस सूनेपन को भरने के लिए बच्चा गोद ले लेते हैं.... तो फिर बच्चे पर यह एहसान क्यूं कि हमने तुझे पैदा किया, पाला-पोसा, बड़ा किया?” मुझे हतप्रभ, प्रश्नों के चक्रव्यूह में घिरा छोड़ वह चाबी घुमाती चली गई. मैं चाइल्ड साइकोलॉजी के इस सर्वथा नवीन अध्याय के पन्ने पलटता रह गया. अभी तक इस विषय को लेकर मेरा यह सोचना रहा है कि बच्चों की नकेल को जितना कसकर पकड़े रखा जाएगा, वे उतने ही हमारे काबू में रहेंगे. जबकि मेरे दोस्तों का मानना है कि ज़माना दबाव बनाने का नहीं है. बच्चे कुछ भी ग़लत क़दम उठा सकते हैं. यहां तक कि ख़ुद को ख़त्म भी कर सकते हैं. मेरा तर्क होता था जिन्होंने बच्चे को पैदा किया है, पाल-पोसकर बड़ा किया है, उनका बच्चे की ज़िंदगी पर पूरा-पूरा अधिकार है. बच्चे की हर ज़िद मानकर, उन्हें हर सुख-सुविधा उपलब्ध कराकर हम उन्हें दब्बू बना रहे हैं. तभी तो वे ज़रा-सा झटका लगने पर उसका सामना करने की बजाय आत्महत्या की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं... निर्मला की सोच मुझसे सर्वथा उलट रही है. तनु के जाने के बाद अक्सर मुझे लगता है कि मैं और निर्मला दोनों ही अतिरेक के शिकार रहे हैं. निर्मला ज़रूरत से ज़्यादा सहृदय है और मैं ज़रूरत से ज़्यादा कठोर. पर अब लगता है, मैं व्यर्थ ही कठोर होने का ढोंग रचता हूं, जबकि सच तो यह है कि मेरे अंदर निहायत कोमल दिल धड़कता है. तनु को मैंने घर से भले ही बेदख़ल कर दिया हो, पर लाख चाहने पर भी क्या मैं उसे दिल से बेदख़ल कर पाया हूं? स़िर्फ निर्मला ही नहीं, मेरा दिल भी पलक में अपनी लाड़ली तनु खोजता है. तभी तो मन ही मन मैं चाहता हूं कि निर्मला उसके लिए जो भी गरम-गरम बनाकर ले जाए, उसे वह खा ले.
जब निर्मला ने बेचैनी से उसका दरवाज़ा थपथपाया, तो मेरा दिल क्यूं इतना धक्-धक् कर रहा था कि दरवाज़ा खुलते ही कोई अप्रिय दृश्य सामने न आ जाए? क्यूं मैं बार-बार कनखियों से ताक रहा था कि निर्मला इतनी देर हो जाने पर भी उसे उठाने क्यों नहीं जा रही? क्यूं मैं तब तक पढ़ने का नाटक करता रहता हूं, जब तक कि वह कोचिंग से लौटकर अपने कमरे में नहीं पहुंच जाती? फिर सुकून से मैं भी लाइट बंदकर सोने चला जाता हूं, क्यूं तेज़ बारिश में मैं उसके टिफिनवाले की राह ताकता रहता हूं कि कहीं उसे भूखा न सोना पड़ जाए? क्या मेरी उस लड़की के प्रति चिंता में कोई स्वार्थ छुपा है? क्या निर्मला उसकी इतनी परवाह किसी स्वार्थवश करती है? नहीं, बिल्कुल नहीं. फिर पलक ऐसा क्यों कह रही है कि इंसान हर काम स्वार्थ के वशीभूत होकर करता है, यहां तक कि बच्चों का पालन-पोषण भी? मेरी मनोवृत्ति पर भले ही कोई ताना कस ले, लेकिन निर्मला की निर्मल ममता पर कोई उंगली उठाए, यह मुझसे सहन नहीं होगा. यदि यह लड़की निर्मला के प्रति अपनी ममता को किसी स्वार्थ के वशीभूत होना मानती है, तो मुझे इसकी आंखों पर से अज्ञान का यह पर्दा हटाना ही होगा. मुझे उसे यह समझाना होगा कि स्वार्थ की बुनियाद पर रिश्तों की इमारत खड़ी नहीं की जा सकती. ऐसी इमारत तो एक चोट में ही भरभराकर ढह जाती है. शीघ्र ही मुझे उसे यह सबक सिखाने का मौक़ा हाथ लग गया.
उस दिन वह देर शाम किसी लड़के के संग लौटी थी. देर रात तक उसके कमरे की बत्ती जलती रही. रात को उसकी मोटरसाइकिल जाने की आवाज़ सुनने के बाद ही हम सो पाए थे. सवेरे जब मैं पढ़ाकर लौटा, तो पाया पलक ग़ुस्से में निर्मला को कुछ उल्टा-सीधा बोल रही थी. निर्मला शांत रहने का प्रयास करते हुए उसे समझा रही थी. “यह अच्छी बात है बेटी कि तुम्हें ख़ुद पर विश्वास है, लेकिन दूसरों पर इतना विश्वास ठीक नहीं है. कल वह पढ़ाई के लिए आया था. ठीक है, लेकिन आगे भी इसीलिए आएगा और देर रात तक नहीं रुका रहेगा इसकी क्या गारंटी है? नीयत बदलते देर नहीं लगती बेटी. तुम्हें ख़ुद सावधान रहना होगा. किसी पर इतना भरोसा ठीक नहीं है.”
“बस आंटी! बहुत हो गया. मुझे आपके उपदेश नहीं सुनने. अपने पर्सनल मामलों में मुझे किसी का हस्तक्षेप पसंद नहीं है. मेरा और आपका संबंध मकान मालकिन और किराएदार का है. मैं वक़्त पर आपको पूरा किराया दे देती हूं. इससे ज़्यादा की मुझसे उम्मीद रखेंगी, तो मैं कमरा खाली कर दूंगी.”
इसके आगे सुनना मेरी बर्दाश्त के बाहर था. मेरी जेब में अभी-अभी ट्यूशन फ़ीस के मिले पांच हजार रुपए थे. मैंने नोट निकालकर ज़बर्दस्ती उसके हाथ में धर दिए.
‘यह लो तुम्हारा एडवांस तुम्हें लौटा रहा हूं. अभी इसी वक़्त कमरा खाली कर दो. हर रिश्ते को स्वार्थ के तराजू में तौलनेवाली तुम जैसी नादान लड़की ममता का भी मोल-भाव करने लगी? तुम ठंडा खाना खाओ या गरम, तुम अपने कमरे में ज़िंदा हो या फांसी पर लटक गई हो, पढ़ रही हो या इज़्ज़त गंवा रही हो, इन सब की चिंता कर भला तुम्हारी आंटी का कौन-सा स्वार्थ पूरा हो रहा है? यह तो उनके अंदर की निःस्वार्थ ममता है, जो इतनी घुड़कियां खाकर भी बार-बार तुम्हारे बचाव में आ खड़ी होती है... अंदर चलो निर्मला, मुझसे तुम्हारा अपमान नहीं देखा जाता.” मैं निर्मला का हाथ पकड़कर ज़बर्दस्ती अंदर घसीट ले गया.
पीछे-पीछे क़दमों की आहट सुन मैंने सिर घुमाया, तो पलक को खड़ा देख अचंभित रह गया. उसकी आंखें नम थीं, पर होंठों पर मुस्कुराहट तैर रही थी. बड़ी नरमाई से उसने सारे पैसे टेबल पर रख दिए. “मैं कहीं नहीं जा रही अंकल... मैं यहीं रहूंगी आप लोगों के संग... दरअसल बेहद समृद्ध माता-पिता की मैं इकलौती संतान हूं. बचपन से लेकर आज तक मैंने अपनी हर ज़िद पूरी होते देखी है. अपनी ज़िद और ग़ुस्से के आगे हर किसी को झुकते देखा है. शुरू में ये सब अच्छा लगता था, लेकिन बड़े होते-होते इन सबसे झुंझलाहट होने लगी. सहेलियों से जब सुनती कि उनके पापा ने उन्हें डांटा या मां ने ऐसा करने से मना किया है, तो मन में ईर्ष्या की एक लहक-सी उठती. मेरे मम्मी-पापा मुझ पर अधिकार क्यों नहीं जताते? मेरी हर जायज़-नाजायज़ मांग क्यों मान लेते हैं? क्या वे मुझे प्यार नहीं करते? क्या मैं उनकी सगी बेटी नहीं हूं? मन में एक कुंठा-सी पनपने लगी थी. इसीलिए पढ़ाई के बहाने उनसे इतनी दूर भाग आई. यहां आंटी को भी अपने आगे दबते देख मैं उन्हें भी दबाती चली गई और खीझती भी चली गई, लेकिन आज आपका रौद्र रूप देखा, तो यह सोचकर मन को बहुत तृप्ति मिली कि किसी को तो मुझसे निःस्वार्थ प्यार है. आपकी फटकार मुझे ऐसी लग रही थी, मानो प्यार का अमृत बरस रहा हो.”
आज के घटनाक्रम ने मेरी चाइल्ड साइकोलॉजी संबंधी थियरी को एक बार फिर उलट-पुलट कर डाली थी. किसी को प्यार चाहिए, तो किसी को फटकार, किसी को आज़ादी, तो किसी को बंधन. मुझे लगने लगा कि हर बच्चे का अपना अलग मनोविज्ञान है और उन्हें एक ही लाठी से हांकना कदापि न्यायसंगत नहीं है.