दोनों सहेलियों ने स्कूल से कॉलेज के दिनों की मस्ती याद करते हुए अनेक क़िस्से दोहराए, दोस्ती की अतरंगता का फ़ायदा उठाते हुए पुराने गड़े हुए क़िस्से उघाड़े गए.
कॉलेज के दिनों में नूपुर के मुरीद रहे संजय की याद की गई. जो नूपुर के पीछेवाली डेस्क पर बैठता था. जिसकी डायरी के पीछे के पन्नों में दिल के भीतर एक तीर बना रहता था. उस तीर की सीध में बड़े ही आर्टिस्टिक अंग्रेज़ी केलीग्राफ़ी में लिखा होता था ‘एन यू…’
“अमीषा ऐ अमीषा… उठ जा अब, कितना सोएगी. घड़ी देख ज़रा, नौ बज रहे हैं.” नूपुर ने निश्चिंत सोती अपनी प्रिय सखी की चादर बेदर्दी से खींची, तो वह झुंझलाकर ऊंघे सुर में बोली, “सोने दे यार.. नौ ही तो बजे हैं.”
“सुबह के नौ बजे का मतलब पता है ? एक चौथाई दिन निकल गया है…”
“आह! क्या बात है. आज मैंने छुट्टी का एक चौथाई दिन वसूल लिया, थोड़ा और वसूलूंगी.”
अमीषा नींद में कुछ मुस्कुराते हुए बुदबुदाई… तो नूपुर ने प्यार से उसके सिर को सहलाते कहा, “तेरी नींद छुड़ाने के लिए क्या करूं…”
“कुछ नहीं कर, बस ऐसे ही पड़े-पड़े सोने दे… ये नींद बड़ी प्यारी है मुझे. इसी को तो तरसती हूं…” नूपुर की ओर से कोई प्रतिक्रया न होते देख वह उनींदी अधखुली मिचमिचाती आंखों से उसे देखती हुई फिर बोली, “परसों से ट्रेनिंग सेशन और सेमिनार शुरू हो जाएगा. फिर वापस वही बैंक, काम और भागमभाग… अभी छुट्टी पर हूं तो सोने दे ना…”
“यहां क्या सोने आई है. उठ जा अब…” नूपुर ने जबरन चादर खींचकर कुर्सी पर ड़ाल दी, तो अमीषा झुंझलाकर बोल पड़ी, “तंग मत कर यार…”
“तू तंग कर रही है मुझे, अब सोने नहीं दूंगी..” नूपुर बरजोरी पर उतर आई.
अपनी मम्मी और अमीषा मौसी की अजीबोगरीब बाल सुलभ खींचातानी और सवाल-जवाब से हैरान नन्हा अर्णव मुंह पर हाथ धरे खी-खीकर हंस दिया.
कमर पर दुपट्टा खोंसे नूपुर ने झटके से परदे खींचे, खिड़की को बेधती धूप की चौड़ी पट्टी अमीषा के मुंह पर सीधी आ पड़ी. वो कसमसाकर अपने तकिए को सुरक्षित स्थान पर अंदाज़े से रखती हुई अपने लेटने की दिशा-मुद्रा बदलने लगी. इस बीच भी उसकी आंखें बंद रही ये देख नूपुर मुस्कुराए बिना नहीं रह पाई. क्षणभर उसे देखने के बाद वो उसके कंधे झिंझोड़ते हुए फिर बोली, “ओ मैडम ऐसे ही सोती रही तो मिल चुकी ग्यारह बजेवाली बस…”
“बस!”
ये सूचना त्वरित काम कर गई… आंखें मीचे जबरन पड़ी अमीषा की सारी नींद गायब देख नूपुर की हंसी निकल गई. तिरछी नज़र से वह अमीषा को देख रही थी, जो हैरानी से कह रही थी.
“हैं… बस! हम बस से जा रहे हैं पर क्यों?”
आश्चर्य से भरी अमीषा इस प्रश्न के साथ लगभग उठकर बैठ गई. विस्मय से परिपूर्ण नज़रें नूपुर पर टिकाती हुई बोली, “तेरी गाड़ी ठीक नहीं है क्या ?”
“बिलकुल ठीक है मेरी गाड़ी… पर स्कूटर में चार लोग कैसे आएंगे अमीषा डियर.”
इत्मिनान से चादर की तह लगाती नूपुर बोली तो अमीषा घूरती हुई खीजे स्वर में बड़बड़ाई,
“अब तू फालतू के जोक मारना बंद कर, मैं स्कूटर की नहीं तुम्हारी कार की बात कर रही हूं.”
“कार?” नाटकीयता के साथ हैरत दिखाती आंखेें बड़ी -बड़ी करते हुए नूपुर बोली, “मैडम, पहले घर तो बन जाए फिर कार भी आ जाएगी..”
“आ जाएगी मतलब… कार नहीं है क्या?”
“फ़िलहाल तो नहीं है.” नूपुर के चेहरे पर निर्विकार भाव आए और बड़ी शान्ति से वह उसके बिस्तर पर तकियों की दशा और दिशा सुधारने लगी.
अमीषा कार न होने को लेकर विस्मयकारक भाव लिए कुछ यूं छटपटाई मानों उसने चेरापूंजी में सूखे की ख़बर सुन ली हो या सोने के दामों में अचानक भारी गिरावट आ गई हो.
अपने माथे पर हाथ रखते हुए वह अपनी हत्बुधि सहेली के सीमित ज्ञान पर तरस खाते हुए बोली, “हे भगवान! आजकल तो कार कंपनियों ने हर ऐरे-गैरे को बजट कार दिलवाने की कसम खाई है. सेकेण्ड हैण्ड कारें तो स्कूटर के दामों पर बाज़ार में अटी पडी है. कार के लिए लोन देने वाले हाथों में लोन लिए कतारों में खड़े हैं. आज के समय में कार खरीदना कितना आसान है. फिर भी तुम्हारे पास कार नहीं है.”
“क्या करूं, अब पैसे नहीं है इतने…”
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“अरे फिर वही बात… यहाँ तेरी अच्छी-खासी तनख्वाह है, जयंत जीजू भी बढ़िया कमा रहे हैं बावजूद इसके तुम लोगों के पास कार खरीदने तक के पैसे नहीं हैं. ये बात मुझे हजम नहीं हो रही है, अरे बड़ी नहीं तो छोटी कार ही ले लेती…”
ऊंचे सुर में बोलती अमीषा को नूपुर ने हाथ के इशारे से पहले तो चुप कराने की कोशिश की… फिर भी वो नहीं मानी तो नूपुर उसके मुंह पर हथेली रखकर बाकायदा चुप कराते हुए बोली,
“अरे धीरे बोल, मेरा बजट क्यों बिगाड़ने पर तुली है. जयंत ने सुन लिया तो फिर पीछे पड़ जाएगा. कितनी मुश्किल से तो उसे रोक रखा है. उसका बस चलता तो तीन साल पहले ही कार ले लेता. वो तो मैं हूँ; जो जिद पर अड़ी हूं कि पहले घर फिर कार.”
“पर घर तो है तुम लोगों के पास…”
“हां है, पर किराए का…”
“हां-हां किराए का है तो क्या… घर नहीं कहलाएगा ? जयंत जीजू सही तो बोल रहे हैं कार की तो ज़रुरत अभी है. तुम तीन लोग स्कूटर में फिट कैसे आते हो. दिल्ली में स्कूटर चलाना रिस्की भी तो कितना है. अच्छे खासे घर में रहने के बावजूद तुम बेघरों जैसा अफसोस जता रही हो… हद है.”
अमीषा की नाराज़गी पर नूपुर कुछ पल के मौन के बाद बोली, “अमीषा.. ये किराए का घर अपना नहीं लगता है. बड़ा नहीं तो छोटा ही सही, पर घर तो अपना चाहिए … एक बार घर हो जाए तो बाकी चीज़े भी धीरे-धीरे जुट ही जाएँगी. कार-वार सब शो ऑफ है… मैं दिखावे में विश्वास नहीं करती हूँ. और फिर सबकी अपनी-अपनी प्राथमिकताएं होती है. मेरी प्राथमिकता मेरा अपना घर है, बाकी सब बाद में…”
“इसका मतलब, जब तक घर नहीं बनेगा, तुम इस घर के लोगों को चैन से जीने नहीं दोगी.”
“मतलब…” आक्रामक मुद्रा में कमर पर हाथ धरे अमीषा के बोलने पर विस्मय से नूपुर ने पूछा तो अमीषा ने जवाब दिया, “मतलब ये… कि तुम बचत के नाम पर मर-मरकर जिओगी…”
“जीना ही पड़ेगा मेरी जान… बचत बहुत जरूरी है.’’
बात को टालने के अंदाज़ में नूपुर ने बहस करती सखी के गले में बाहें डालकर संयमित सुर में कहा पर अमीषा तो आज चल रही बहस में हर हाल में अपनी जीत दर्ज करवाना चाहती थी. अपनी आवाज तेज करके एक-एक शब्द पर बल देते हुए अभी भी बोल रही थी.
“आजकल लोन आसानी से इसलिए मिलता है ताकि जरूरत के समय हम चीज़े जुटा सके. अपनी सेविंग्स से कौन अरेंज कर पाता है. अर्णव बड़ा हो रहा है. तुम लोग फिट कैसे आते हो स्कूटर में.” बोलती अमीषा जोश में अपने बेड से उठकर खड़ी हो गई तो नूपुर उसे शांत करते हुए बोली,
“अब बस भी करो कार आलाप; हम तुझे आराम से ले जाएंगे. लो फ्लोर बसे हैं यहाँ की.. बड़ा मज़ा आएगा.”
“क्या ख़ाक मज़ा आएगा…”
चिढ़ी हुई अमीषा और बेमतलब के मुद्दे को गंभीर रूप में देख नूपुर “बस… अब इस बारे में कोई बात नहीं..” कहते हुए कार और घर के बीच हो रहे मैच को ड्रा घोषित करने की मुद्रा में अपने दोनों हाथों को फैलाए चल रहे विवाद पर विराम एलान करने की घोषित मुद्रा में आ गई. फिर अपनी सखी को खींच-खांचकर गुसलखाने की ओर लगभग धकेलते हुए बोली, “तैयार हो जा मेरी माँ.. तेरी पसंद का पोहा बनाया है.”
इस अदभुत नज़ारे के दर्शन के उपरांत अर्णव भागकर जयंत के पास लगभग हाँफते हुए पहुंचा… उसकी मम्मी उसके अलावा किसी और को भी जबरदस्ती बाथरूम की ओर धकेल सकती है, ये उसकी कल्पना से परे था. दो बड़े लोगों के बीच बच्चों सी बहस उसके लिए कौतुक का विषय था. वैसे देखा जाए बड़ों में पापा के ऊपर भी उसने कई बार मम्मी को रौब गांठते देखा है. पर उसमें उसे आश्चर्य नहीं होता था. हां मुँहबोली मौसी के साथ अमुक व्यवहारअवश्य विस्मयकारी था. उसके नज़रिए से देखें तो फिर मौसी बाहरवालों में ही शामिल हैं. वो अलग बात है कि बात-बात में मम्मी कह उठती हैं कि अमीषा मौसी तो घर की है…. पर यहाँ कहने और होने में फर्क उसने महसूस किया और अपने विवेक से निर्णय लिया. जो हमेशा घर में ना रहे वो तो बाहर का ही हुआ..
पापा के सामने तो मम्मी किसी ख़ास व्यवहार प्रदर्शन की चेतावनी नहीं देती है. पर मौसी के सामने उसे हमेशा ढंग से रहने की हिदायत दी जाती है. अमीषा मौसी के सामने ऐसे रहना, ये मत करना, वो मत कहना.. ये मत मांगना. इतनी बंदिशे तो किसी बाहरी के सामने ही होती हैं. पापा के सामने तो ऐसी कोई रोक-टोक नहीं है, उलटे बढ़ावा दिया जाता है. कहा जाता है- उनसे मांगो, उनसे पूछो वगैरह… तो हुई ना मौसी बाहर की. वो अपने बालमन को समझा ही रहा था कि जयंत ने टोका…“तुम्हारी मम्मी कहां हैं…” यह सुनकर वह कुछ देर पहले हुई नोकझोंक को याद करके हँसने लगा. उतावलेपन में उसे जो भी समझ में आया, वह जल्दी-जल्दी अपनी भोली सरल भाषा में अपने पापा को समझाने में जुट गया. उसकी बातों में शब्द कम हँसी ज्यादा थी. जयंत समझे तो कुछ नहीं पर दोनों सहेलियों की अतरंगता और नेह भरे रिश्ते को समझ भोले अर्णव की बातों पर मुस्करा दिए.
दोनों सहेलियों के बीच ऐसी भावभीनी तकरार कोई नई नहीं थी. दोनों के बीच खून का रिश्ता न होते हुए भी पारिवारिक संबंधो के कारण बाहर वालों को उनके नज़दीकी रिश्तेदार के होने का भ्रम हो जाता है. अमीषा की शादी जयंत के दोस्त इन्दीवर से हुई है. जयंत-नूपुर ने ही अमीषा और इन्दीवर को मिलवाया था जिसकी परिणति दोनों के विवाह के रूप में हुई. अमीषा अकसर जयंत और नूपुर को अपने खुशहाल जीवन का क्रेडिट देती है. वहीं जयंत भी अमीषा को अपनी फेवरेट साली कहकर नूपुर को चिढ़ा लेता है. नूपुर चिढ़ने का स्वांग भले कर ले पर अमीषा पर वो जान छिड़कती है. अमीषा आज भी उसकी हर बात की राज़दार है, तभी तो ये लोग निस्संकोच एक दूसरे से अपनी परेशानियों को साझा कर लेते हैं. एक दूसरे की समस्या निवारण का हरसंभव प्रयास करते है.
पर इस बार अमीषा अपनी सहेली की नहीं; अपने जीजू जयंत की मदद के लिए आई थी. वजह नूपुर थी, जिसकी कुछ आदतों का नकारात्मक असर उनके दाम्पत्य और पारिवारिक जीवन पर पड़ने लगा था क्योंकि इस बार मुश्किल में जयंत था. और समस्या थी जीवनसंगिनी की अंतहीन बचत योजना. अंतहीन इसलिए क्योंकि आज के जमाने में घर बनवाना आकाश कुसुम तोड़ने जैसा नहीं, तो उससे कम जोखिम भरा भी नहीं है. खासकर जब एक आम आदमी द्वारा अपनी बचत से ही घर बनवाने का प्रण ले लिया जाए.
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‘घर से पहले कुछ नहीं…’ घरवाली के इस प्रण की खातिर बात-बात पर जरूरतों का गला घोंटा जाए. सतरंगी सहज जीवन को विलासिता और दिखावे के चश्मे से देखकर उसे खुद से दूर रखा जाए तो क्या होगा ? ज़ाहिर है किसी हिमालय पर समाधि लगाने सा विचार आएगा. घर के स्वप्न ने जयंत और अर्णव के सहज जीवन की स्वाभाविक मौज मस्ती; जो जीवन को जीने लायक बनाती है उसे स्वप्न सा बना दिया था. जयंत को नूपुर का साथ और पारिवारिक जीवन बोझिल और उबाऊ लगने लगा था.
छुट्टियों में सब लोग कहीं न कहीं घूमने-फिरने जाते है ताकि एकरस दिनचर्या को बेधकर अपनी झोली में कुछ इन्द्रधनुषी रंग भरे जा सके. कुछ रूमानी रोमांचक यादों का संचयन किया जाए जो बाद तक अंतस को अपनी महक से सराबोर करता रहे. वर्त्तमान के मुट्ठी भर रोमांचक पलों को यादगार बनाकर आगामी जीवन में उत्साह, उमंग और स्फूर्ति संग वापसी की जाए, पर यहाँ कोई उम्मीद नहीं है क्योंकि नूपुर नियोजित पथ पर चलती है.
बेवजह के खर्चों से भयभीत होकर घर पर ही कैद रहना उसे पसंद है. अपने बनवाए घर में रहने की चाह ने जीवन की जरूरतों को फिजूल करार देते हुए उसमें बचत की संभावना देखने की आदत बना ली है. जिसने जयंत और अर्णव के साथ खुद की जिन्दगी को भी बेरंग बना दिया है. ये सारी बातें जयंत ने इन्दीवर और अमीषा को बताई तो उन्हें दोनों के वैवाहिक जीवन की चिंता हुई. परिणामस्वरूप इन्दीवर और अमीषा ने गोवा घूमने का प्रोग्राम बनाया ताकि वो जीवन में आये परिवर्तन के फलस्वरूप राग-रंग को महसूस करे. वो अलग बात है कि उनका ये प्रयास असफल रहा क्योंकि नूपुर ने हमेशा की तरह अतिरिक्त व्ययभार के भय से जाने से साफ़ इंकार कर दिया.
इस घटना के कुछ समय बाद ही अमीषा बिना बताए दिल्ली आ गई. हालाँकि जयंत के लिए अमीषा का आना अप्रत्याशित नहीं था… हां नूपुर ने जरूर उसके अचानक आ जाने पर आश्चर्य जताया ऐसे में अमीषा ने, “सहेली के घर क्या ढोल पीटकर आऊं. मौक़ा मिला तो चली आई. गोवा की खूबसूरती के किस्से सुना-सुनाकर तेरा दिल जलाने का मौक़ा क्या यूँ हीं छोड़ देती. सच बताऊँ तो जयपुर में सेमीनार के लिए आना था. इंदीवर अहमदाबाद टूर पर गए हैं तो सोचा तीन दिन की छुट्टी लेकर कुछ समय तुम लोगों के पास बिता लूं.” कहकर उसे भावुक कर दिया फलस्वरूप नूपुर उसे गले लगाते बोली, “ मैंने तो यूं ही पूछ लिया. बड़ा अच्छा किया जो आ गई…” प्रिय सहेली का अप्रत्याशित आगमन विस्मय के साथ मन के तारों को झंकृत कर गया. अमीषा के साथ समय बिताने की अनुभूति बेहद सुखद व उत्साहवर्धक थी. तीन दिनों के लिए आई अमीषा को दिल्ली घुमाने का बीड़ा नूपुर ने उठाया था. कम से कम बजट में अमीषा की अधिक से अधिक खातिरदारी करते हुए वो अकसर उस सीमारेखा को लांघ जाती थी जो उसकी नज़र में फिजूलखर्च हुआ करती है. जयंत खुश थे, जानते थे कि नूपुर की दिलदारी कोई स्वाभाविक सामान्य घटना नहीं हुआ करती है. ये तो सखी प्रभाव है जो बंद मुट्ठी जब -तब ढीली हो जाया करती है. अपनी अमीषा मौसी के आने से नन्हा अर्णव भी बहुत खुश था. उस दिन तो वह खुशी के मारे उछल ही गया. जब वीडियो गेम खेलने की उसकी थोड़ी सी जिद के आगे मम्मी झुक गई. अमीषा मौसी की शह ने उसकी सारी हसरतें पूरी कीं. अमीषा ने उसके लिए खूब पैसे खर्च किए. माल में ऊंची रस्सी मे बंधकर उसने छलांग लगाई, बड़े ब्रांडनेम की अलग-अलग फ्लेवर वाली महंगी आइसक्रीम खाई… एक दिन पिज़्ज़ा तो दूसरे दिन बर्गर खाए. चिप्स और चाकलेट तो मौसी सबसे पहले खरीदकर उसे पकड़ा देती. और तो और उसकी अमीषा मौसी ने उसे हैरी पॉटर की नई बुक दिलवाई. वो इतना खर्च कर रही थी तो लोकव्यवहार के नाते नूपुर ने भी उसे महंगे रेस्तरां में डिनर करवाया. इन सबके बीच सबसे ज्यादा हर्षित रहे जयंत और अर्णव… इन दिनों इन दोनों के पौ-बारह रही. सहेली की उपस्थिति में नूपुर कुछ कह नहीं पाती थी. और एकांत वो उसे देते नहीं थे. जहां अर्णव और जयंत की ज़िंदगी में ये परिवर्तन सुखद था वहीं नूपुर खाली समय में इन दिनों हुए अतिरिक्त खर्च का हिसाब मन ही मन दोहराती जाती. अभी भी वह मन ही मन आज होने वाले खर्चे का हिसाब लगा ही रही थी की अमीषा की तेज आवाज़ आई, “नूपुर टूथपेस्ट कहां है ?”
“टूथब्रश स्टैंड में…”
“टूथब्रश स्टैंड में तो टूथपेस्ट का कंकाल बचा है..” अमीषा उसका मज़ाक उडाती हुई व्यंग्य से बोली तो नूपुर ने झुंझलाकर कहा,
“अरे देख ना… है अभी पेस्ट है उसमें.”
“क्या देखूं नूपुर… कहां से निकालूं पेस्ट ज़रा बताओ…? ये देख क्या निकालूं इस पिचके ट्यूब से.”
अमीषा ट्यूब लिए बाथरूम से बाहर आ गई. पिचके सपाट पेस्ट की ट्यूब को उलटा करके लहराते हुए उसे दिखाने लगी जो नीचे से पेपर की तरह रोल किया हुआ था. ऊबड़-खाबड़ पतले पापड़ से उस ट्यूब में पेस्ट निकल पाने की कोई संभावना अब नहीं दिखती थी. पिचके ट्यूब को देख वह इतनी शर्मसार नहीं थी, अलबत्ता अमीषा की हास्य मुद्रा से वह जरूर झेंप कर दुहरी हुई जा रही थी. रही-सही कसर जयंत ने पूरी कर दी. जाने कहां से वो अखबार लिए आते दिखे . अमीषा के हाथों में चपटी सी मुड़ीतुड़ी ट्यूब को देख चुटकी लेते हुए बोले, “तुम मेहनत मत करो. इसे नूपुर को दे दो वो इसका बचा-खुचा दम निकालकर पेस्ट निकाल ही लेगी.” उसकी बात पर जहां अमीषा जोर से हंस पड़ी वहीं नूपुर खिसियाती बोली, “तू रुक, मैं नया निकालकर लाती हूँ.” तुम आजकल बहुत बोलने लगे हो. ज़रा एकांत मिले तो समझाती हूँ अच्छी तरह…. ये नूपुर ने कहा तो नहीं पर हाँ अपनी बड़ी-बड़ी आँखे तरेरकर जयंत तक अपनी बात पहुंचा दी. फिलहाल तो उसे खुद ही अपनी सहेली से निपटने दो इस विचार के साथ अटपटाते हुए जयंत ने अपना चेहरा अखबार के पीछे छिपाने में ही अपनी बेहतरी समझी.
दिनभर में ऐसी बहुत सी बातें होती जिसमें कभी अमीषा राशन पानी ले नूपुर पर चढ़ जाती तो कभी नूपुर बहस में उसे परास्त कर देती. पर हाँ, एक बात तो तय रहती चाहे कितना भी विवाद हो जाए पर कोई किसी की बात को दिल पर नहीं लेता. किसी की कही बात से किसी का मन कभी आहत नहीं होता. विचारों के भेद मनभेद में परिवर्तित नहीं होते.
अमीषा के प्रवास दौरान घर में रौनक खूब रही. दोनों सहेलियों ने स्कूल से कॉलेज के दिनों की मस्ती याद करते हुए अनेक किस्से दोहराए, दोस्ती की अतरंगता का फ़ायदा उठाते हुए पुराने गड़े हुए किस्से उघाड़े गए.
कॉलेज के दिनों में नूपुर के मुरीद रहे संजय की याद की गई. जो नूपुर के पीछेवाली डेस्क पर बैठता था. जिसकी डायरी के पीछे के पन्नों में दिल के भीतर एक तीर बना रहता था. उस तीर की सीध में बड़े ही आर्टिस्टिक अंग्रेज़ी केलीग्राफ़ी में लिखा होता था ‘एन यू…’
किस तरह एक दिन वह कैंटीन में नूपुर को ताकते हुए ब्रेड-पकौड़े के साथ पेपर नैपकीन भी चबा गया था और कैसे वह नूपुर को अपने सामने देख हकलाने लगता था. और वो दिन तो भूलता ही नहीं उफ़… हंस-हंसकर पेट में दर्द ही हो गया. जब नूपुर को खुले बालों में देख वो दो-दो सीढियां एक साथ उतर गया. नतीजा…. याद करके वो खूब हँसी. वो दृश्य आज भी आँखों के सामने आता है तो… कैसे वह लुढ़कता हुआ नीचे आ गिरा वो भी बिल्कुल नूपुर के पैरों के पास… बेचारा खिसियाहट में पैरों और कमर का दर्द ही भूल गया. चोटिल कमर को पकड़ते उसे झट खड़े होते देख सब हँस पड़े. एक, दो-तीन नहीं अनगिनत किस्से और किस्सों के पीछे की पृष्ठभूमि दोहराई जाती. कुछ दबी हँसी के साथ फुसफुसाए जाते तो कुछ पर खुले आम ठहाके लगाए जाते.
इन सबके बीच नूपुर को खिलखिलाता देख अमीषा कभी-कभी कहीं खो सी भी जाती. नूपुर के हँसते चेहरे में उसे शादी के पहले वाली उस बेपरवाह नूपुर का चेहरा नज़र आता. जिसे टेंशन की स्पेलिंग तक नही आतीं थी. उन दिनों अपने बनाव श्रृंगार रखरखाव के प्रति वह कितनी जागरूक रहती थी. आज की नूपुर और पुराने दिनों की बिंदास नूपुर के बीच अंतर कितना गहरा हो गया था. इन चंद पलों को छोड़ दे तो दौड़ती-भागती काम में व्यस्त नूपुर के चेहरे पर एक उतावलापन और कभी ख़त्म न होने वाली चिन्ता नज़र आती थी. अमीषा उसे बारीकी से पढ़ रही थी. पर नूपुर को भान ही नहीं था कि उसकी सहेली उस पर नज़रें गड़ाए उसके काम करने के तौर-तरीकों और भाव-प्रभाव को बारीकी से जांच रही है.
कहीं कोई चीज़ बर्बाद न हो जाए, ये चीज़ बेकार खरीद ली, उसमें फालतू खर्च हो गया… इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी. इन सबकी चिंता में उसका सदैव घिरे रहना छिपा नहीं रह सका था. फिजूलखर्ची के नाम पर कितनी ज़रूरी और छोटी-छोटी चीजों पर उसका सख्त पहरा लगा हुआ था. हर चीज नापतौल और सोच-विचार के बाद इस्तेमाल में लाई जाती. खरीदने से पहले सोचने की हद पार हो जाती. ऐसे में किफायत की आदत आदत कहां रही वो तो सनक में परिवर्तित हो गई थी.
जयंत जानते थे कि ये सहज किफायत नहीं है अपितु आम भाषा में कही जाने हद दर्जे की सनकभरी कंजूसी थी. अमीषा को दिख रहा था कि नूपुर का व्यवहार सामान्य नहीं है. अपितु इन सबके बीच जो सामान्य था वो था दोनों सहेलियों का एक दूसरे पर अटूट विश्वास, दोनों के बीच कभी ख़त्म न होने वाली भूत, भविष्य वर्तमान को समेटे हुए ढेर सारी अनगिनत बातें… उनका दोस्ताना.
तभी तो अमीषा रसोई में भी उसके साथ ही रहती. कभी-कभार वह नूपुर के हाथ से काम लेने की कोशिश करती तो वह उसे प्यार से मना कर देती. अमीषा जबरदस्ती काम करवाती तो वो कुछ संकोच से धीमे स्वर में संभलकर कहती, “देखना अमीषा आलू का छिलका ही उतारना पूरा आलू वेस्ट मत कर देना.” अमीषा को हैरत से अपनी ओर देखते देख वह झट नसीहत दे डालती, “छिलके को गहरा छीला जाए तो उसके साथ सारे विटामिन भी निकल जाते है.” नूपुर काम करने से रोकती तो भी अमीषा नहीं मानती वो तो पूरा फ्रिज पूरे हक़ से खोलकर खड़ी हो जाती फिर आश्चर्य से कहती “हे भगवान! ये फ्रिज है या कबाड़खाना. नूपुर तेरा फ्रिज कूड़ेदान बन गया है.
क्या-क्या जमा कर रखा है इसमें, छोटे-छोटे डब्बों में बची पुरानी सब्जियाँ, ब्रेड के साइड कटे टुकड़े, बची ज़रा सी दाल.. खीरे के ये चार टुकड़े उफ़ ये क्या है. लगता है कोलेज के चक्कर में तुझे समय नहीं मिलता है. चल कोई बात नहीं मैं आज तेरा फ्रिज साफ़ कर देती हूँ.”
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“नहीं रहने दे मैं कर लूंगी. अपनी सहेली से काम थोड़े करवाऊंगी.” नूपुर के बोलते ही अमीषा गरदन को एक ओर झटकती अदा से बोली,. “तेरी इस बात पर तो मेरा दिल ही टूट गया आज मैं शाम की गाड़ी से निकल जाऊंगी. क्योंकि मेहमान ज्यादा दिन नहीं रुकते हैं.” अपने इस स्वांग के बाद वो जवाब का इंतजार किए बिना ही साधिकार फ्रिज से सामान निकालने में जुट गई. “क्या-क्या भर लिया है, ये ज़रा-ज़रा सी सब्जी तो किसी एक जन के भी काम नहीं आएगी. फेंकती क्यों नहीं.” अमीषा की बड़बड़ाहट सुनते ही नूपुर ने उसके हाथ से बची हुई सब्जियों और दालों को वापस फ्रिज के हवाले करते कहा… “ ये सब काम आएंगी. सब्जियों और बची दाल आटे में गुंथकर स्वादिष्ट परांठे बन जाते हैं. मैडम मेरे साथ रहोगी तो ये छोटे-छोटे टिप्स सीख जाओगी. कितने देश भुखमरी से जूझ रहे है और हम अन्न सब्जी बर्बाद करें ये ठीक नहीं है. मुझे बरबादी अच्छी नहीं लगती है.”
“हां… हां मुझे भी नहीं अच्छी लगती पर क्या इसके लिए चम्मच-चम्मच भर चीजें भी सहेज कर रख दे.”
ऐसे में नूपुर ने अन्न बचाने पर जोरदार भाषण दिया उसके अन्न बचाओ व्याख्यान से घबराकर अमीषा बोली, “चाहे उसके लिए दवाईयाँ ही क्यों न खानी पड़े. अन्न की बचत स्वास्थ्य से बढ़कर है ना.. तुम्हारी बला से… सच बात तो ये है कि ये पुरानी सब्जियाँ कभी काम आयेंगी इस चक्कर में पहले तो फ्रिज को कबाड़ में तब्दील करो फिर अन्न सहेजकर रखो. तब तक, जब तक उसका रंग न बदल जाए. फफूंद लगने की प्रक्रिया आरंभ होते ही इसे पेट में डालो..”
“ओहो! इतना भी बढ़ा-चढ़ाकर न बोलो तुम… फ्रिज में कोई चीज खराब होती है क्या…”
“हां-हां फ्रिज तो ईश्वरीय वरदान है. अनंतकाल तक चीज़े फ्रेश मिलेंगी इसमें है ना… मान भी जा नूपुर कि तू गलत है. क्या बना दिया है फ्रिज को. खुद ही देख, जगह-जगह कटोरियाँ भरी पड़ी हैं… अब ऐसी भी क्या किफ़ायत…” अनायास निकले शब्दों में अपनी चिढ़ वह चाहकर भी रोक नहीं पाई.
उसकी बात पर नूपुर कुछ बोली तो नहीं पर उसकी चुप्पी बोल गई की अमीषा के बोल उसे चुभ गए है. सहेली को यूं चुप देखकर अमीषा शांति से बोली, “मानती हूँ कि घर-गृहस्थी के मामले में तू बहुत निपुण है. लेफ्टोवर का प्रयोग सही है. पर एक हद तक… हद से ज्यादा इन सब में पड़ना न तो हेल्थ के लिए अच्छा है और न सुकून के लिए. लाइफ़ को हलके से भी लेना सीखना चाहिए.”
“तुम्हारे लिए कहना आसान है क्योंकि इन्दीवर के पापा ने बड़ा सा घर तुम लोगों के लिए रख छोड़ा है. एक घर अपनी सेविंग्स से बनवाकर तो देखो आटे-दाल का भाव जल्दी ही पता चल जाएगा. तुम मेरी जगह पर खड़ी होकर सोचो फिर पता चलेगा मनचाहा पाने के लिए कैसे-कैसे समझौते करने पड़ते है.”
“मानती हूँ नूपुर… मैं तुम्हारे घर खरीदने का विरोध नहीं कर रहीं हूं. बस ये समझाने का प्रयास कर रहीं हूँ कि जहां तुम अपने परिवार के साथ हो, जब तक हो… उसे भी घर बनाने की ज़िम्मेदारी तुम्हारी ही है न..”
“समझती हूँ, पर असल चैन तो अपनी छत के नीचे ही मिलता है…”
“नहीं, यहाँ तू अब भी गलत है. जो है उसकी उपेक्षा करो, जो नहीं है उसके पीछे भागो और चैन गंवाओ. ये कहां की अकलमंदी है.”
“कहना आसान है अमीषा पर कल के सुख की खातिर आज की खुशियों मे थोड़ी बहुत तो कटौती जरूरी है कि नहीं….”
“थोड़ी बहुत डियर, थोड़ी बहुत… पर तुम हद के समंदर पार कर रही हो..”
“कोई समंदर पार नहीं किया मैंने… तुम नहीं जानती जयंत को फिजूलखर्ची की कितनी आदत है और रही अर्णव की बात तो उसे अभी से सेविंग्स सिखाना जरूरी है. उनको पता होना चाहिए कि ख्वाहिशों का कोई अंत नहीं. बड़ी खुशी पाने के लिए छोटी-छोटी इच्छाओं का परित्याग जरूरी है.”
नूपुर की जिरह पर वह कुछ पल मौन रहने के बाद बोली, “आज जो तुम छोटी-छोटी ख्वाहिशों को नकारते हुए जयंत और अर्णव की खुशियों को मारकर सेविंग्स कर रही हो वो कल तुम्हारे घर का सपना तो पूरा कर देगा. पर तुम्हारे आज को गँवा देगा. बाद के लिए रखी चीज अपना स्वाद-रंग बदल देती है. फिर चाहे वो खाने की चीज हो या हमारा रहनसहन, हमारी इच्छाएं .. सबकी कीमत एक नियत वक्त तक ही सीमित है.”
“हमारा कल हमारे आज पर ही निर्भर करता है.” निर्लिप्त भाव से नूपुर ने कहा.
बात को रबर की गेंद की तरह टप्पा लगाकर वापस अपनी जगह पहुंचता देख अमीषा को हँसीआ गई. माहौल को हल्का बनाने की गरज में वह हंसते हुए बोली, “ये सूक्तियों वाली भाषा तो मत ही बोल. सौ बात की एक बात यह कि ज़रा अपनी शकल देख कैसी हो गई है. देखकर लग रहा है कि कब से पार्लर का मुंह नहीं देखा.”
पार्लर के नाम पर तो नूपुर चिहुंक उठी. आज बहस का कोई अंत नहीं था. मुद्दा घर से भटका तो ब्यूटी पार्लर में प्रवेश कर गया. “अब बस ये मुझ पर मत थोप, ब्यूटी पार्लर फिजूलखर्ची की खदानें होती हैं और ब्यूटीशियन तो पूरी डकैत.. इनका तो काम ही है कस्टमर को बेवकूफ बनाओ और सुन्दरता के नाम पर लूटो.”
नूपुर के बडबड़ाने पर जल्दी से कान में उंगली डाले अमीषा मस्ती में बोली. “बस-बस आज का एजेंडा मिल गया है, तुम मेरे साथ ब्यूटीपार्लर जाओगी ये तय है. वहां से वापस आने के बाद पार्लर वालों के खिलाफ फायदे-नुकसान की रिपोर्ट तैयार कर लेना. आज के चार-पांच घंटे ब्यूटी-पार्लर के हवाले; कल सेमीनार में मुझे भी तो सुन्दर दिखना है.”
नूपुर की हायतौबा और ब्यूटी पार्लर को लूट की खदानें बताने वाली नूपुर की परवाह किए बगैर अमीषा उसे जबरदस्ती पार्लर ले गई. वहां काम करने वालों के हाथों और बोली में मानों सम्मोहिनी शक्ति घुली थी. कितने पैसे बरबाद हो रहें है.. इस बारे में ज्यादा देर वह सोचविचार कर ही नहीं पाई… चांदनी रात में नौका विहार सी खुमारी ने उसे मदहोश सा कर दिया. ब्यूटीशियन के हलके हाथों की लयबद्ध थाप और वहां बजते मधुर संगीत ने तो उसे दूसरे लोक में पहुंचा दिया था. मीठी बोली के साथ सेवा की जा रही थी. गुनगुने पानी में पैरों को डुबोया जा रहा था. सेवा में जुटी लड़कियों ने उसे महारानी होने का सा एहसास दिया. वैक्सिंग की खिंचती स्ट्रिप्स से होने वाला दर्द स्वयं की स्निग्ध त्वचा को देख खुदबखुद दूर हो जाता था. बार-बार वह अपनी कोमल त्वचा पर हाथ फेरती तो ऐसा लगता मानों`उसका कायाकल्प हो रहा हो. नूपुर पर जैसे मोहिनी सी छा गई थी. नख से शिख तक एक के बाद एक ट्रीटमेंट लेती गई . पार्लर से निकलते समय जब उसे भारी बिल थमाया गया तो वह अपराधबोध से भर उठी. यहाँ अमीषा ने साफ़ कर दिया था कि दोनों अपने-अपने बिल का भुगतान करेंगी… बाहर निकलते ही उसने अमीषा पर ताना मारा, “आज तो मैं अप्सरा ही लग रही होंऊँगी.”
“अप्सरा का तो पता नहीं पर हाँ तुम मेरी पुरानी वाली नूपुर जरूर लग रही हो. वादा करो हर महीने आओगी…”
“हर महीने ऐसी फिजूलखर्ची की तो बन चुका मेरा घर…”
“घर को छोड़ घरवाले को देख.. ऐसी बेरौनक रही तो कहीं और दिल लगा लेंगे हमारे जयंत जीजू…”
“रहने दो, कुछ भी बोलती हो. जयंत ऐसे नहीं है..” इस बार सहेली का ताना उसे कुछ चुभ गया. पार्लर में हुए खर्चे से उत्पन्न अपराधबोध से पलभर मुक्त होती भी तो अगले पल वह उसे फिर दबोच लेता और वह अमीषा से पूछ बैठती, “कैसी लग रही हूं… कुछ फ़र्क पड़ा क्या ? सच-सच बताओ, मुझे तो कोई फ़र्क नहीं लग रहा है. बेकार में ही ढाई-तीन हज़ार का चूना लगा दिया.” अमीषा जानती थी. खुद पर किए खर्च के अपराधबोध से निकलना उसकी सखी के लिए आसान नहीं था. घर आकर वह अपने जाने की तैयारी करने लगी. चुपचाप बैठी नूपुर की आँखे अमीषा ने सहसा बंद की फिर यूं ही आँखे बंद रखने की हिदायत देते हुए जल्दी से उसके कंधे पर कुछ डाला मखमली एहसास को उंगलियों से महसूस करते ही उसने चट से आँखे खोल दी. अपने ऊपर नीले रंग की कशीदाकारी पहचानी सी साड़ी देख उसके मुंह से आह निकल गई “अरे! ये कहां से आ गई.”
“ये साड़ी तो उसी दिन तुझसे दिल लगा बैठी थी जब हमारी नूपुर रानी ने बड़े प्यार से इसे निहारा था तुझे क्या पता ये तो उसी पल तुझपर लट्टू हो गई. तुम तो बेदर्दी से इसे उसी शॉप में छोड़ आई पर मुझे इस पर तरस आ गया और मै इसे तुम्हारे पास ले आई. अब तुम इसे गले लगाकर इसका और मेरा दिल रख लो मेरी प्यारी बहना.”
“क्या बेकार की बातें बना रही है, साड़ी मुझ पर लट्टू हो गई! अब ये भी बोल दे कि ये मुझसे लिपटने को बेताब थी.”
“हां, और नहीं तो क्या…”
“पागल है तू… क्या जरूरत थी इतना खर्च करने की…”उलाहना देती नूपुर अपनी दृष्टि उस पर टिका न सकी तो अचकचाकर आँखे नीची कर ली.
दो दिन पहले की बात याद आई जब विंडो शोपिंग के मूड से तफरी को निकलीं वो दोनों एक मॉल में जा पहुँची थी. चकाचौंध से भरी साड़ी की दूकान में घुसते ही नूपुर की नज़र एक नीली साड़ी पर पड़ी. शिफोन की साड़ी पर महीन धागों से की गई कशीदाकारी दिल में उतर गई थी. सबकी नज़र बचाकर टैग उठाया तो छह हज़ार कीमत पर नज़र पड़ते ही उसने उस साड़ी पर से हाथ जल्दी से हटा दिया. उसकी नज़रों को पढ़ते हुए अमीषा ने टोका, “अच्छी लग रही है तो ले लो…”
“फालतू है.” कहकर वह आगे बढ़ गई. अपनी प्रिय सहेली के लिए अमीषा ने चुपके से वो साड़ी जाने कब खरीद ली.
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“सुन मुझे इसका हिसाब बता देना..” नूपुर बोली तो अमीषा कुछ सोचते हुए बोली, “हां बता दूंगी पर हिसाब लगाने में समय लगेगा… आखिर साड़ी का ही हिसाब थोड़ी होगा. हमारी दोस्ती पर हमने क्या-क्या खर्चा वो भी तो जोड़ना होगा. लंबा हिसाब होगा क्योंकि साड़ी के पैसे तुझसे लेने के बाद हमारी दोस्ती भी तो ख़त्म होगी न, तो उसका हिसाब-किताब..”
“चुप रह…” नूपुर ने जल्दी से उंगलियों को उसके होंठो पर रखा… फिर उसे गले लगाकर बोली, “तू भी ना… कुछ भी बोल देती है. गिफ्ट देना था तो गिफ्ट की तरह देती इतना महंगी साड़ी कोई देता है क्या… वैसे ये तुम पर भी बहुत अच्छी लगेगी.”
“अब मुझे गुस्सा तो मत दिला… कैसे छिपाकर लाई थी. मेरे इस सरप्राइज़ की धज्जियाँ मत उड़ा यार…” अमीषा ने नाराज़गी से कहा तो नूपुर भीगे शब्दों में बोली, “मुझे तो बस ये लग रहा है कि मैं तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं ला पाई.” इस बात पर नूपुर को खुद से लिपटाती हुई अमीषा बोली, “ये जो तीन दिन तुम लोगों ने मुझे दिए है वो इस साड़ी से कहीं ज़्यादा कीमती हैं. मैं तेरी सबसे पक्की सहेली होने के नाते कितना कुछ बोल जाती हूँ. तुम्हें बुरा तो नहीं लगता है.”
“ अरे! ना रे…” कहते हुए उसने अपनी गलबहियाँ उसके गले में डालते हुए बोली, “तू कुछ और दिन रुक जा अमीषा… बड़े दिनों बाद हल्का-हल्का सा लग रहा है.”
“सोच ले, अगर रह गई तो तेरे सपने का क्या होगा.”
“सपने की परवाह है मुझे… पर जो समय तुम्हारे साथ बीता वो भी कम सुखद नहीं. सच! बड़ी याद आयेंगी ये हल्की-फुल्की मस्तियाँ…”
“जयंत और अर्णव के साथ भी ऐसे हलके-फुल्के क्षण बितायाकर… ज़िंदगी बहुत ख़ूबसूरत लगेगी….”
“हूँ….” कुछ सोचते हुए नूपुर बोली, “तो कल पक्का जा रही है. रुक नहीं सकती एक दिन और…”
“मैं रुक गई… तो तुम्हारा सारा बजट फेल हो जाएगा. तुम्हारे अपने नए घर का क्या होगा..”
“होगा क्या.. कुछ दिन, महीने या साल या कुछ और साल पीछे खिसक जाएगा.”
“ये तुम कह रही हो?…”
“हां तो क्या… कोई बेघर थोड़ी ना हूँ….”
“याद रखना अपनी बात; अच्छी तरह सोच ले.”
“हां सोच लिया.”
“ ये हुई न बात.” अमीषा ने हथेली आगे की तो नूपुर ने उस पर हाथ मारकर मन में जन्मी कुछ नई भावनाओं की पुष्टि की.. उस शाम दोनों सहेलियों ने घर पर गप्पें मारने का निश्चय किया. देर रात तक दोनों अपनी-अपनी बातें भावी योजनाएं, सलाह-मशवरे और नसीहतों को एक दूसरे संग साझा करते रहे.
रात को जयंत उनकी बातों में शामिल होने के इरादे से आए और बहाने से बोले, “भई तुम लोगों का आज सोने-वोने का इरादा है या नहीं.”
“जीजू, आपकी बीवी आपको कल मिलेगी मेरे जाने के बाद… आज आप जाइए और आराम से सोइए ये आज वहां नहीं आने वाली, हमें बड़ी गप्पें मारनी है.”
अमीषा की बात सुनकर जयंत हंस पड़े. जब लगा कि उनकी उपस्थिति से वो दोनों सहज नहीं है तो वह कुछ देर बैठकर सोने चले गए. देर रात आँखे मुँदने तक दोनों सहेलियाँ बतियाती रहीं.
सुबह भाव-भीने माहौल में अमीषा ने विदा ली. उसके जाने के बाद घर में फैले सूनेपन से निजात पाने के लिए कॉलेज जाने का निर्णय नूपुर ने लिया पर वहां भी वह थकान से बुझी-बुझी रही. घर आई तो थोड़ी देर में ही अर्णव आ गया. भूख-भूख चिल्लाते अर्णव को फ्रिज में रखा खाना गरम करके दिया. फ्रिज में थोड़ा-थोड़ा बहुत-कुछ रखा था. शाम को लेफ्टोवर से काम चलाने का निश्चय लेकर वह बिस्तर में जो जा पड़ी तो आँखे जयंत के आने पर ही खुली. कब शाम हो गई पता ही नहीं चला. फैले घर को समेटते हुए कुर्सी पर रखे साड़ी के पैकेट को खोला तो अमीषा की याद आ गई. आईने में चेहरा देखा तो पाया, पार्लर वालों की मेहनत जाया नहीं गई थी.
अमीषा की दी हुई साड़ी को कौतूहलवश उठाया जैसे ही तह खुली अमीषा का लिखा हुआ पत्र गिरा. कौतुक से उसे उठाया तो पढ़ती ही चली गई. “मेरी प्यारी सखी कितनी सुंदर लग रही है इस साड़ी में… बिलकुल खिली खिली सी… तेरी ज़िंदगी भी इतनी सुन्दर हो यही मेरी कामना है. अपने चेहरे की रौनक को चिंताओं के हवाले करके मुरझाने मत देना… जीवन को उमंग-उल्लास से जीने के लिए थोड़ी कीमत चुकानी भी पड़े तो जयंत जीजू और प्यारे अर्णव के चेहरे की मुस्कान देख उसे सह जाना वो भी मुस्कराते हुए… कल की चिंता में अपने आज को होम मत करना. आज की खुशियों का मोल अपनी जगह और कल का सुरक्षित भविष्य अपनी जगह. दोनों में संतुलन और तालमेल को बिठाना सीखना…. पत्र पढ़ते हुए नूपुर के चेहरेपर मुस्कान आई ही थी कि अगली पंक्ति पढ़कर वो हंस दी… “जानती हूँ. तू मुझे मन ही मन दादी-अम्मा के खिताब से नवाज़ रही होगी, पर मैं कहे बिना रुकूँगी नहीं..कि कुछ वक्त जयंत जीजू के नाम करके उन्हें कुछ रोमांच के पल देकर चौंका दिया कर. ज़िंदगी का मज़ा इसी में है. ये सब लिख इसलिए रही हूँ ताकि तू मुझे टोके ना… बस मैं कहूं और तू सुनती रहे, मतलब पढ़ती रहे.. मैं क्या समझाना चाह रही हूँ वह समझे… समझ रही है ना..”
चिट्ठी को पढ़ते समय अनेक भाव विभिन्न रंगों में लिपटे चेहरे पर आते-जाते रहे. अमीषा ने उसके मन को भीतर तक यूं बिलो दिया कि वो उफनने लगा. चिठ्ठी दराज़ में रखकर वह रसोई में आई. तो याद आया आज जयंत के लिए चाय नहीं बनी है. चाय चढ़ाई तो रात के खाने का ख्याल आया. फ्रिज खोला तो ज़रा-ज़रा सी सब्जियां जाने कितनी कटोरियों को घेरे दुश्चिंताओ की तरह अभी भी पडी दिखी. उन्हें निकालकर तत्काल डस्टबिन के हवाले कर कटोरियां धोई. अबकी बार फ्रिज खोला तो खाली फ्रिज उसके मस्तिष्क की तरह हल्का लगा… लगा फ्रिज भी उसे शुक्रिया बोल रहा है. वह चाय जयंत को पकड़ाकर खाना बनाने में जुट गई… रात को अर्णव को होमवर्क करवाकर उठी तो जयंत बैठक में ही अपने आफिस के काम में तल्लीन दिखे.. “खाना लगा दूं क्या…” नूपुर के प्रश्न का “हूँ” में ही जवाब दिए जयंत फ़ाइल लिए टेबल पर आ बैठे. खाना खाकर वापस अपनी फाइलों में उलझ गए. घर का सन्नाटा कुछ ज्यादा ही बढ़ता दिखा तो अर्णव को सुलाकर नूपुर कमरे में पहुँची. बिस्तर पर पडी नीली साड़ी दिखी. फुर्सत से उसे देखने का मौक़ा ही नहीं लगा. उत्सुकता में हाथ में लिया तो अनायास उसे पहनने का मन हो आया. मनोयोग से साड़ी बांधती नूपुर खुद को दर्पण में निहारती रही. रंग खिल रहा था. फिर भी बिना मेकअप के उसके चेहरे से साड़ी की सुन्दरता कुछ फीकी सी लगी.
ड्रेसिंग टेबल की ड्रावर खोलकर देखा तो मेकअप का पुराना सामान कब से धुलमिट्टी खाया पड़ा था. कुछ बदरंग डिब्बों-शीशियों के ढक्कन गायब थे. पुराने पड़ चुके प्रसाधनों की रंग महक उड़ चुकी थी. लिपस्टिक तो इतनी चीकट हो गई थी कि उसको लगाते डर लगता… क्यों अब तक सँभालकर रखी गई थी, ये साफ़-साफ़ समझ नहीं आया. पर आज उसने उन सबको हटाकर कुछ जगह बनाई. अमीषा के साथ खरीदे हुए सौन्दर्य प्रसाधनों को पैकेट से निकाला और ड्रेसिंग टेबल पर सजाते हुए उनके शेड चेक करने लगी. शेड चेक करते-करते वह खुद को बे-ख्याली में संवारती गई… दर्पण पर नज़र पडी तो लगा नई नूपुर खड़ी थी. चेहरे से मेल खाती साड़ी की सुंदरता चमक बढ़ी लगती थी. साड़ी सुन्दर थी बहुत सुन्दर… नहीं वह साड़ी में सुन्दर दिखी बहुत सुन्दर. आज वह आत्ममुग्ध थी.
ब्यूटीपार्लर में कायाकल्प हुआ या अमीषा कोई जड़ी बूटी सुंघा गई या कुछ-कुछ उसकी सोच बदल गई या शायद वो खुद अपने रसहीन मशीनी जीवन से उकता गई थी. कुछ ठीक-ठीक समझी तो कुछ नहीं… सजी सँवरी नूपुर खुद को कैमरे में कैद करने का मोह छोड़ नहीं पाई. बदला रूप और नज़रिया ताजगी से भरे थे. उसे खुद में उठती एक अजब सी सिहरन साफ़ महसूस हुई. मानों मन में दबा कोई राज खुलने वाला था. स्फूर्ति से भर कर वो कैमरा उठाए जयंत के पास चली आई. अपने ही सौंदर्यबोध से उसके गाल रक्तिम हो रहे थे.
जयंत अप्रत्याशित रूप से अपनी पत्नी को सज़ा-सँवरा देख हतप्रभ हो गए, पर प्रत्यक्ष में नूपुर बड़ी अदा से उसके हाथ की फाइलों को लेकर एक तरफ बेरुखी से रखते हुए अपनी बाहों को उसके इर्द-गिर्द लपेटते हुए पूछ रही थी, “कैसी लग रही हूँ..” उसकी आँखों में थोड़ी शरारत, थोड़ा गर्व और स्वाभाविक नारी-सुलभ सकुचाहट झलकते देख उसके मुंह से शब्द तो नहीं निकले पर अपनी अभिसारिका पत्नी को टकटकी लगाए देर तक देखता रहा. लंबे अंतराल के बाद नूपुर के मन भीतर कुछ नया और कुछ पुराना पहचाना सा स्पंदन हुआ, मानों कुछ चटका हो. मन धड़का तो उसे संभालकर कुछ चंचलता से उसने टकटकी लगाए जयंत को पुकारा “सुनो”
“हूँ”
“कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर घूमने चले…?”
“क्या… कहां..” हैरत से फैलती सिकुड़ती जयंत की जरूरत से ज्यादा ड्रामाटिक सी आँखों को देखती वह जल्दी से बोली, “गोवा चलते हैं. अपने सेकेण्ड हनीमून के लिए.” नूपुर के कहने पर जयंत ने उसे ताना मारा…
“पर अभी तो हमारी शादी को पच्चीस साल नहीं हुए हैं.”
“हम पच्चीस साल पुराने कपल की तरह बिहेव करने लगे है. सारा रोमांस हवा हो गया है जयंत…” वो उसके कानों में फुसफुसाई तो जयंत ने भी उसकी नक़ल करते हुए कानों में फुसफुसाकर ही कहा, “तुम्हें ऐसा लगता है…?”
“क्यों तुम्हें नहीं लगता है क्या…?” नूपुर कुछ तेवर से आँखे मटकाते हुए बोली तो उसी सुर में जयंत ने कहा “लगता भी हो तो क्या…”
जयंत के जवाब पर नूपुर “अरे…!” कहकर पल भर को रुकी फिर बोली “चलो कुछ एक्साइटिंग करते है…”
“पक्का…?”
“पक्का..”
“बदलोगी तो नहीं.”
“कभी नहीं..” नूपुर के कहते ही जयंत ने उसे प्यार से अपनी ओर खींचा… “कितना एक्साइटिंग करे…” जयंत के अधर उसके कानों को स्पर्श करते फुसफुसाए तो उसकी शरारत पर नूपुर शर्म से दोहराती जयंत के सीने से लगकर कुछ लाड़ से धीमे सुर में अस्फुट शब्दों में बोली, “ये मतलब थोड़ी था… मैं तो.. तो…” जयंत की बलिष्ठ बाहों ने सुदबुध बिसराती नूपुर को संभाल लिया था. शब्द नहीं थे वहां पर… भूला बिसरा विगत के पन्नों में लिपटा परिचित बिछड़ा एक मीठा सा एहसास उनकी साँसों में घुल रहा था.
एक अरसे के बाद दो प्रेमियों ने अपने प्रेम और समर्पण से रात को रातरानी सा महकाकर उसमें चांदनी भर दी थी. रात की खुमारी सुबह तक भी नहीं टूटी. नूपुर को गहरी नींद में सोते देखकर जयंत ने धीरे से मोबाइल उठाया और अमीषा को मैसेज किया… "हमारी ज़िंदगी में रंग भरने के लिए शुक्रिया.” थोड़ी ही देर में मैसेज का जवाब आया. “माई प्लेजर..जीजू… मैं और इन्दीवर उदयपुर में है… सेमीनार में.. बड़ा गंभीर विषय है… रोमांस को जीवित रखने के नुस्खे…. हा हा….” एक बड़ी स्माइली का जवाब भी स्माइली से देते हुए जयंत ने तुरंत इन्दीवर को मैसेज किया. “सपोर्ट के लिए थैंक्स….” जवाब में अमीषा का ही मैसेज आया “मेरी सबसे प्यारी सहेली की हंसती खिलखिलाती रंगों से भरी तस्वीर का इंतज़ार रहेगा…” जयंत उसके मैसेज को पढ़कर मुस्कुरा दिए. सुबह नूपुर ने अमीषा को फोन किया “कैसा रहा तेरा सेमीनार….”
“अच्छा रहा…अभी दो दिन और है.”
“क्या-क्या करवाते हैं तुम्हारे बैंकवाले… मैंने तो ये पूछने ये पूछने के लिए फोन किया था कि हम गोवा जा रहे है. तुम लोग भी आओगे…” अमीषा ने नूपुर को सेमीनार और काम का हवाला देकर मना कर दिया था. पर नूपुर गोवा जाने को लेकर उत्साह से भरी बोल रही थी. “अपने काम में इतना मत डूब जा कि जीवन की खुशियाँ रास्ता बदल ले और पता भी न चले… सेमीनार के बाद थोड़ा इन्दीवर के साथ भी समय बिता…” नूपुर का संज्ञान लेते हुए अमीषा और इन्दीवर की हँसी का अंदाजा लगाकर जयंत मुस्कारा दिए. वो इस बात को समझते थे कि नूपुर के जीवन में आया यह सुखद बदलाव संभव नहीं होता अगर इन्दीवर और अमीषा उसके साथ खड़े न होते…
नूपुर के नीरस और एकरस जीवन जीने की शैली उसकी प्रिय सहेली ही बदल सकती थी. जिस तरह अमीषा ने उसके लिए थोड़े से छल का सहारा लिया वो उसका एहसानमंद रहेगा. “सुनो आज घर जल्दी आना… “अ हूँ..” कहते जयंत विचारों से बाहर आए और यूं ही धीमे से मुस्करा दिए. आज घर, घर जैसा लग रहा था. दीवारों छतों से घिरे मकान में हिसाब-किताब, बजट जैसे भारी-भरकम शब्दों के बीच भावनाओं और इच्छाओं ने भी घुसपैठ कर ली थी. अब मकान को घर में तब्दील होने से भला कौन रोक सकता था.
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