"जैसे सागर किनारों पर या टापुओं पर जहाजों को अंधकार में रास्ता दिखाने के लिए लाइट हाउस होते हैं ना, जो उनका मार्गदर्शन करके दुर्घटनाग्रस्त होने से बचाते हैं, वैसे ही आप मेरी लाइट हाउस हो, मेरी मार्गदर्शक, मेरा प्रकाश स्तम्भ, जो मुझे हर अंधकार में रोशनी दिखाता है."
पूजा करने के बाद समय काटने के लिए सविताजी एक पत्रिका लेकर बाहर ड्राॅइंगरूम में आकर सोफे पर बैठ गईं. पढ़ने से अधिक अच्छा तरीक़ा दूसरा नहीं होता है समय काटने का और उन्हें तो वैसे भी किताबें पढ़े बिना चैन नहीं पड़ता. रमा आकर टेबल पर चाय रख गई. बिना बोले ही सब समझ जाती है रमा. जब काम पर रखा था, तब दो दिन बस उसे काम बताना पड़ा, तीसरे दिन से तो वह सब कुछ बिना बताए ही ठीक से करने लगी.
"बेबी के लिए क्या बनाना है आज?" रमा ने पूछा.
"अभी तो खाना ही खाएगी, शाम को उसी से पूछ लेना." सविता ने उत्तर दिया.
रमा भी अपना कप लेकर वहीं बैठ गई, फिर चाय ख़त्म करके रसोईघर ठीक-ठाक करने चली गई.
सविता के बेटे-बहू दोनों शहर के जाने-माने डॉक्टर थे. बेटा ऑर्थोपेडिक सर्जन, बहू गायनिक सर्जन. शहर में ख़ुद का बड़ा अस्पताल था, तो व्यस्तताएं भी उतनी ही थी. कभी बेटा, तो कभी बहू और कभी तो दोनों ही घर ही नहीं आ पाते थे. अस्पताल में मरीज ही इतने होते कि घर आने की तो क्या खाना खाने की भी फ़ुर्सत नहीं मिलती. तभी तो रूपल के पांच साल की हो जाने के बाद भी जब दूसरे बच्चे के आने की कोई संभावना नहीं दिखी, तो सविता ने भी कोई ज़िद नहीं की.
माता-पिता के पास जब समय ही नहीं हो, तो क्या फ़र्क पड़ता है कि बच्चा एक ही है या चार. उनके पति की मृत्यु तो बेटे की शादी के पहले ही हो गई थी. बेटा डॉक्टरी में व्यस्त, बहू भी डॉक्टर. रूपल के जन्म के बाद ही उनका अकेलापन वास्तव में दूर हुआ. तीन माह की उम्र से ही रूपल को उन्होंने ही संभाला. बहू भी निश्चिंत. घर में हर काम के लिए बाई लगी हुई थी शुरू से. उनका काम तो रूपल की देखभाल करना और उसका पालन-पोषण करना था और अपने एकाकी जीवन में रूपल के रूप में उन्हें जो नन्हा खिलौना मिल गया था. वह पूरे समय उनका मन लगाए रखता.
तभी रूपल ने पहला शब्द मां नहीं दादी ही बोली थी. बहुत समय तक तो वह अपने माता-पिता को अजनबी समझकर गोद में जाते ही रोने लगती थी. पांच-छह साल की होने पर उसे समझ आया कि वह उसके माता-पिता हैं. तभी रूपल अपनी दादी अर्थात सविताजी से काफ़ी नज़दीक थी. बचपन से अब तक चाहे पढ़ाई की समस्या हो, चाहे व्यक्तिगत, रूपल के लिए हर समस्या का समाधान बस दादी ही थी. तबीयत ख़राब हो, तो दादी, सहेली से झगड़ा हो गया हो, तो सुलह करवाने के लिए दादी. तभी रूपल उन्हें लाइट हाउस कहती.
"आप तो मेरी लाइट हाउस हो दादी."
"लाइट हाउस? वह कैसे?" सविताजी हंसते हुए पूछती.
"जैसे सागर किनारों पर या टापुओं पर जहाजों को अंधकार में रास्ता दिखाने के लिए लाइट हाउस होते हैं ना, जो उनका मार्गदर्शन करके दुर्घटनाग्रस्त होने से बचाते हैं, वैसे ही आप मेरी लाइट हाउस हो, मेरी मार्गदर्शक, मेरा प्रकाश स्तम्भ, जो मुझे हर अंधकार में रोशनी दिखाता है." रूपल उनके गले में बांहें डालकर झूल जाती.
वही रूपल देखते ही देखते कब बड़ी होकर एमबीबीएस करके इंटर्नशिप भी कर रही है. समय जैसे पंख लगाकर उड़ गया, लेकिन दादी-पोती के बीच के स्नेह में जरा भी अंतर नहीं आया. वह स्नेह सूत्र तो अभी भी वैसा का वैसा ही है.
सविताजी नहीं चाहती थी कि रूपल डॉक्टर बने. अपने बेटे-बहू की व्यस्तता के चलते उन्होंने उनकी गृहस्थी की हालत देखी थी. आज भी यह घर-गृहस्थी बस सविताजी के कंधों पर ही टिकी हुई है. बहू को तो कभी जानने की नौबत ही नहीं आई कि घर कैसे चलता है, वह बेचारी कभी अपने बच्चों के बचपन और बाल सुलभ क्रीडाओं का, मातृत्व सुख का अनुभव ही नहीं कर पाई. हज़ारों बच्चे उसके हाथ से जन्मे, सुरक्षित इस दुनिया में आए, लेकिन वह ख़ुद अपनी इकलौती बेटी के जन्म की ख़ुशियां नहीं मना पाई. हजारों मांओं की गोद ख़ुशियों से भरनेवाली अपने जीवन की एकमात्र ख़ुशी का भी आनंद नहीं उठा पाई.
यही हाल उनके बेटे का हुआ, हज़ारों दुखती रगों को सहलानेवाला, हज़ारों टूटी हड्डियों को जोड़नेवाला उनका बेटा अपनी ही संतति से नेह की डोर नहीं जोड़ पाया समयाभाव के कारण.
रुपल को सविता ने माता-पिता दोनों का भरपूर प्यार दिया, कभी उसके मन में उनके प्रति शिकायत नहीं पनपने दी, तभी तो वह उनके प्रोफेशन और उन दोनों की बहुत इज्ज़त करती है और ख़ुद भी ठान बैठी डॉक्टर बनने की. सविता को डर लगता यदि रूपल को ऐसा परिवार मिला, जहां उसके बच्चों की देखभाल करनेवाला कोई ना हो तो…
लेकिन भाग्य का लिखा कौन बदल सकता है, रूपल भी डॉक्टर ही बन गई.
"दादी…" की लंबी पुकार सुनकर सविताजी अपने विचारों से बाहर आई. रमा के दरवाज़ा खोलते ही रूपल दौड़ती हुई आई और सविता के गले में बांहें डालकर झूल गई.
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"इतनी बड़ी हो गई, लेकिन अभी तक बचपना नहीं गया तेरा." सविताजी ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.
"और कभी जाएगा भी नहीं." रूपल ने दादी के गाल चूमते हुए कहा.
"पगली तू कभी बड़ी होगी कि नहीं." सविता ने उसके गाल पर हल्की-सी चपत लगाई.
"बड़ी कैसे हो सकती हूं, मैं तो कल भी आपसे छोटी थी, आज भी उतनी ही छोटी हूं और हमेशा छोटी ही रहूंगी." रुपल ने उसके गाल पर अपना गाल रगड़ते हुए कहा.
सविता को हंसी आ गई, "चल! अच्छा ज़रा हाथ-मुंह धो ले, खाना लगवाती हूं मैं."
"ओके दादी, थोड़ी देर में श्रेय भी आनेवाला है." रूपल ने बताया.
"अरे, तो तेरे साथ ही क्यों नहीं आ गया." सविता ने पूछा.
"उसका एक पेशेंट बचा था, तो बोला मैं बाद में आऊंगा. थोड़ी देर में आता ही होगा." कहते हुए रूपल कमरे में चली गई.
सविता ने रमा को खाना लगाने को कहा. जब तक टेबल पर खाना लगा, तब तक रूपल भी हाथ-मुंह धो कर आ गई और श्रेय भी आ गया. श्रेय ने आते ही सविता के पैर छुए. तीनों खाना खाने बैठ गए. अस्पताल पास ही था, तो रूपल दोपहर को खाना खाने घर पर ही आ जाती थी. श्रेय का घर काफ़ी दूर था, तो अक्सर वह भी खाना खाने यही आ जाता था.
रूपल और श्रेय ने साथ में ही एमबीबीएस किया था और अब इंटर्नशिप भी साथ में ही कर रहे थे. साथ पढ़ते हुए एक-दूसरे को पसंद करने लगे. श्रेय ख़ुद भी अच्छा, सुसभ्य, सुसंस्कृत था और उसका परिवार भी अच्छा था. मना करने का कोई कारण ही नहीं था. बस, सविता को ही थोड़ा-सा मन को लगा था कि रूपल भी अपने माता-पिता का ही इतिहास दोहराएगी. फिर सोचती कि अभी तो उनके हाथ-पैर भली-भांति चल रहे हैं, रुपल के बाद उसके बच्चे की भी परवरिश वे आराम से कर लेंगी और अपनी जल्दबाज़ी पर उन्हें खुद ही हंसी आ गई.
समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा. रूपल और श्रेय की इंटर्नशिप ख़त्म हो गई. श्रेय ओंकोलॉजी में एमडी करने लगा और रूपल गैस्ट्रोएंटरोलॉजी में. हां, दोपहर का खाना सविता के साथ खाने का नियम बिना नागा चल रहा था, जिसमें अक्सर ही श्रेय भी होता ही था. अब तो श्रेय से भी सविता को वैसा ही स्नेह हो आया था, जैसा रूपल से था. उनके लिए दोनों ही बराबर थे. अब दोनों के एमडी ख़त्म होने पर ही थे. कोर्स पूरा होते ही शादी की तैयारियां थी. धीरे-धीरे सविता भी याद कर करके रमा को साथ लेकर छोटी-मोटी तैयारियां करती जा रही थी. बड़े काम होटल बुकिंग, कैटरर्स, डेकोरेटर तो बेटा-बहू ही करेंगे, लेकिन छोटी तैयारियां ही ज़्यादा रहती है. सो वे और रमा मिलकर रोज ही जितना बनता निपटा लेते. सविता की व्यस्तता दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही थी. एक तो वैसे भी गृहस्थी का सारा भार उन पर ही था, उस पर अब विवाह की तैयारियों का अतिरिक्त काम, लेकिन इतनी अधिक व्यस्तताओं में भी वे देख रही थी कि रूपल कुछ बुझती-सी जा रही है. क्या यह नए घर में, परिवेश में जाने की घबराहट है या जन्म का चिर-परिचित घर छोड़कर जाने की व्याकुलता भरी उदासी है, क्या कारण है उसके अचानक ही गुमसुम होते जाने का. और सिर्फ़ वही नहीं, श्रेय भी तो आजकल पहले सा ख़ुश नहीं दिखता. आना भी कम हो गया है, आता भी है कभी, तो ना पहले की तरह खुलकर बात करता है, ना बात-बात पर ठहाके लगाता है. श्रेय से तो कुछ कहना उचित नहीं समझा उन्होंने, लेकिन रूपल का मन जानने की ठान ली. जीवनभर जिसकी हंसी से घर की दीवारें खनकती रही, वह इस घर से चुप्पी ओढ़े है विदा हो जाए यह विचार ही असहनीय था.
एक दिन जब लंच पर श्रेय नहीं आया, तब सविता ने रूपल को कमरे में बुलाया और उससे उसके उदास और अनमने हो जाने का कारण पूछा. विवाह में कुल बारह दिन ही तो रह गए थे समस्या को टाला नहीं जा सकता था. अब समाधान आवश्यक था. रूपल जैसे चाह ही रही थी कि दादी उससे पूछे और वह अपने मन की भड़ास निकाल सके.
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"उदास ना होऊं तो और क्या करूं दादी, पता है श्रेय की मम्मा चाहती हैं कि मैं शादी में उनके घर की परंपरागत ड्रेस और जड़ाऊ कंगन, गहने पहनूं, जो उन्हें उनकी सास ने दिए थे और उनकी सास को उनकी सास ने." रुपल बोली।
"तो इसमें दिक्कत क्या है?" सविता समझ ना सकी.
"दिक्कत क्या नहीं है दादी, पता है उस लहंगे पर सोने-चांदी की कढ़ाई है, इतना भारी है, उस पर चार किलो के गहने वह भी डेढ़ सौ साल पुराने, कौन पहनता है आजकल. मैं इतना सुंदर लहंगा लाई हूं और नाज़ुक-सी लाइट वेट ज्वेलरी. उनके कपड़े और ज्वेलरी देखकर तो मेरा मूड ऑफ हो गया. सच शादी करने का भी मन नहीं हो रहा, वह समझती क्यों नहीं आजकल यह सब आउट ऑफ फैशन है." रूपल भुनभुनाई.
सविताजी ने राहत की सांस ली, चलो कम-से-कम मामला कुछ गंभीर नहीं है.
"और श्रेय क्या कहता है?" सविता ने पूछा.
"क्या कहेगा, ना अपनी मां को मना कर पा रहा है और ना ही…" रूपल ने रुवांसी होकर बात आधी छोड़ दी.
सविता श्रेय के मन को समझ गई कि वह ना रूपल को नाराज़ करना चाहता था, ना अपनी मां के मन को तोड़ना. बेचारा दो पाटों के बीच फंस गया. रूपल भी क्या करे, वह शुरू से ही पढ़ाई में व्यस्त रही. अब वह डॉक्टर बन गई है. सजने-संवरने का न उसे समय मिला, न शौक ही रहा. बहुत सादे ढंग से रहती है वह, एकदम सिंपल, सोबर सी है. अब इतने भारी कपड़े, जेवर देखकर उसका घबराना स्वाभाविक था. सविता कुछ पल सोचती रही फिर बोली, "तुमने श्रेय की मां यानी मीरा से बात की, उन्हें अपना लाया लहंगा और ज्वेलरी दिखाए, बताया कि तुम यही पहनना चाहती हो?"
"बताया, उन्हें पसंद भी आया, लेकिन कहती हैं कि इतनी लाइट ज्वेलरी संगीत या किसी और रस्म में पहन लेना शादी में तो उनका ही वाला पहनो. आप ही बताओ दादी कितनी कार्टून लगूंगी मैं उस डेढ़ सौ साल पुराने साज-सिंगार में, मुझसे नहीं होगा यह सब." रूपल का मूड फिर ऑफ हो गया.
"बेटा श्रेय के पिता के गुज़र जाने के बाद उन्होंने अकेले उसे पाला है आख़िर उनके भी तो कुछ अरमान होंगे ना. फिर वह परंपरागत रूढ़ीवादी परिवार की बहू है, उन्हें अपने रिश्तों का भी तो मान रखना होगा ना. लेकिन फिर भी एक समाधान हो सकता है इस समस्या का." सविता ने कहा.
"वह क्या दादी?" रूपल उत्सुक होकर देखने लगी.
"आजकल एक नया ट्रेंड चला है ना वह क्या कहते हैं उसे, प्री वेडिंग फोटोशूट. ऐसा करते हैं तुम्हारा भी एक फोटोशूट करवा लेते हैं, वही सब गहने और कपड़ों में. यदि तुम पर वे अच्छे या आरामदायक नहीं लगे, तो मैं वादा करती हूं मीरा को मैं समझा लूंगी शादी में तुम्हें वह सब ना पहनाने के लिए. और अगर वह तुम पर अच्छे लगे, तो शादी में तुम उन्हें ख़ुशी से पहन लेना. देखो रूपल, रिश्ता दोनों तरफ़ से समर्पण चाहता है. यदि तुम चाहती हो कि मीरा तुम्हारी भावनाओं का ध्यान रखें, तो पहल तुम्हें भी करनी होगी और यदि तुम मीरा की भावनाओं और इच्छाओं का मान रखोगी, तो श्रेय को भी ख़ुशी होगी. दो ही दिन की, तो बात है ना फिर तो उम्रभर तुम्हें अपनी ही पसंद के कपड़े पहनने हैं" सविता ने समझाया.
"ठीक है दादी जैसा आप कहें, मैं आपकी हर बात मानूंगी." रूपल ने मुस्कुराते हुए कहा. वह अब सहज लग रही थी.
सविता ने मीरा और श्रेय से बात की. दोनों ने ही ख़ुशी से इसे स्वीकार कर लिया. दो दिन बाद वह रूपल को लेकर श्रेय के घर पहुंची. मीरा और सविता ने रूपल को तैयार किया. जब पारंपरिक वेशभूषा में रूपल ने ख़ुद को आईने में देखा, तो वह ख़ुद ही अपने रूप पर मोहित हो गई. बहुत ही सुंदर लग रही थी वह. श्रेय की आंखों में भी उसकी सुंदरता को देखकर चमक आ गई. उसने तो कल्पना भी नहीं की थी कि रूपल इतनी सुंदर लगेगी, वह पलकें झपकाना भी भूल गया. सविता और मीरा ख़ुद भी दंग रह गई. सविता ने झट से रूपल को एक काला टीका लगा दिया. लड़की चाहे कितनी ही पढ़ीलिखी, आधुनिक क्यों न हो, जब वह दुल्हन बनती है, तो पारंपरिक भारतीय पोशाक और श्रृंगार में ही सुंदर लगती है. मीरा तो रूपल की बलैया लेते नहीं थक रही थी. भारतीय दुल्हन दुनिया की सबसे सुंदर दुल्हन होती हैं. फोटोग्राफर देर तक रूपल की अकेले की और श्रेय के, मीरा और सविता के साथ फोटो लेता रहा.
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शूट पूरा होने के बाद मीरा ने देखा भारी नथ के कारण रूपल की नाक लाल हो रही थी और करधनी के वज़न से उसका लहंगा बार-बार नीचे को हो रहा था.
"तुम यह वाली नथ मत पहनना मैं नहीं चाहती कि शादी के दिन तुम्हें ज़रा भी तकलीफ़ हो. ऐसा करते हैं अमेरिकन डायमंड की एक छोटी-सी आर्टिफिशियल नथ ले आते हैं शादी के समय के लिए. वैसे भी बाद में नथ कौन पहनता है और यह भारी करधनी भी रहने दो, आज के दौर में बड़ी अटपटी लग रही है." मीरा ने नथ निकाल ली और करधनी के साथ ही बालों में लगानेवाले दो-चार ज़ेवर भी अलग कर दिए, जो आजकल चलन में नहीं हैं.
सविता ने मुस्कुराकर रूपल को देखा जैसे कह रही हो, 'देखा मैंने कहा था ना दो बातें तुम मान लो, तो वह भी तुम्हारी भावनाओं का ध्यान रखेंगे.'
"यह पायल अगर ज़्यादा भारी लग रही हो, तो जो लाइट वेट नई वाली हल्की है, वही पहन लेना." मीरा ने कहा.
"नहीं मम्मा, पायल तो मैं यहीं पहनूंगी बहुत सुंदर है." रूपल ने कहा.
"ठीक है मेरी बच्ची. आधुनिक होने के बाद भी तुममें अपनी परंपराओं के लिए इतना सम्मान है, यह देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई." मीरा ने विव्हल होकर रूपल को गले लगा लिया.
जब मीरा गहने और कपड़े रखने अंदर गई, तो रूपल ने झट सविता के गले में बांहें डाल दीं, "थैंक यू सो मच दादी, आपने ना सिर्फ़ मेरी शादी के दिन को ख़ुशनुमा बना दिया, वरन जीवन का सबसे महत्वपूर्ण फ़लसफ़ा भी समझा दिया कि यदि हम किसी की भावनाओं को मान देते हैं, तो बदले में हमें भी ढेर सारा प्यार मिलता है रिश्ते में. आप सच में मेरी लाइट हाउस हो. मैं बहुत ख़ुशक़िस्मत हूं कि आप मेरी दादी हो."
"सिर्फ़ रूपल की नहीं, आप मेरी भी लाइट हाउस हो दादी. आपने एक फोटो शूट के बहाने से सबके दिलों की इच्छाएं पूरी करके उन्हें आपस में जोड़ दिया, वरना बेवजह का यह खिंचाव इस एक दिन की वजह से उम्रभर रिश्तों पर हावी रहता. थैंक यू सो मच दादी, अवर लाइट हाउस." श्रेय ने कहा, तो सविता ने हंसते हुए दोनों को बांहों में भर लिया.
पर्दे के पीछे खड़ी मीरा उन तीनों को देखकर प्यार से मुस्कुरा रही थी, "थैंक यू हमारे सबके जीवन के लाइट हाउस."
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