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कहानी- मन की सुहागरात (Short Story- Maan ki Suhagrat)

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“तुम्हारे आत्महत्या वाले शब्द कानों में गूंज रहे थे. तुम्हें झिड़कने की ग्लानि भी थी मन में. दीनू काका ने फोन करके तुम्हारी हालत बताई, तो मुझसे रहा नहीं गया. कार वापस मुड़वा ली. सोचा मीटिंग तो सारी ज़िंदगी करता रहा हूं और करता रहूंगा, पर तुम्हें कुछ हो गया, तो तुम्हारे बिना कैसे जीऊंगा?” 
  “जी कहिए, क्या कहना है?” आधे घंटे के इंतज़ार के बाद वो आए थे और अब ऐसी सधी आवाज़ में शिष्टता के साथ पूछ रहे थे, जैसे वो कोई समस्या लेकर आई फ़रियादी हो. अवनि के नन्हें से दिमाग ने काम करना बंद कर दिया. अब क्या कहे, कैसे कहे कि वेलेंटाइन्स डे का कार्ड देने और ‘आई लव यू’ कहने आई थी. इस सविता की बच्ची ने कहां फंसा दिया? क्या ज़रूरत पड़ी थी उनसे ये कहने की कि ज़रूरी काम है. उसकी पलकें झुक गईं, कपोल आरक्त हो गए और शब्द अधरों में अटक गए. “आपको जो कहना हो, बेझिझक कहिए. अब हमें जीवनभर साथ रहना है. आप मुझ पर भरोसा कर सकती हैं.” इस प्रोत्साहन के बाद तो ज़रूरी लगनेवाली बात कहना और ज़रूरी हो गया था, “जी, वो मेरी परीक्षाएं शादी के बाद पड़ीं तो?” “ओह! ठीक है, मैं आपकी सुविधा का पूरा ध्यान रखूंगा. और कोई समस्या?” ‘उफ़्फ़! अपनी होनेवाली पत्नी से ऐसे बात कर रहा है, जैसे पापा अपने विद्यार्थियों से बात करते हैं.’ अवनि के लिए इस कुछ अधिक ही शिष्ट और औपचारिक वार्तालाप के बाद वहां रुकना असह्य हो गया. “जी, धन्यवाद! मैं चलती हूं. नमस्ते.” कहते हुए वो मुड़ गई और लगभग दौड़ते हुए अपनी सखियों के बीच जाकर ही दम लिया. घर लौटने के लिए ऑटो में लदने के बाद ठिठोली करती सखियों को ये छोटी-सी कथित रोमांटिक मुलाक़ात उनके आग्रह पर शब्दशः सुनाई, तो सबने सिर पीट लिया. नेहा रातभर इस बेचैनी में सो न सकी कि क्या शादी से पहले एक प्रेमी-प्रेमिका की तरह बंधनों और मर्यादाओं में बंधे बेबस प्रेमी युगल की आतुर बातचीत और क्षणिक स्पर्श उसके नसीब में नहीं है? जिसके बारे में सखियां, दीदियां और भाभियां बताती रही हैं कि उसमें व़क्त ठहर जाता है और धरती अंतरिक्ष लगने लगती है. संयुक्त परिवार की सबसे छोटी संतान अवनि बचपन से बड़ी बहनों और दादी-बाबा की आज्ञाकारी गुड़िया ही रही थी. उसे दुलार भी सबसे ज़्यादा मिला था और कुछ ग़लत होने पर बचपने के ताने भी. अपने से ज्यादा उसे दूसरों के दिमाग़ पर भरोसा होता था. हर काम पूछकर करना और ग़लती होने से डरना उसकी आदत थी. पहली बार सखियों के कहने में आकर मन की आकुलता ने उसे समझा-बुझाकर बिना किसी से पूछे अंबर से मिलने की पहल करने को मनाया था, पर... कहीं उसने अंबर से शादी करने के लिए हां करके ग़लती तो नहीं कर दी? पर हां न करती, तो करती भी क्या? पापा की क्या हालत हो गई थी. मांगलिक होने के कारण उसकी शादी के लिए लड़का ढूंढ़ते-ढूंढ़ते पापा थक गए थे. एक बार जब शादी तय हुई, तो लड़केवालों ने सगाईवाले दिन ही अपने यहां हुई एक मौत का दोष उसके नक्षत्रों को देकर शादी के लिए मना कर दिया था और पापा तनाव व निराशा में अपने दोस्त अंबर के आगे हाथ जोड़कर रो पड़े थे. अंबर अपने माता-पिता के देहांत के बाद छोटी आयु से ही परिवार की ज़िम्मेदारियां संभालते रहे थे, फिर शोध आरंभ कर दिया था. इसीलिए अब तक शादी नहीं की थी. थे तो वे पापा से बहुत छोटे, पर पापा से उनका मानसिक स्तर इतना मिलता था कि मित्रता घनी थी. वे पहले तो स्वयं और अवनि की उम्र के पंद्रह वर्ष के अंतर के कारण झिझके, पर अपने दोस्त की ज़िद के आगे झुक गए. जब अवनि के सामने ये प्रस्ताव आया, तो वो हतप्रभ रह गई, पर जब दादी ने समझाया कि उम्र में अधिक अंतर होने पर पुरुष पत्नी को अत्यधिक प्यार करता है, तो उसने उन्हीं में अपने सपनों के राजकुमार की तलाश शुरू कर दी. आख़िर हर लड़की के कुंवारे मन की तरह अवनि के मन में पति के रूप में दीवानगी की हद तक चाहनेवाला प्रेमी पाने की लालसा हर लालसा से बड़ी थी. पर शादी के बाद उसने अंबर में सपनों के राजकुमार जैसा कुछ न पाया. हालांकि कमी किसी चीज़ की न थी. घर का काम करने के लिए नौकर थे. वो कुछ भी ख़रीदने के लिए कहे या कहीं जाने को, अंबर कभी मना नहीं करते थे, लेकिन ऊंचे प्रशासनिक अधिकारी होने के कारण व्यस्त बहुत रहते थे. सुबह उनके उठने से पहले ही मिलनेवालों की पंक्ति लग जाती. रात भी देर तक वे लोगों की समस्याएं सुनते-सुलझाते रहते. उनका स्वभाव इतना अच्छा था कि उन्हें सब ‘साधु’ कहते थे, पर अवनि के लिए इस साधु प्रकृति के पुरुष के साथ सामंजस्य बैठाना किसी परीक्षा से कम न था. उसके कोरे-कुंवारे मन में एक सपनीले प्यार को देने और पाने की जितनी पिपासा थी, अंबर में उतनी ही निर्लिप्तता. वो अल्हड़ किशोरावस्था की उन्मुक्त उमंगों की जीवंतता थी, तो अंबर धीर-गंभीर सांचे में ढली शालीनता और कर्त्तव्यनिष्ठा की प्रतिमूर्ति. वे जब उसके साथ होते भी, तो भी मोबाइल सौत बना रहता. जब-जब नेहा ने उनसे कहा कि मुझे आपसे कुछ कहना है, तब-तब वे मोबाइल रखकर उसी शिष्ट स्वर और हाव-भाव के साथ बोलते, “कहो, क्या चाहती हो?” ऐसे में प्यार-मुहब्बत के शब्द अवनि के गले में ही अटककर रह जाते. वो तरह-तरह के व्यंजन बनाती, अनुपम सिंगार के साथ शयनकक्ष सजाती, हर समय इठलाती-बतियाती अंबर के आगे-पीछे घूमती और तरह-तरह से प्यार जताते हुए प्रशंसा के दो बोल सुनने को तरसती रहती, मगर अंबर में तो जैसे बस देने का ही भाव था. यहां तक कि सामीप्य के उन अंतरिम क्षणों में भी लगता कि वो बस देने ही आए हैं. अवनि बेचैन रहती कि कभी तो अंबर ख़ुद से कोई इच्छा ज़ाहिर करें. कभी तो शरीर सुख देने के नहीं, पाने की पिपासा और आकुलता के साथ उसके समीप आएं, उसकी किसी बात पर ख़ुश होकर उसे आलिंगन में यूं कस लें कि लगे वो उनका चाव है, आनंद है, सौभाग्य है. मायके गई और सखियों के साथ समस्या बांटी. उन्होंने कुछ समाधान कानों में फुसफुसाए. उस रात उनके शयनकक्ष में आने की आहट पाते ही वो करवट बदलकर दम साधकर लेट गई, तो वे चुपचाप सो गए. अगली रात उनके प्रणय स्पर्श पर इठलाकर बोली कि आज मुझे नींद आ रही है, तो वे ‘सॉरी’ बोलकर सो गए. कुछ दिन यही क्रम चला, तो अंबर ने इतने हल्के से दूरी बनाकर सोना शुरू कर दिया कि अवनि का तो दिलो-दिमाग़ असमंजस का घर बन गया. ऐसा पति तो किसी सखी ने नहीं बताया था. कोई मनाता था, तो कोई अधिकार जताता था और इसी बहाने ‘आई लव यू’ कहने-सुनने का अवसर मिल जाता था, लेकिन उसके छोटे-से दिमाग़ के सामान्य ज्ञान के अनुसार ऐसा पुरुष तो हो ही नहीं सकता था, जो शादी के मात्र कुछ महीनों बाद बगल में अस्त-व्यस्त वस्त्रों में लेटी इतनी ख़ूबसूरत पत्नी से यों दूरी बनाकर सो सकता हो, वो भी इतने दिनों तक. कहीं अंबर उससे नाराज़ तो नहीं? ये जानने के लिए एक दिन स्वयं ही नारी सुलभ लज्जा त्यागी, तो पाया कि वे नाराज़ नहीं थे, बस उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध तंग नहीं करना चाहते थे. उसके बाद से यही नियम-सा बन गया. वे तभी उसके क़रीब आते, जब वो पहल करती. उनसे प्यार का इज़हार करवाने का ये दांव भी उल्टा पड़ चुका था. तभी एमए का परीक्षाफल आ गया और अंबर ने बिल्कुल पापा के अंदाज़ में पूछा, ‘अब आगे क्या करना है.’ ‘हे भगवान! स्नातकोत्तर के बाद अब क्या पढ़ाना चाहते हैं ये? क्या ये पढ़ाई अब भी पीछा न छोड़ेगी?’ मन ही मन सोचकर कुढ़ गई अवनि. जब दो दिन में तीसरी बार अंबर ने वही प्रश्‍न दोहराया, तो फिर कुछ बोलना ज़रूरी हो गया. “जी, मैं कोई तकनीकी शिक्षा लेना चाहूंगी. मुझे घर सजाने का बहुत शौक़ है.” “वेरी गुड.” बिल्कुल पापा के ही अंदाज़ में उत्तर मिल गया और इंटीरियर डिज़ाइन के कोर्स में प्रवेश दिलवा दिया गया. बड़े ही सपाट ढंग से ये भी बता दिया गया कि जब तक वो आत्मनिर्भर नहीं हो जाती, बच्चों का दायित्व नहीं उठाया जाएगा. कॉलेज छोड़ने-लेने जाने के लिए कार और ड्राइवर नियुक्त हो गए. चुलबुली अवनि के अंतस के पिंजड़े में बंद ख़्वाहिशों को कॉलेज में जाकर नए पंख मिल गए. कई साथियों का एक समूह बना, जिसमें लड़के और लड़कियां बराबर थे. कैंटीन में मस्ती, कभी कैफेटेरिया, तो कभी शॉपिंग मॉल उनकी दिनचर्या का हिस्सा थे. जब वो अवनि से साथ चलने को कहते, तो उसका मन तो बहुत होता, पर अंबर से पूछे बिना उसकी कहीं जाने की हिम्मत नहीं थी, इसीलिए हर बार उनसे फोन करके पूछती. वो कार्यालय में काम करते-करते हर बार फोन पर हां कर देते. भोली और बातूनी अवनि के दिल में वैसे भी कोई बात टिकती न थी. एक बार हंसी-हंसी में अपनी नई सहेलियों से अंबर की निर्लिप्तता का ज़िक्र किया, तो उन्होंने बिल्कुल नया और नायाब नुस्ख़ा सुझाया, उन्हें पुरुष मित्र की बातों से जलाने का. बस, फिर क्या था, काम शुरू हो गया. सबसे हंसमुख साथी निदान का ज़िक्र रोज़ अंबर से किया जाने लगा. कॉलेज में जब उसका समूह हंसकर सेल्फी ले रहा होता. तो वो जान-बूझकर निदान से सटकर खड़ी होती. घर पर भी जब सबको बुलाया, तो निदान को बेस्ट फ्रेंड कहकर अंबर से मिलाया. एक दिन निदान ने अपने घर पर गेट-टुगेदर रखा. किसी के घर गेट-टुगेदर के लिए जाने का अवनि के लिए पहला मौक़ा था. वो अकेले रहता था. अवनि ने अंबर से फोन करके पूछा, तो वो उसकी बात सुने बिना झल्ला गए कि बात-बात पर पूछने की क्या ज़रूरत है. उनकी कोई ज़रूरी मीटिंग भी थी. निदान ने अवनि को उसके मनपसंद गीतों का संकलन एक पेन ड्राइव में देने को कहा था. वापसी में सब लोग निकलने लगे, तो उसने अवनि को पेनड्राइव ढूंढ़ने के लिए रोक लिया और एकांत मिलते ही अवनि को बांहों में कस लिया. हतप्रभ अवनि ने किसी तरह ख़ुद को छुड़ाया और उसके घर से बाहर निकलकर सड़क पर खड़ी होकर रोते-रोते फिर अंबर को फोन किया. घर का रास्ता, वो कहां खड़ी है, उसे कुछ मालूम न था. अंबर उसका मोबाइल लोकेट करके उसे लेने पहुंचे, तो वो सिसक-सिसककर रो पड़ी. “अगर आज कुछ हो जाता, तो मैं आत्महत्या कर लेती.” अवनि के मुंह से शब्द कम निकल रहे थे और रुलाई की हिचकियां ज़्यादा. “उफ़्फ़! अब बस भी करो. हद होती है बेवकूफ़ी की. ख़ैर छोड़ो! मुझे ज़रूरी मीटिंग के लिए दूसरे शहर के लिए अभी निकलना है. दो दिन बाद लौटूंगा.” अंबर ने पहली बार उससे झिड़ककर बात की थी. वो भीतर तक सहम गई. उसे लगा प्यार पाना तो दूर, अब तो उनका अच्छा व्यवहार भी उससे छिन गया. उसकी तो ज़िंदगी ही बेकार हो गई. वो आंगन ही में ज़मीन पर बैठ गई और वहीं बैठी रही. उसका ग्लानि से आरक्त चेहरा पूरी तरह झुका हुआ था. पलकों में जैसे बांध तोड़ने को आतुर सैलाब रखा था. शाम होने लगी थी, तभी अंबर के कोमल स्वर कान में पड़े, “अंदर नहीं चलना है?” अवनि के आश्‍चर्य का ठिकाना न रहा, “आप तो...” “तुम्हारे आत्महत्या वाले शब्द कानों में गूंज रहे थे. तुम्हें झिड़कने की ग्लानि भी थी मन में. दीनू काका ने फोन करके तुम्हारी हालत बताई, तो मुझसे रहा नहीं गया. कार वापस मुड़वा ली. सोचा मीटिंग तो सारी ज़िंदगी करता रहा हूं और करता रहूंगा, पर तुम्हें कुछ हो गया, तो तुम्हारे बिना कैसे जीऊंगा?” कहकर उन्होने अपनी बांहें फैला दीं. अवनि ने चौंककर अपनी आंखें अंबर की आंखों पर टिका दीं. ये क्या कह दिया था उन्होंने? कहीं उसके कान तो नहीं बजने लगे? लगभग सालभर से उसकी हज़ार कोशिशों के बावजूद अंबर ने जो नहीं कहा था, वो आज? उसकी पलकों का सैलाब बांध तोड़कर बह चला. वो दौड़कर उनके सीने से लगकर सुबक पड़ी, “मुझे माफ़ कर दीजिए. मैंने आपसे निदान के बारे में जो कुछ पहले भी कहा था, वो आपको जलाकर आपका प्यार पाने के लिए. वो मेरा बेस्ट फ्रेंड नहीं. मुझे आपका प्यार चाहिए था बस. मैं बुद्धू हूं, मगर चरित्रहीन नहीं...” अब उसकी बातें सुनकर अंबर को हंसी आ गई. वे उसका चेहरा अपने हाथों में लेकर आंसू पोछते हुए बोले, “चुप हो जाओ अवनि, तुमने वहां जाने से पहले मुझसे फोन करके पूछना तो चाहा था. तुमने सोच भी कैसे लिया कि मैं तुम्हें चरित्रहीन समझूंगा. इंसान की इतनी तो पहचान है मुझे और तुम ऐसा क्यों समझती हो कि मैं तुम्हें प्यार नहीं करता?” तभी दीनू काका ने दरवाज़ा खटखटाया और उनकी इजाज़त लेकर कॉफी रख गए. अंबर ने उसके हाथ में कॉफी का मग देकर एक मग ख़ुद उठा लिया, “बोलो अवनि! तुम्हारी कौन-सी चाह मैंने पूरी नहीं की, जो तुम्हें ऐसा लगा?” दोबारा वही सधी हुई आवाज़! अवनि चुप! क्या समझाए? कैसे समझाए? अंबर फिर अपने प्रशासनिक अधिकारीवाले खोल में आ गए थे. फिर से वही माहौल बन गया था, जो उसे फ़रियाद लेकर आया कोई छोटा अधिकारी होने का बोध कराता था और उसके शब्द ज़बान का साथ छोड़ देते थे, लेकिन तभी उसे लगा कि आज अगर वो झिझक गई, लजा गई, तो ये अवसर जीवन में दोबारा नहीं मिलेगा. उसने धीरे-धीरे बोलना शुरू किया, “आपने मेरी हर चाहत पूरी की, मगर मुश्किल तो यही है कि मुझसे कभी कुछ चाहा ही नहीं. जब कोई हम पर अधिकार समझता है, जब कोई हमारे सामीप्य से ख़ुश और दूर जाने से दुखी होता है, हमारे छिनने के एहसास से डरता है, तब हम समझते हैं कि वो हमें प्यार करता है. प्यार वो है, जो हमें किसी की नज़रों में दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति होने का एहसास कराता है. मैं आपके क़रीब आना चाहूं, तो आपसे कह सकती हूं, मगर आपके मन में मेरे क़रीब आने की ललक हो, ये कहने की बात थोड़े ही है, इसीलिए मैं कितनी तरह से शृंगार करके... लेकिन कभी लगा नहीं कि मेरे रूप ने, प्यार ने, गुणों ने आपको मुग्ध किया है, सुकून दिया है. क्या मैं आपको सुंदर नहीं लगती? आपके योग्य नहीं लगती?” कहते हुए अवनि ने अपनी निश्छल निगाहें सीधी अंबर की आंखों पर टिका दीं, तो उसका सामना जीवन के सबसे सुंदर सच से हुआ. जो काम ज़माने के बताए कई आड़े-तिरछे उपाय नहीं कर सके थे, वो दिल से कही गई सीधी-सच्ची बातों ने कर दिया था. निस्पृहता का आवरण पिघलाकर व्याकुलता और प्रेम के ढेर सारे कोमल भाव अंबर के चेहरे पर प्रकट हो गए थे. “नहीं, नहीं, अवनि ऐसा नहीं है, बल्कि...” अंबर ने एक आकुल उमंग के साथ उसका चेहरा अपने सीने पर रखकर अपनी बांहों का घेरा उसके गिर्द कस दिया, फिर अपनी बात आगे बढ़ाई. “अवनि, छोटी-सी उम्र में जब मेरे माता-पिता का देहांत हुआ, तो तुम्हारे पिताजी की मदद से ही मैं पढ़ा और अपने छोटे भाई-बहनों को पढ़ा पाया. मैं उनका बहुत सम्मान करता हूं. तुमसे विवाह किया तो दिल में केवल उन्हें तनावमुक्त करने की बात थी, मगर जब तुम अपने अप्रतिम रूप में भोग्या बनकर मेरे सामने आईं, तो मन ग्लानि से भर गया. उम्र के पंद्रह वर्ष का अंतर मेरे मन को मथने लगा. लगा कि मैं तुम्हारी शिक्षा और विवाह का दायित्व लेकर भी तो तुम्हारे पिता को तनावमुक्त कर सकता था. मैं तुम्हें छूता, तो भी लगता कि अपराध कर रहा हूं और न छूता तो भी. शायद इसीलिए तुमने मेरे भीतर कभी वो पिपासा नहीं महसूस की, जिसके कारण इंसान शरीर की हदों को पारकर मन तक पहुंच जाता है. शायद इसीलिए मैं तुमसे भागता रहा. कभी तुम्हें समझने-समझाने की कोशिश नहीं की. ख़ुद की आत्मग्लानि कम करने के लिए तुम्हें हर ख़ुशी देता रहा. तुम ख़ुद को केवल भोग्या न समझो, इसलिए तुम्हें पढ़ाने के पीछे पड़ा रहा, पर तुम क्या चाहती थीं, ये समझकर भी नासमझ बना रहा. तुम तो नासमझ थीं, लेकिन मैंने भी तुम्हें कभी सतर्कता के नियम नहीं समझाए. मेरी पारखी नज़रें समझ गई थीं कि निदान कैसा व्यक्ति है, पर मैंने तुम्हें आगाह नहीं किया. जानता था कि तुम मुझे जलाने के लिए उसकी तारीफ़ करती हो और मेरे रोकने-टोकने पर इसे मेरी ईर्ष्या समझकर ख़ुश हो जाओगी. मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि तुम्हें कैसे समझाऊं. तुम भी मुझे माफ़ कर दो अवनि, मैं तुम्हारा प्यार खोना नहीं चाहता.” मन की गांठ खुल चुकी थी. वो एक-दूसरे के पावन स्पर्श की गुदगुदाहट से विभोर हो रहे थे. ये उनके मन की सुहागरात थी. पूनम का चांद कुछ देर झीने पर्दे से इस आत्ममुग्ध युगल को निहारकर बादलों में छिप गया. Short Story                   भावना प्रकाश

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