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कहानी- मान (Short Story- Maan)

"तू नहीं समझेगा, बेटी का मान ससुराल में बना रहे, इसके लिए ये सब करना पड़ता है… चल जल्दी से ड्राइवर को भेज बाहर." पिताजी मुझे देखते हुए बोले.
बेटी के मान‌ वाली बात ऐसे ही कही गई थी, लेकिन मुझे चुभ गई… रातभर आंसू रुके नहीं.

घर मेहमानों से भरा हुआ था… गाना बजाना, शोरगुल, हंसी ठिठोली के बाद भी मन बहुत उदास था… शुभ्रा मेरी ननद कम, सहेली ज़्यादा थी. उसकी शादी के बाद घर‌ कितना खाली खाली हो‌ जाएगा. चिंता का कारण एक और भी था, ननद की शादी में मेरे मायके से क्या आएगा, इसका सबको बड़ा इंतज़ार था, ख़ासकर मेरे‌ पति नवीन की बुआजी यानी मेरी बुआ सास को.
"बहू के यहां से कोई आया क्या भाभी?"
"जीजी, कल शादी है. आज शाम तक आ जाएंंगे. आप काहे परेशान हो रही हैं." मांजी टालने लगीं.
"देखें तो क्या लाते हैं… क्या लाएंगे वैसे? हमारे नवीन को क्या दे दिया. नाक कटी हमारी बिरादरी भर में…" बुआजी शुरू हो गईं.
हालांकि मांजी और पिताजी की कोशिश रहती थी कि ये बातें मुझे ना पता चलें, लेकिन मुझ तक आ ही जाती थीं और मैं बुझ जाती थी. भइया-भाभी क्या लाएंगे, मैं जानती थी… मम्मी-पापा के गुज़रने के बाद, भाभी ने मुझसे ना के बराबर संबंध रखा. एक ही शहर में होते हुए भी साल में एक-दो बार से ज़्यादा मायके नहीं जाना होता. रुपए-पैसे की वहां कोई कमी नहीं है, लेकिन…


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"भाभी, आपके भइया आए हैं. माताजी आपको बुला रही हैं. "नौकर ने‌ आवाज़ दी.
"अरे, नहीं नहीं, कुछ खाऊंगा नहीं. बस ये देना था. कल आते हैं ना सबको लेकर. कुछ काम हो तो बताइएगा मांजी." भइया बहुत जल्दी में थे.
मेरा मन भर आया. ५ मिनट भी  नहीं रुके. एक सरसरी निगाह मैंने बैग पर डाली. २-३ मिठाई के और एक साड़ी का डिब्बा था,
"बहू, मुझे सुनार के यहां का कुछ काम निकल आया है. घंटे भर में आती हूं. ये बैग मेरे कमरे में रखवा दो."
"अब कौन सा ज़ेवर बाकी रह गया है? फ़ालतू ख़र्चे हैं बस…" नवीन ग़ुस्सा रहे थे.
"तू नहीं समझेगा, बेटी का मान ससुराल में बना रहे, इसके लिए ये सब करना पड़ता है… चल जल्दी से ड्राइवर को भेज बाहर." पिताजी मुझे देखते हुए बोले.
बेटी के मान‌ वाली बात ऐसे ही कही गई थी, लेकिन मुझे चुभ गई… रातभर आंसू रुके नहीं.
सुबह आंंगन‌ में सब शुभ्रा को देनेवाला सामान दिखा रहे थे, कोई साड़ी, कोई अंंगूठी… तब तक बुआजी गरजीं, "अरे भाभी, कल बहू के यहां से क्या आया? यहीं बैग मंंगवाओ रामरतन से. देखें तो…"
बैग खुलते ही सन्नाटा छा गया… सात भारी साड़ियां, ११ किलो मिठाई, शुभ्रा के लिए सोने की चेन और छोटे-बड़े अनेक उपहार.
लगभग भागती हुई मैं पिताजी के कमरे में आई, "आपने मुझसे‌ कहा, शुभ्रा ‌के‌‌ ससुराल के लिए… आप लोग कल‌ ये सब मेरे लिए लेने‌ गए थे ना…" मैं ‌फूट-फूटकर रो‌ पड़ी.

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"तुमने ग़लत ‌सुना." पिताजी ‌ने‌ मेरे आंसू पोंछे, "बिटिया के मान‌ की बात की थी… कौन सी बिटिया, ये तो‌ बताया ही नहीं था."

Lucky Rajiv
लकी राजीव

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