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हिंदी कहानी- शर-शैया (Short Story- Shar-Shaiya)

shar shayya

प्रेम यदि किसी से होता है, तो सदा के लिए होता है, वरना नहीं होता. लेकिन अब तो मेरी सारी इच्छाएं पूरी हो गई हैं, कोई ख़्वाहिश बाकी नहीं रही. फिर सीने पर ये धोखे का बोझ लेकर क्यों जाऊं...? मरना है तो हल्की होकर मरूं... तुम्हें मुक्त करके जा रही हूं, तो मुझे भी तो शांति मिलनी चाहिए ना?

स्त्रियां अधिक यथार्थवादी होती हैं. परमात्मा के संबंध में सबके विचार भिन्न-भिन्न होते हैं, परंतु इस संदर्भ में पुरुषों और स्त्रियों के विचारों में अंतर होता है. जब कुछ नहीं सूझता, तो किसी सशक्त और धैर्य देनेवाले विचार को पाने के लिए पुरुष आकाश के नीले खोखलेपन की ओर देखता है, परंतु ऐसे समय में स्त्रियां सिर झुकाकर धरती की ओर देखती हैं. विचारों में ये मूल अंतर है. पुरुष सदैव अव्यक्त की ओर, स्त्री सदैव व्यक्त की ओर आकर्षित होती है. पुरुष का आदर्श है आकाश, स्त्री का धरती... शायद इला को भी यथार्थ का बोध हो गया था. जब जीवन में, जीवन को देखने या जीवन को समझने के लिए कुछ भी न बचा हो और जीवन की सांसें चल रही हों, ऐसे व्यक्ति की वेदना कितनी असहनीय होगी? शायद इसीलिए उसने आगे और इलाज कराने से साफ़ मना कर दिया था. कैंसर की आख़िरी स्टेज थी.
“नहीं, अब और नहीं, मुझे यहीं घर पर तुम सबके बीच चैन से मरने दो. इतनी तकली़फें झेलकर अब मैं इस शरीर की और छीछालेदर नहीं कराना चाहती.” इला ने अपना निर्णय सुना दिया. ज़िद्दी तो वह थी ही, मेरी तो वैसे भी उसके सामने कभी नहीं चली, लेकिन शिबू की भी उसने नहीं सुनी.
“नहीं बेटा, अब मुझे इसी घर में अपने बिस्तर पर ही पड़ा रहने दो, ईश्‍वर की कृपा से जीवन आराम से ही कट गया, बस, अब आराम से मरने दो... सब सुख देख लिया, नाती-पोता, तुम सब का पारिवारिक सुख... बस, अब तो यही इच्छा है कि सब भरा-पूरा देखते-देखते आंखें मूंद लूं.” उसने
शिबू का गाल सहलाते हुए कहा और मुस्कुरा दी.
कहीं कोई शिकायत, कोई क्षोभ नहीं! पूर्णत्व बोध भरे आनंदित क्षण को नापा नहीं जा सकता. वह परमाणु-सा होकर भी अनंत विस्तारवान है. पूरी तरह संतुष्टि और पारदर्शिता झलक रही थी उसके कथन में! मौत सिरहाने खड़ी हो, तो इंसान बहुत उदार हो जाता है क्या? क्या चला-चली की बेला में वह सबको माफ़ करता जाता है? पता नहीं... शिखा भी पिछले एक हफ़्ते से मां को मनाने की बहुत कोशिश करती रही, फिर हारकर वापस पति व बच्चों के पास कानपुर लौट गई. शिबू की छुट्टियां भी ख़त्म हो रही थीं. आंखों में आंसू लिए वह भी मां का माथा चूमकर वापस जाने लगा.
“बस बेटा, पापा का फ़ोन जाए, तो फ़ौरन आ जाना. मैं तुम्हारे और पापा के कंधों पर ही श्मशान जाना चाहती हूं.” एयरपोर्ट के रास्ते में शिबू बेहद ख़ामोश रहा. उसकी आंखें बार-बार भर आती थीं. वह मां का दुलारा था. शिखा से 5 साल छोटा. मां की ज़रूरत से ज़्यादा देखभाल ने उसे बेहद नाज़ुक और भावनात्मक रूप से कमज़ोर बना दिया था. शिखा जितनी मुखर और आत्मविश्‍वासी थी, वह उतना ही दब्बू था. जब भी इला से कोई बात मनवानी होती थी, तो हम शिबू को ही हथियार बनाते. वह कहीं न कहीं इस बात से भी आहत था कि मां ने उसकी भी बात नहीं मानी या शायद मां के दूर होने का ग़म उसे ज़्यादा साल रहा था.
आजकल के बच्चे लगभग संवेदनहीन हो चुके हैं, इस सामान्य सोच से मैं भी इत्तेफ़ाक़ रखता था. हमारी पीढ़ी ज़्यादा भावुक थी, लेकिन अपने बच्चों को देखकर लगता है कि शायद मैं ग़लत हूं. ऐसा नहीं कि उम्र के साथ परिपक्व होकर भी मैं पक्का घाघ हो गया हूं. अम्मा जब ख़त्म हुई थीं, तो शायद मैं भी शिबू की ही उम्र का रहा होऊंगा. मैं तो उनकी मृत्यु के दो दिन बाद ही पहुंच पाया था. घर में बाबूजी व बड़े भैया ने सब संभाल लिया था. दोनों बहनें भी पहुंच गई थीं. स़िर्फ मैं ही अम्मा को कंधा न दे सका. पर इतने संवेदनशील मुद्दे को भी मैंने बहुत सहज और सामान्य रूप से लिया. बस, रात में ट्रेन के बर्थ पर लेटे हुए अम्मा के साथ बिताए तमाम पल छन-छनकर दिमाग़ में घुमड़ते रहे, जिन्हें याद करके आंखें छलछला जाती थीं. लेकिन इससे ज़्यादा कुछ नहीं... फिर भी बच्चों की अपनी मां के प्रति इतनी तड़प और दर्द देखकर मैं अपनी प्रतिक्रियाओं को अपने तरी़के से जस्टिफाई कर लेता हूं. असल में अम्मा के चार बच्चों में से मेरे हिस्से में उनके प्यार व परवरिश का चौथा हिस्सा ही तो आया होगा. इसी अनुपात में मेरा भी उनके प्रति प्यार व परवाह का अनुपात एक बटा चार रहा होगा और क्या...?
लगभग एक हफ़्ते से मैं शिबू को बराबर देख रहा था. वह पूरे समय इला के आसपास ही बना रहता था. यही तो इला जीवनभर चाहती रही थी. सीमा जब सालभर के बच्चे से परेशान होकर उसकी गोद में उसे डालना चाहती, तो वह खीझ उठता, “प्लीज़ सीमा, इसे अभी संभालो, मां को दवा देनी है, उनकी कीमो की रिपोर्ट पर डॉक्टर से बात करनी है...” वाकई इला है बहुत क़िस्मतवाली... वह अक्सर फूलती भी रहती है, “मैं तो राजरानी हूं... राजयोग लेकर जन्मी हूं...” मैं उसके बचकानेपन पर हंसता. अगर मैं उसकी दबंगई और दादागिरी इतनी शराफ़त और शालीनता से बर्दाश्त न करता, तो उसका राजयोग जाता पानी भरने. ठीक है कि घर-परिवार और बच्चों की ज़िम्मेदारी उसने बहुत ईमानदारी और मेहनत से निभाई है, ससुराल में भी सबसे अच्छा व्यवहार रखा, लेकिन इन सबके पीछे यदि मेरा मॉरल सपोर्ट न होता, तो क्या खाक कर पाती वह? मॉरल सपोर्ट शायद उपयुक्त शब्द नहीं है, फिर भी अगर मैं हमेशा उसकी तानाशाही के आगे समर्पण न करता रहता और दूसरे पतियों की तरह उस पर हुक्म गांठता, तो निकल गई होती उसकी सारी हेकड़ी... लगभग 45 वर्ष के वैवाहिक जीवन में ऐसे मौ़के भी कम नहीं आए, जब वह महीनों बिसूरती रही, “मेरी तो क़िस्मत फूट गई, जो तुम्हारे पल्ले पड़ गई, कोई सुख नहीं मिला... बच्चों की ख़ातिर घर में पड़ी हूं, वरना कब का ज़हर खा लेती...” वगैरह-वगैरह.
बीच में तो वह 3-4 बार महीनों के लिए गहरे अवसाद में जा चुकी है. हालांकि इधर जब से उसने कीमो थेरेपी न कराने का तय कर लिया था और आराम से घर पर रहकर मृत्यु का स्वागत करने का निश्‍चय किया था, तब से वह मुझे बेहद फिट दिखाई दे रही थी. उसकी 5.5 इंच की धाकड़ काया ज़रूर सिकुड़ के बच्चों जैसी हो गई थी, लेकिन उसके दिमाग़ और ज़ुबान में उतनी ही तेज़ी थी, उसकी याददाश्त तो वैसे भी ग़ज़ब की थी. इस समय वह कुछ ज़्यादा ही अतीतजीवी हो गई थी. उम्र और समय की भारी-भरकम शिलाओं को ढकेलती अपनी यादों के तहखाने में से वह न जाने कौन-कौन-सी तस्वीरें निकालकर अक्सर बच्चों को दिखलाने लगती थी. उसकी नींद बहुत कम हो गई थी, उसके सिर पर हाथ रखा, तो उसने झट से पलकें खोल दीं. दोनों कोरों से दो बूंद आंसू छलक पड़े. “शिबू के लिए काजू की बर्फी ख़रीदी थी?”
“हां भई, मठरियां भी रखवा दी थीं.” मैंने उसका सिर सहलाते हुए कहा, वो आश्‍वस्त हो गई, “नर्स के आने में अभी काफ़ी समय है ना?” उसकी नज़रें मुझ पर ठहरी थीं. “हां, क्यों? कोई ज़रूरत हो तो मुझे बताओ.”
“नहीं, ज़रूरत नहीं है, बस ज़रा दरवाज़ा बंद करके तुम मेरे सिरहाने आकर बैठो.” उसने मेरा हाथ अपने सिर पर रख लिया, “मरनेवाले के सिर पर हाथ रखकर झूठ नहीं बोलते. सच बताओ तुम्हारी रानी भाभी से तुम्हारे संबंध कहां तक थे?” मुझे करंट लगा. सिर से हाथ खींच लिया.
“पागल हो गई हो क्या? अब इस समय तुम्हें ये सब क्या सूझ रहा है?” “जब नाख़ून बढ़ जाते हैं, तो नाख़ून ही काटे जाते हैं, उंगलियां नहीं... अत: अगर रिश्ते में दरार आए, तो दरार को मिटाओ, ना कि रिश्ते को... यही सोचकर चुप थी अभी तक, पर अब सच जानना चाहती हूं, सूझ तो बरसों से रहा है, बल्कि सुलग रहा है, लेकिन अभी तक मैंने ख़ुद को भ्रम का हवाला देकर बहलाए रखा. बस, अब जाते-जाते सच जानना चाहती हूं.”
“जब अभी तक बहलाया है, तो थोड़े दिन और बहलाओ. वहां ऊपर पहुंचकर सब सच-झूठ का हिसाब कर लेना.” मैंने छत की तरफ़ उंगली दिखाकर कहा. मेरी खीझ का उस पर कोई असर नहीं था. “और वो विभा... जिसे तुमने कथित रूप से घर के नीचेवाले कमरे में शरण दी थी. उससे क्या तुम्हारा देह का भी रिश्ता था?”
“छि:, तुम सठिया गई हो क्या? ये क्या अनाप-शनाप बक रही हो? कोई ज़रूरत हो, तो बताओ, वरना मैं चला.” क्षोभ और अपमान से तिलमिलाकर मैं अपने कमरे में आ गया. ऐसा नहीं है कि ये सब बातें मैंने पहली बार उसकी ज़ुबान से सुनी हैं, लेकिन अरसा हो गया. मुझे लगा था कि वो अब सब भूल-भाल गई होगी. इतने लंबे अंतराल में बेहद संजीदगी से घर-गृहस्थी के प्रति समर्पित इला ने कभी इशारे से भी कुछ ज़ाहिर नहीं किया. हद हो गई, ऐसी बीमारी और तकलीफ़ में भी खुराफ़ाती दिमाग़ कितना तेज़ काम कर रहा था. मेरे मन के सघन आकाश से विगत जीवन की स्मृतियों की वर्षा अनेक धाराओं मे होने लगी... मन विचित्र होता है, उसे जितना बांधने का प्रयत्न किया जाए, वह उतना ही स्वच्छंद होता जाता है. जो व़क्त बीत गया, वह कभी लौटकर वापस नहीं आता है, लेकिन उसकी स्मृतियां मन पर ज्यों की त्यों अंकित रह जाती हैं. रानी भाभी की नाज़ो-अदा का जादू मेरे ही सिर चढ़ा था. सत्रह-अट्ठारह की अल्हड़ और नाज़ुक उम्र में मैं उनके रूप का ग़ुलाम बन गया था. भइया की अनुपस्थिति में भाभी के दिल लगाए रखने का ज़िम्मा मेरा था. बड़े घर की लड़की के लिए इस घर में एक मैं ही था, जिससे वो अपने दिल का हाल कहतीं. भाभी थी त्रियाचरित्र की ख़ूब मंजी खिलाड़ी, अम्मा तो कई बार भाभी पर ख़ूब नाराज़ भी हुई थीं, मुझे भी कसकर लताड़ा, तो मैं भी अपराधबोध से भर उठा था.
लेकिन कॉलेज में एडमिशन लेने के बाद मैं पक्का ढीठ हो गया. अक्सर भाभी के साथ रिश्ते का फ़ायदा उठाते हुए पिक्चर और घूमना चलता रहा. इला जब ब्याह कर घर आई, तो पास-पड़ोस की तमाम महिलाओं ने उसे गुपचुप कुछ ख़बरदार किया था. साधारण रूप-रंगवाली इला भाभी के भड़कीले सौंदर्य पर भड़की थी या सुनी-सुनाई बातों पर, काफ़ी दिन तो मुझे अपनी कैफियत देते ही बीते, फिर वह आश्‍चर्यजनक रूप से बड़ी आसानी से आश्‍वस्त हो गई थी. शायद वह अपने वैवाहिक जीवन का शुभारंभ सकारात्मक सोच के साथ करना चाहती थी या कोई और वजह थी, पता नहीं. पर भाभी जब भी घर आतीं, तो इला एकदम चौकन्नी रहती थी. उम्र की ढलान पर पहुंचती भाभी के लटके-झटके अभी भी जवान ही थे. शायद रंभा-उर्वशी के जीन्स लेकर अवतरित हुई थीं वे? उनकी मत्स्य गंधा देह में एक ऐसा नशा था, जो किसी भी योगी का तप भंग कर सकता था, फिर मैं तो कुछ ज़्यादा ही अदना इंसान था. भइया तो संत पुरुष थे, उनकी सात्विकता के कवच को भेद पाने में असमर्थ, बेरुखी से लौटाए गए काम बाणों को शायद बेचारी भाभी इधर-उधर
ज़ाया करतीं.
ख़ैर, मैं विचारों में खोया-खोया ही सो गया. दूसरे दिन नर्स के जाते ही वह फिर ‘आह-ऊह’ करके बैठने की कोशिश करने लगी. मैंने तकिया पीछे लगा दिया.
“रामायण की सीडी लगा दूं? शांति मिलेगी.” मैं सीडी निकालने लगा.
“उसे रहने दो, अब तो कुछ दिनों के बाद शांति ही शांति है. तुम यहां आओ, मेरे पास आकर बैठो.” वह फिर से मुझे कटघरे में खड़ा होने का शाही फ़रमान सुना रही थी. “ठीक है, मैं यहीं बैठा हूं, बोलो कुछ चाहिए?” “हां, सच-सच बताओ, जब तुम विभा को दुखियारी समझकर घर लेकर आए थे और नीचे बेसमेंट में उसके रहने-खाने की व्यवस्था की थी, उससे तुम्हारा संबंध कब बन गया था? और कहां तक था?”
“फिर वही बात...? आख़िरी समय में इंसान भगवान का नाम लेता है और तुम...!” मैंने उसे देखा, “मैंने तो पूरी ज़िंदगी भगवान का नाम लेकर ही बिताई है. मेरे खाते में काफ़ी राम नाम है, उसकी चिंता मत करो.” वह फिर आंखें बंद करके हांफने लगी. वह जैसे ख़ुद से बात कर रही थी... “समझौता! कितना मामूली शब्द है, मगर कितना बड़ा तीर है, जो जीवन को चुभ जाता है, तो फांस का अनदेखा घाव-सा टीसता है. अब थक चुकी हूं जीवन जीने से भी और जीवन जीने के समझौते से भी. जिन रिश्तों में सबसे ज़्यादा गहराई होती है, वही रिश्ते मुझे सतही मिले, जिस तरह समुद्र की अथाह गहराई में तमाम रत्न छिपे होते हैं, साथ में कई जीव-जंतु भी रहते हैं, उसी तरह मेरे भीतर भी भावनाओं के बेशक़ीमती मोती भी थे और कुछ बुराइयों जैसे जीव-जंतु भी... कोई ऐसा गोताखोर नहीं था, जो उन जीव-जंतुओं से लड़ता, बचता-बचाता उन मोतियों को देखता, उनकी क़द्र करता. सबसे गहरा रिश्ता मां-बाप का होता है. मां अपने बच्चे की दिल की गहराइयों में उतरकर सब देख लेती है, लेकिन मेरे नसीब में तो वो मां भी नहीं थी, जो मुझे थोड़ा भी समझ पाती. दूसरा रिश्ता पति का था, वो भी सतही...”
“देखो, तुम्हारी सांस फूल रही है, तुम आराम करो इला.”
“वह नवंबर का महीना था शायद... रात को मेरी नींद खुली, तुम बिस्तर पर नहीं थे, सारे घर में तुम्हें देखा... नीचे से धीमी-धीमी बात करने की आवाज़ सुनाई दी. मैंने आवाज़ भी दी, मगर तब फुसफुसाहट बंद हो गई. मैं वापस बेडरूम में आई, तो तुम बिस्तर पर थे. मेरे पूछने पर तुमने बहाना बनाया कि नीचे लाइट बंद करने गया था.” “अच्छा अब बहुत हो गया, तुम इतनी बीमार हो, इसीलिए मैं तुम्हें कुछ कहना नहीं चाहता. ख़ैर... कह तो मैं पूरी ज़िंदगी कुछ नहीं पाया, लेकिन अब तो मुझे बख़्श दो.” खीझ और बेबसी से मेरा गला भर आया. उसके अंतिम दिनों को लेकर मैं दुखी हूं और ये औरत... कहां-कहां के गड़े मुर्दे उखाड़ रही है.
उस घटना को लेकर भी उसने कम जांच-पड़ताल नहीं की थी. विभा ने भी सफ़ाई दी थी कि वो अपने नन्हें शिशु को दुलार रही थी, लेकिन उसकी किसी दलील का इला पर कोई असर नहीं हुआ. उसे निकाल बाहर किया, पता नहीं वो सच कैसे सूंघ लेती थी?
“उस दिन मैं कपड़े धो रही थी, तुम मेरे पीछे बैठे थे और वो मुझसे छुपाकर तुम्हें कोई इशारा कर रही थी. जब मैंने उसे ध्यान से देखा, तो वहां से खिसक ली. मैंने पहली नज़र में ही समझ लिया था कि ये औरत ख़ूब खेली-खायी है, पचास बार तो पल्ला ढलकता है इसका, तुमको तो ख़ैर दुनिया की कोई भी औरत अपने पल्लू में बांध सकती है. याद है...मैंने तुमसे पूछा भी था, पर तुमने कोई जवाब नहीं दिया था, बल्कि मुझे यक़ीन दिलाना चाहते थे कि वो तुम्हारी इज़्ज़त करती है.”
तब शिखा ने टोका भी था, “मां, तुम्हारा ध्यान बस इन्हीं चीज़ों की तरफ़ जाता है, मुझे तो ऐसा कुछ भी नहीं दिखता.” शिखा मां की इन ठेठ औरताना बातों से चिढ़ जाती थी. “कौन कहेगा कि मेरी मां इतने खुले विचारोंवाली व पढ़ी-लिखी है?” उन दिनों मेरे दफ़्तर की सहकर्मी मिसेज़ शर्मा को लेकर जब उसने कोसना शुरू किया, तो भी शिखा बहुत चिढ़ गई थी, “मेरे पापा हैं ही इतने डीसेंट और हैंडसम कि कोई भी उनसे बात करना चाहेगी.”
मुझे उसके सामने जाने से भी डर लगने लगा था. मन हुआ कि शिखा को एक बार फिर बुला लूं, लेकिन उसकी भी नौकरी है और पति-बच्चे, सब मैनेज करना कितना मुश्किल है. दोपहर में खाना खिलाकर उसे लिटाया, तो उसने फिर मेरा हाथ थाम लिया, “तुमने मुझे बताया नहीं. देखो, अब तो मेरा आख़िरी समय आ गया है, अब तो मुझे धोखे में मत रखो, सच-सच बता दो.”
“मेरी समझ में नहीं आ रहा है पूरी ज़िंदगी बीत गई है, अब तक तो तुमने इस तरह जिरह नहीं की, इतना दबाव नहीं डाला मुझ पर, फिर अब क्यों?”
“इसलिए कि मैं स्वयं को धोखे में रखना चाहती थी. अगर तुमने दबाव में आकर कभी कंफेस कर लिया होता, तो मुझे तुमसे नफ़रत हो जाती, लेकिन मैं तुम्हें प्रेम करना चाहती थी, तुम्हें खोना नहीं चाहती थी, मैं तुम्हारे बच्चों की मां थी, तुम्हारे साथ अपनी पूरी ज़िंदगी बिताना चाहती थी, तुम्हारे ग़ुस्से को, तुम्हारी अवहेलना को मैंने अपने प्रेम का हिस्सा बना लिया था, इसीलिए मैंने कभी सच जानने के लिए इतना प्रेशर नहीं डाला. सब टालती रही, फिर ये भी समझ गई कि प्रेम यदि किसी से होता है, तो सदा के लिए होता है, वरना नहीं होता. लेकिन अब तो मेरी सारी इच्छाएं पूरी हो गई हैं, कोई ख़्वाहिश बाकी नहीं रही. फिर सीने पर ये धोखे का बोझ लेकर क्यों जाऊं...? मरना है तो हल्की होकर मरूं... तुम्हें मुक्त करके जा रही हूं, तो मुझे भी तो शांति मिलनी चाहिए ना? अब तो मैं तुम्हें माफ़ भी कर सकती हूं, जो शायद पहले बिल्कुल न कर पाती.”
ओफ्फ़...! राहत की एक लंबी गहरी सांस... तो इन सबके लिए अब ये मुझे माफ़ कर सकती है. वो अक्सर गर्व से कहती थी कि उसकी छठी इंद्रिय बहुत शक्तिशाली है. खोजी कुत्ते की तरह वह अपराधी का पता लगा ही लेती है, लेकिन ढलती उम्र और बीमारी की वजह से उसने अपनी छठी इंद्रिय को आस्था और विश्‍वास का ऐनिस्थिसिया देकर बेहोश कर दिया था या कहीं बूढ़े शेर को घास खाते हुए देख लिया होगा. इसी से मैं आज बच गया.
विश्‍वास की रेशमी पवित्र चादर में इत्मीनान से लिपटी जब वह अपने बच्चों की दुनिया में मां और नानी की भूमिका में आकंठ डूबी हुई थी, उन्हीं दिनों मेरी ज़िंदगी में बहुत गहराई तक समाई बीथिका के बारे में उसे कुछ भी पता नहीं... अब इस मुक़ाम पर मैं उससे कैसे कहता कि मुझे लगता है ये दुनिया दो हिस्सों में बंटी हुई है, एक त्याग की दुनिया है और दूसरी धोखे की. जितनी देर किसी में हिम्मत होती है, वह धोखा दिए जाता है और धोखा खाए जाता है और जब हिम्मत चुक जाती है, तो वह सब कुछ त्याग कर एक तरफ़ हटकर खड़ा हो जाता है. मिलता उस तरफ़ भी कुछ नहीं है, मिलता इस तरफ़ भी कुछ नहीं है. मेरी स्थिति ठीक उसी बरगद की तरह थी, जो अपनी अनेक जड़ों से ज़मीन से जुड़ा रहता है, अपनी जगह अटल, अचल.
कैसे कभी-कभी एक अनाम रिश्ता इतना धारदार हो जाता है कि वो बरसों से पल रहे नामधारी रिश्ते को लहूलुहान कर जाता है ये बात मेरी समझ से परे थी...

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         ज्योत्स्ना प्रवाह

 

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