उसके अन्दर भी कभी धूप का कतरा उतरकर उजास फैलाता है और तब वह छोटी-छोटी बातों से उत्साहित हो जाती है. कभी बहुत कुछ बरस जाता है अन्दर… बिल्कुल घनघोर बरसात जैसा. और अन्तर्मन कांपता रहता है, उस बेल की तरह. कुछ दबी-ढकी इच्छाएं, उमंगे, उम्मीदें, भावनाएं… कांपकर बरसात की बूंदों के प्रहार से झर जाते हैं.
”मम्मी, जरा अख़बार दे दो. आप बाद में पढ़ लेना…” बेटा श्रेयश शुभा के हाथ से अंग्रेज़ी का अख़बार खींचकर बाथरूम में घुस गया.
उसने हिन्दी का अख़बार उठा लिया. अभी हेडलाइन्स ही पढ़ी थी कि सौरभ सामने आ खड़े हुए.
”अरे, तुम यहां अख़बार में उलझी हुई हो, जरा एक कप चाय तो बना दो…” वे शुभा के हाथ से अख़बार लगभग छीनते हुए बोले.
”लेकिन मैं भी अख़बार पढ़ रही हूं…” उसने बोलना चाहा, पर बोला नहीं… लेकिन चेहरा और आंखें भी तो मानो दर्पण हैं, ”तुम बाद में पढ़ लेना.” सौरभ समझ कर बोले. फिर कहना चाहती थी, 'बाद में कब…?'
लेकिन वर्षों की आदत छूटती है भला. उसके लिए चाय बनाना, देश और दुनिया के हाल जानने से अधिक ज़रूरी था. तब तक बेटी शानिया भी मोबाइल में उलझी हुई सामने आकर बैठ गई. वह समाचार मोबाइल पर पढ़ रही थी.
”मम्मी, मेरे लिए काॅफी बना देना.” वह बिना प्रतिवाद के उठ खड़ी हुई, ”चाय में अदरक और तुलसी भी डाल देना…” पीछे से सौरभ की आवाज़ आई.
दिल में कई सवाल कांटों की तरह चुभ गए थे. एक अख़बार ही तो पढ़ रही थी. दो अख़बार आते हैं घर में. रविवार है आज. क्या कोई दूसरा बाद में नहीं पढ़ सकता. लेकिन बाद में उसे ही पढ़ना है और पता है उसे कि दिन छुट्टी का हो या वर्किंग… वो ‘बाद‘ कभी नहीं आता… अक्सर उसका अख़बार पढ़ना, यूं ही आधा-अधूरा सा ही रह जाता है.
”मम्मी आज गोभी के परांठे बना दो. बहुत दिनों से खाने का मन कर रहा है.” शानिया बोली.
”हां भई, रोज़ तो ऑफिस जाने की हड़बड़ी रहती है. आज ज़रा अपने हाथों का कमाल दिखा दो. हमें भी तो पता चले कि हमारे घर में भी एक बढ़िया कुक है.” सौरभ के तारीफ़ के शब्द भी उपहासजनित थे.
टेबल पर चाय की ट्रे रखते उसका पूरा वजूद छिन्न -भिन्न होकर बिखर रहा था.
चेहरा विवर्ण हो गया था, लेकिन यह सब देखने की फ़ुर्सत किसे थी. तीनों अपनी गप्पों में मस्त थे. वह तीनों को ऑफिस की बातें करते, देश-दुनिया की समस्यायों पर चर्चा करते, मुंह बाये चुपचाप सुन रही थी. इस दृश्य के पात्र कल कुछ बदलेंगे. शानिया विवाह करके जाएगी और बहू आ जाएगी, पर दृश्य नहीं बदलेगा.
वह वापस किचन में आकर नाश्ते के इंतजाम में लग गई. पता नहीं दिल में क्या खदबदा रहा था, क्या उमड़ने को बेचैन था… क्या जमा था… क्या बरस रहा था. कैसा कीचड़ जमा था… जो जमते-जमते वर्षों से दलदल बन गया था, जिसमें कई उम्मीदें, विचार, भावनाएं, शौक, रुचियां, उत्साह… धंसते चले गए थे. अब कितना भी हाथ पकड़कर ऊपर खींचने की कोशिश करती है ख़ुद को, पर दलदल में और गहरे धंसती चली जाती है, क्योंकि बाहर कोई मज़बूत सहारा नहीं है, जो उसे उस दलदल से बाहर खींच सके. बल्कि हर कोई उस दलदल में कुछ और बढ़ोतरी कर देता है और वह उसमें थोड़ा और धंस जाती है…
एकाएक उसकी आंखों के सामने सब कुछ धुंधला-सा गया.
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‘नहीं, वह रो थोड़े न रही है.. रोने जैसा तो कुछ है ही नहीं… सब कुछ तो है, ख़ुशी का पैमाना नापने के लिए… हां यह बात दीगर है कि उसका स्वयं का कुछ नहीं… यहां तक कि कोई दुख भी नहीं… सुख या दुख जो भी मिलते हैं… वे सब बच्चों या पति के हैं… उन्हीं की उपलब्धियों पर ख़ुश होना है और उन्हीं की असफलताओं पर दुखी…
मन की गति बहुत तीव्र होती है, क्षणांश में ही कहीं का कहीं पहुंच जाता है. किताबें, पढ़ाई, इम्तिहान, बेस्ट स्टूडेंट, गायकी, वाद-विवाद प्रतियोगिता में कई बार ट्रॉफी… यह सब तो उस दलदल में कहीं बहुत नीचे दबकर दम तोड़ चुके थे.
चार भाई-बहन में वह सबसे बड़ी, उसके पीछे दो भाई और फिर सबसे छोटी बहन, सबकी बेहद लाडली. सबकी ज़िद्द से छोटी बहन को शहर के प्रसिद्ध काॅनवेंट स्कूल में प्रवेश दिला दिया गया.
”मां, मुझे क्यों नहीं पढ़ाया उस स्कूल में… भाइयों को भी अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ाया…” एक दिन वह अपने दिल में कुलबुलाता हुआ सवाल मां के सामने कह बैठी.
”कैसी बात कर रही है तू. कितनी छोटी है तुझसे. लगभग 8-9 साल. तेरे ज़माने में इतना ज़रूरी नहीं था…”
”मेरा ज़माना..? पर भाई… वे तो ज़्यादा छोटे नहीं हैं..?”
”अरे, उन्हें पढ़ाना तो ज़रूरी है… नौकरी करनी है उन्हें. अंग्रेज़ी नहीं आएगी ठीक से, तो हर जगह पीछे रह जाएंगे…”
”और मुझे आगे नहीं बढ़ना है क्या..?”
”मेरा दिमाग़ मत ख़राब कर… जा किचन में जा. सब्ज़ी चढ़ी है. देख, पकी या नहीं…”
मां ने उसका सवाल अनुत्तरित ही छोड़ दिया था. वह काॅलेज के फाइनल इयर में थी और छोटी बहन तब 13-14 साल की थी.
”शुभा आज तू काॅलेज की छुट्टी कर दे. तेरी मां की तबीयत ठीक नहीं. वे अकेले कैसे रहेंगी घर पर…”
”लेकिन पापा मेरा इंपौर्टेंन्ट प्रैक्टिकल है…रूचि से या विभव, रूपम से कहिए…”
”उनकी छुट्टी नहीं कर सकते…अंग्रेज़ी स्कूलों की पढ़ाई है न…”
”लेकिन मेरा फाइनल इयर है.”
”अरे तो एक दिन से क्या फर्क़ पड़ जाएगा.”
”बहुत कुछ…” वह कहना चाहती थी. यह एक दिन की बात नहीं थी. उसकी पढ़ाई किसी के लिए भी अधिक मायने नहीं रखती थी. बस, उसकी ख़ुद की लगन ही उसकी शिक्षा की लौ को जलाए हुए थी.
घर में कुछ भी होता. कोई भी आता-जाता. मां को कभी मायके, कभी रिश्तेदारी, कभी शादी-ब्याह में जाना होता, तो उसे स्कूल, काॅलेज की छुट्टी कर, भाई-बहन को संभालना पड़ता. छोटे-छोटे हाथों से किचन में खाना बनाती, पर जब छोटी बहन उस उम्र में पहुंची, तो वह छोटी नहीं, बल्कि नाज़ुक हो गई थी. ‘वह कहां कर पाएगी.‘
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वह मां की गृहस्थी में हमेशा स्टेपनी बनी रही. ‘स्टेपनी?‘ सोचते-सोचते एकाएक वह चौंक गई. कितना सटीक है उसके लिए यह शब्द. मायके क्या ससुराल में भी तो स्टेपनी ही बनी रही और उसके स्टेपनी बनी रहने की नियति अभी तक न छूटी.
परांठे बनाते-बनाते वह खिड़की के पार देखने लगी. घूप का कतरा सामने की दीवार पर बैठा अपने होने की उपस्थिति दर्ज कराने लगा था. थोड़ी देर में पूरी दीवार पर फैल जाएगा. जब बरसात आती है, तो सामने की दीवार की बेल हरी-भरी होकर, बारिश की मार से थरथराती रहती है.
उसके अन्दर भी कभी धूप का कतरा उतरकर उजास फैलाता है और तब वह छोटी-छोटी बातों से उत्साहित हो जाती है. कभी बहुत कुछ बरस जाता है अन्दर… बिल्कुल घनघोर बरसात जैसा. और अन्तर्मन कांपता रहता है, उस बेल की तरह. कुछ दबी-ढकी इच्छाएं, उमंगे, उम्मीदें, भावनाएं… कांपकर बरसात की बूंदों के प्रहार से झर जाते हैं.
बरसात के बाद जब फिर धूप का कतरा, स्वच्छ ह्रदयाकाश पर टंगता है, तो वह उन झड़ी हुई इच्छाओं, उमंगों, उम्मीदों, भावनाओं को फिर बेल पर टांगने लगती है. अभी शेष नहीं हुआ जीवन, बहुत कुछ शेष है अभी.
”अरे भई, कहां खोई हो. नाश्ता तैयार हुआ या नहीं…” तीनों डाइनिंग टेबल पर बैठे नाश्ते की सरगम गा रहे थे. वह एक-एक करके गरम परांठे देने लगी. सामने की दीवार पर बैठे उस धूप के कतरे के बढ़ते आकार को अनदेखा कर, अपने अन्दर के दलदल से बचते हुए, बेमौसम की बरसात से ख़ुद को बचाते हुए.
तीनों को खिलाकर वह अपनी प्लेट लेकर टेबल पर आ गई. लेकिन तब तक तीनों नाश्ता ख़त्म कर उठ खड़े हो गए. परांठें के साथ उलझी वह फिर ख़्यालों में घिरने लगी. विवाह से पहले उसकी जाॅब लग गई थी. पापा ने रिश्ता तय अपनी मर्ज़ी से कर दिया. उसे तो बस देखने-दिखाने की औपचारिकता पूरी करनी थी. लड़के की जाॅब पूना में थी.
”मां तुम्हें पता है, मेरी जाॅब यहां है… फिर यहीं कोई लड़का तलाश करते…”
”क्यों करनी है नौकरी. लड़के की अच्छी नौकरी है. नौकरी के साथ घर कहां संभलता है.”
”पर मैं संभाल लूंगी मां… कितनी मेहनत से पढ़ाई की है मैंने…” कैसे कहे कि ‘कितनी बार स्टेपनी बनी तुम्हारी गृहस्थी में… कितनी बार सबने हाशिये पर रखी मेरी पढ़ाई. मेरी इतनी मेहनत बेकार मत करो.'
”तू बेकार की बात मत कर… इतना अच्छा रिश्ता कोई इतनी-सी बात के लिए छोड़ता है क्या… तेरी ससुरालवाले तैयार होंगे, तो वहीं कुछ देख लेना.”
”कुछ और ‘बहुत कुछ‘ में फ़र्क होता है मां…” लेकिन उसकी किसी ने न सुनी और वह संयुक्त परिवार की बड़ी बहू बनकर पूना आ गई. साथ में अपनी उमंगों, उम्मीदों, इच्छाओं व भावनाओं की गठरी भी साथ उठा लाई एक गांठ लगाकर. शायद… क्योंकि अभी तो सभी कुछ शेष था जीवन में.
लेकिन सामने ज़िम्मेदारियों का पहाड़ था. स्कूल-काॅलेज में पढ़नेवाले सौरभ के छोटे भाई-बहन, माता-पिता, सास ने थोड़ा-बहुत साथ देना चाहा, पर सौरभ का फ़ैसला सपाट था.
”मुझे घर में रोज़-रोज़ की टेन्शन नहीं चाहिए… मैंने तुम्हारे घर में यह बात पहले ही साफ़ कर दी थी कि मुझे नौकरीपेशावाली लड़की नहीं चाहिए…”
उसने अपनी गठरी में एक और गांठ लगा दी. किसी ने उससे पूछने की ज़रूरत भी नहीं समझी, पर स्टेपनी की ज़रूरत व कद्र तो तब होती है, जब उसे ज़रूरत पर फिट होना होता है. 6-7 सालों में सौरभ के भाई-बहन थोड़े और बड़े हो गए. दोनों देवर जाॅब में आ गए और ननद शादी के लायक हो गई.
उसके ख़ुद के बच्चे बहुत छोटे थे. फिर दोनों देवरों के विवाह हो गए और ननद विवाह होकर चली गई. दोनों बच्चे थोड़े और बड़े हो गए. इसी बीच ससुरजी दुनिया से अलविदा कह गए. उसका मन फिर कुलबुलाने लगा था. अब थोड़ा समय मिल जाएगा. दिल किया, उस गठरी की गांठे खोल दे, देखे तो सही, अब क्या बचा है वहां, अब क्या किया जा सकता है.
कुछ नहीं, तो किसी स्कूल में टीचिंग या घर पर ट्यूशन… लेकिन सासू मां की तबीयत ख़राब रहने लगी. दोनों देवरानियां नौकरी करती थी. जब तक वे ठीक रहीं, अपने नन्हें बच्चों की परवरिश के लिए, वे उनको मान-मनुहार कर मान-सम्मान के साथ अपने पास ले जातीं और महीनों आने न देतीं.
लेकिन अस्वस्थ सास उनकी व्यस्त दिनचर्या में एक बैरियर की तरह थी, इसलिए वह एक बार फिर स्टेपनी बन गई और अपनी उस गठरी में एक और गांठ लगा दी. सास दुनिया से चली गईं, तो वह अनायास ही पूरे परिवार द्वारा, बड़ी बहू होने के नाते, उनकी जगह पर, बिना उसकी इच्छा के आसीन कर दी गई. एक ही शहर में रहनेवाले पूरे परिवार में सुख-दुख, आना-जाना, रिश्तेदारी निभाना… ज़रूरी, ग़ैरज़रूरी जो भी हो, तो ‘शुभा भाभी है न‘… बाकियों की तो नौकरी थी. वह हर बार स्टेपनी बनती चली गई और उसकी उस गठरी पर गांठें पड़ती चली गईं.
वह जब-जब अपनी गठरी की गांठें खोलने की कोशिश करती. उसके आसपास मौजूद उसके अपने बहुत प्यार से उस पर एक और गांठ लगवा देते, और वह उस दलदल में उस गठरी को डुबोती चली जाती.
वह न जाने कब से खाली प्लेट को घूरे चली जा रही थी, ”अरे परांठा तो ख़त्म हो गया, अब क्या प्लेट को भी खाने का इरादा है..” सौरभ सामने खड़े उसे आश्चर्य से घूर रहे थे.
”ओह!” अपने ही ख़्यालों में डूबी वह एकाएक चिहुंक गई. सौरभ के चेहरे के आश्चर्य को दरकिनार कर वह प्लेट उठाकर किचन में चली गई. स्टेपनी भी धीरे-धीरे घिसने लगती है, पर गाहे-बगाहे काम आती है. इसलिए उसका महत्व बहुत ज़रूरत की घड़ी पर ही पता चलता है. शेष समय तो वह अनदेखी ही रहती है. आज ह्रदय जैसे उसकी सुन ही नहीं रहा था. वर्षों के बनाए तटबंध तोड़ने को व्याकुल हो रहा था. उसके बिना घर एक दिन भी नहीं चल सकता. इतनी बड़ी ज़रूरत घर की… और उसकी सारी ज़रूरत, बेज़रूरत… आज दिल कर रहा था, उस दलदल का सारा कीचड़ उलटकर बाहर कर दे. कुछ जानकारी नहीं उसे… कहने को ही हाई एजुकेटेड है.. टेबल पर अकेले खाना है. उसकी नाॅलेज इतना आत्मविश्वास नहीं रखती कि घर के बाकि तीन सदस्यों के वार्तालाप का हिस्सा बन पाए.
तभी सौरभ ख़ुशी से उमगते किचन में आ गए, अरे शुभा.. कहां हो भई… न जाने हरदम किचन में घुसकर क्या करती रहती हो? अरे लड़की +वालों का काॅल आया है… लव मैरिज में भी जन्मपत्री पर बात अटका रखी थी इतने दिनों से… लेकिन लड़की की ज़िद्द पर अब तैयार हो गए हैं… श्रेयश तो बहुत ख़ुश हो गया… कितने दिनों से अपसेट था…”
”अच्छा?” पलभर के लिए ख़ुशी दौड़ गई उसके शरीर में… किचन से बाहर आई. दोनों भाई-बहन मीठी नोक-झोंक में उलझे हुए थे.
”भाई, अपनी होनेवाली बीवी को बोलना… नौकरी छोड़कर आए और किचन में अच्छी बहू की तरह खाना बनाए…” शानिया भाई को छेड़ रही थी.
”तू जाएगी नौकरी छोड़कर ससुराल?”
”मैं क्यों छोड़ूगी… तेरी बीवी छोड़ेगी… तेरे लिए खाना कौन बनाएगा…?”
”और तेरे पति के लिए खाना कौन बनाएगा…?”
”वो ख़ुद बनाएगा… और मेरे लिए भी…”
"अरे भई, कोई खाना नहीं बनाएगा… और न नौकरी छोड़ेगा… हमारी बहू आएगी, तो उसकी मां है न यहां खाना बनाने के लिए…घर जैसा चल रहा है, वैसा चलता रहेगा… आजकल बहुओं से कोई काम कराता है क्या… अपनी इतनी अच्छी नौकरी छोड़कर वह किचन में खाना बनाएगी..?”
सौरभ उदार ह्रदय से बोलकर टांगे पसारकर सोफे पर बैठ जाते हैं. बच्चों की मन की बात हो जाती है. श्रेयश पिता के उदारवादी दृष्टीकोण का कायल हो जाता है.
अब वह कुछ बोलेगी तो पुराने ज़माने की घिसे-पिटे विचारोंवाली सास कहलाएगी. सोचकर, गठरी पर कई गांठें एक साथ लगाकर, दलदल में अन्दर तक डुबोकर, वह किचन में लंच की तैयारी में जुट गई.
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