सन्तोष झांझी Short Story
“कभी झगड़ा नहीं होता तुम तीनों में?”
“ऊंह...” उसने हंसते हुए इंकार में सिर हिलाया.
“झेगड़ा नेई... बहुत परेम... झगड़ा कैनो? नेई झगड़ा नेई...”
“पति कभी-कभी मारता भी होगा?” नंदिनी ने कुरेदा. वह मुंह पर हाथ रख चीखी, “ओ बाबा... ना... ना... एकदम ना...” बाई के जाने के बाद नंदिनी दिनभर सोच में डूबी रही.short story
प्रिया ने नंदिनी के बेड के पास चाय का कप रखा, “उठो नंदिनी चाय ले लो, पहली चाय तो पड़ी-पड़ी ठंडी हो गई... क्या घोड़े बेचकर सोई हो यार? लगता है घर पर जीजाजी बहुत परेशान करते हैं. आज ही मौक़ा मिला है तुम्हें सोने का.” सुप्रिया ने नंदिनी को गुदगुदा दिया. वह उठ कर बैठ गई. दरअसल, वह सुबह-सुबह चाय नहीं पीती. पर वह कुछ नहीं बोली. फीकी मुस्कान के साथ उसने चाय का कप उठा लिया. वह सुप्रिया को क्या बताए कि क्यों इतनी देर तक सोती रही? कल से उसने कुछ भी तो नहीं बताया सुप्रिया को. फिर क्या बताए? कैसे बताए? “तुम नहा लो तो ब्रेकफ़ास्ट एक साथ कर लेते हैं. लंच तो तुम्हें अकेले ही करना होगा. कामवाली बाई आ जाएगी, वह तुम्हारे लिए गरम-गरम रोटी सेंक देगी. बाकी सब मैं पका कर जा रही हूं.” “मैं दिनभर घर में बैठे क्या करूंगी? मैं ख़ुद बना लेती. तूने क्यों तकलीफ़ की?” “मैं भी ऑफ़िस टिफिन लेकर जाती हूं न... और जब से राजीव ट्रेनिंग पर गए हैं, कुछ भी ढंग का पकाने की इच्छा ही नहीं होती. आज तुम्हारे बहाने से बनाया है, तुम्हारा मनपसंद खाना-आलू-मेथी, दही वड़े, पापड़ की सब्ज़ी... और तुम्हारी पसंद की खट्टी हरी मिर्च भी बनाई है.” सुप्रिया बोली. “सुबह-सुबह इतना कुछ बना लिया? कितने बजे से उठकर ये सब किया तुमने?” नंदिनी हैरानी से बोली. “एक घंटे में सब हो गया. चलो, जल्दी जाओ नहाने, ब्रेकफ़ास्ट तैयार है.” सुप्रिया के ऑफ़िस जाने के बाद नंदिनी पेपर की हेडलाइन देखने लगी. मन उचाट हो गया तो मैगज़ीन के पन्ने पलटती रही, पर पढ़ा एक अक्षर भी नहीं. थोड़ी देर के लिए टीवी ऑन किया तो वही रोना-धोना सास-बहू के सीरियल्स. वह बड़बड़ाई, “ऊंह कितना खींचते हैं कहानी को.” उसने टीवी बंद कर दिया. सफ़ाई करने वाली बाई वहीं से बोली, “एम्मे, एम्मे बाई देखिबो, बंदो केन करो?” उसे कुछ भी समझ नहीं आया कि वह क्या कह रही है. “क्या हुआ?” बाई टीवी की तरफ़ इशारा कर बोली, “चलाइया दिऊअनि देखिम.” नंदिनी उसकी भाषा सुनकर मुस्कुराई. उड़िया भाषा है, पर हिंदी बोलने की कोशिश में उसकी अपनी भाषा भी गड़बड़ा गई थी. मोबाइल में प्रकाश का मैसेज था, “तुम कहां हो?” कल से तीन बार वह मैसेज भेज चुका था. लेकिन वह बार-बार पढ़कर मोबाइल बंद कर देती है. वह उसे कोई जवाब नहीं देना चाहती, न कोई बात करना चाहती है. खाना खाकर उसकी झपकी लगी थी कि मोबाइल बजा. प्रकाश था, “कहां हो नंदिनी? सब परेशान हैं. कुछ बोलो तो सही. आख़िर बात क्या है? प्रभा से कोई बात हुई? विकास ने कुछ कहा..? इस तरह बिना बताए... तुम...” उसने मोबाइल बंद कर दिया. वह कोई बात नहीं करना चाहती. किसी को कुछ बताना भी नहीं चाहती. बेकार की जगहंसाई क्यों हो...? इस उम्र में ये सब कहना, झगड़ना अच्छा नहीं लगता. इतनी उम्र गुज़ार दी साथ-साथ, अब वह सब... वहां रहती तो हो सकता था किसी दिन ज्वालामुखी फूट ही पड़ता, इसलिए सुप्रिया के पास चली आई. प्रभा से कह आई थी कि कुछ दिन के लिए अपनी सहेली के पास रहने जा रही हूं, लेकिन नाम-पता गोल कर गई थी. शाम को दोनों सहेलियां गप्पे मार रही थीं. सुप्रिया बोली, “नंदिनी, मैं दो-चार दिन के लिए जबलपुर मनु के पास जा रही हूं. पहला बर्थडे है उसकी बेटी का. तुम आराम से रहना. आजकल कॉलोनी में चोरियां बहुत हो रही हैं. तुम रहोगी तो घर की चिंता नहीं रहेगी.” “तू निश्चिंत होकर जा, मैं हूं न...” वह उठकर बैठते हुए बोली. “मैं शायद न भी जाती, पर तुम्हें तो मालूम है, बचपन से ही मनु ज़रा पज़ेसिव है, सास क्या सोचेगी...? वगैरह-वगैरह... गले की चेन ले जा रही हूं.” नंदिनी चुपचाप मुस्कुराते हुए सुनती रही... एक नकली मुस्कुराहट. कितना कष्टकर होता है ऐसे ज़बर्दस्ती चेहरे पर मुस्कुराहट चिपकाए रहना, ताकि सामने वाला व्यक्ति यह सोचे कि वह उसकी बात को सुन और समझ कर मुस्कुरा रहा है, लेकिन सुप्रिया तो सुप्रिया है. उसे धोखा देना इतना आसान नहीं है, इसलिए उसे धोखे में रखने के लिए नंदिनी को कड़ी मेहनत करनी पड़ रही थी, पर सुप्रिया उठते-उठते उसकी सारी मेहनत पर पानी फेर कर चली गई. “मैंने क्या कहा, मुझे पता है तुमने नहीं सुना. तुम तो यहां हो ही नहीं. मेकअप की तरह चेहरे पर मुस्कुराहट लगाए बैठी हो, बस...” नंदिनी झेंपकर रह गई. कुछ कह नहीं पाई. सुप्रिया, नंदिनी की सुविधाओं का सारा इंतज़ाम कर जबलपुर चली गई. कामवाली बाई अपनी बेटी के साथ सारे घरों का काम ख़त्म कर रात को उसके पास आकर सोएगी, ऐसा बता गई. सुप्रिया के जाते ही उसे यह अकेला-सूना घर बहुत पराया और अजीब-सा लग रहा था. अपना घर, सभी लोग... एक-एक बातें याद आती चली गयीं... प्रकाश को समय पर प्रभा ने खाना दिया होगा कि नहीं... अब उन्हें सिगरेट के लिए कौन टोकेगा? ख़ूब पी रहे होंगे. चाय और सिगरेट- बस, यही तो है सारे फसाद की जड़... “अम्मा सोआ नेई... चाय पीगी.” उसकी भाषा सुन, वह अब सचमुच मुस्कुरा दी. बाई की बेटी टीवी के सामने ऊकडू बैठी थी. फैशन और टीवी की शौक़ीन, बड़ी-बड़ी आंखोंवाली गोल-मटोल लड़की. “तुम्हारा नाम क्या है?” नंदिनी ने पूछा. उसने शरमाकर मुंह छिपा लिया, “मैं चाह बनेगी (मैं चाय बनाती हूं)” कहकर हंसती हुई किचन में चली गई. “अपने लिए भी बना लेना.” उसने पीछे से आवाज़ दी. चाय लेकर आने पर उसने फिर अपना प्रश्न दोहराया, “नाम तो बताओ अपना.” मां-बेटी दोनों हंसने लगीं. अजीब बात है, नाम नहीं बतातीं, मुंह पर हाथ रख हंसती हैं. शायद विचित्र-सा कोई नाम होगा. बताने में शर्म आती होगी. “कितने बच्चे हैं?” “तीन लरकी है. हमेरा एक लरका हुआ, मर गया, फिर नेई हुआ. मेरा मामा का लरकी को हाम दोसरा बोऊ बनाया. ऐ तीन लरकी दोसरा बोऊ का है. एक का सादी हो गिया, ए बछर दोसरा हूंगा.” “तुमने ख़ुद अपने पति की दूसरी शादी की?” “हां, बाच्चा चाही... एहीसे अपना मामा का लरकी को दोसरा बोऊ बानाया. बाच्चा तो जोरूरी...” उसकी पूरी बात का अर्थ यह निकला कि उसका एक बेटा दो साल का होकर मर गया. डॉक्टर ने बताया, तुम्हें और बच्चा नहीं हो सकता. गृहस्थी चलानी थी, तो अपने मामा की लड़की को अपने पति से ब्याह कर ले आई. उससे तीन बेटियां हैं. एक की शादी हो गई, दूसरी की शादी दो महीने बाद होगी. यह छोटी लड़की है. नंदिनी हैरानी से हंसती-गुनगुनाती हुई काम करती बाई को देख रही थी. कांच की चूड़ियों से भरे हाथ, बिंदी-सिंदूर लगाए माथा, नाक में तीन-तीन सोने के जेवर पहने, तनावरहित, खिलखिलाते चेहरे को देख वह हैरान थी. नंदिनी ने फिर कहा, “अच्छा अपना नाम तो बता, पुकारने में मुश्किल होती है.” वह हंसते-हंसते बोली, “मुक नाम लसमी की मां.” “लसमी की मां? ये क्या नाम हुआ?” “सच्ची बाई मुं नाम लसमी की मां.” यह कहते-कहते वह खाली कप उठाकर किचन की तरफ़ चल दी. लसमी की मां और उसकी ममेरी बहन, जो अब उसकी सौत है, दोनों कई घरों में काम करती हैं. पति बंगलों में माली का काम करता है. दोनों औरतें अपनी कमाई हर महीने पति के हाथ पर रख देती हैं. पति ही दोनों के लिए एक जैसी चूड़ियां, बिंदिया और कपड़े लाकर देता है. “कभी झगड़ा नहीं होता तुम तीनों में?” “ऊंह...” उसने हंसते हुए इंकार में सिर हिलाया. “झेगड़ा नेई... बहुत परेम... झगड़ा कैनो? नेई झगड़ा नेई...” “पति कभी-कभी मारता भी होगा?” नंदिनी ने कुरेदा. वह मुंह पर हाथ रख चीखी, “ओ बाबा... ना... ना... एकदम ना...” बाई के जाने के बाद नंदिनी दिनभर सोच में डूबी रही. बच्चे अपनी कोख से पैदा नहीं हुए, लेकिन उनकी मां कहलाने में ही वह इतनी ख़ुश है कि अपने नाम की भी अब उसे कोई ज़रूरत नहीं रही, अन्यथा कोई नाम तो अवश्य होगा उसका. पढ़ाई-लिखाई और अधिक जागरूक होना ही क्या संवेदना और एकाधिकार में वृद्धि करता है? तो क्या फ़ायदा है पढ़ने-लिखने का, अगर हम आपस में झगड़ते ही रहें, हमेशा तनाव में रहें? अधिक उन्नति, अधिक समझ, संपन्नता, अधिक एज्युकेशन ही सारे तनाव की जड़ है. ‘मेरे-तेरे’ और अधिकारों की लड़ाई में उलझकर हम न जी रहे हैं और न दूसरों को जीने दे रहे हैं. अपने ईगो में ही तने रहते हैं हम. कई घर तो इस ईगो ने ही तोड़े हैं, अपने अस्तित्व को बचाते-बचाते ही कई तबाह हो गए, टूट गए. कभी-कभी लगता ज़रूर है कि अस्तित्व बच गया, पर और कितना कुछ ऐसा होता है, जो छूट जाता है. मैं भी कैसी पागल हूं, इतनी-सी बात पर यहां चली आई. सभी को परेशान किया और ख़ुद भी परेशान हुई. इस उम्र में अगर प्रकाश से रीता लिपट ही गई तो क्या हुआ. पैंतीस साल विदेश में अपनों से दूर रहने के बाद अगर अचानक कोई कॉलेज का साथी मिल गया और भावनाओं में आकर उसे गले लगाकर चूम लिया तो क्या हुआ? इसमें प्रकाश की भूल बस इतनी थी कि हैरानी और ख़ुशी में उसने भी अपनी बांहें आगे बढ़ा दीं. उसके कोट पर रीता की लिपस्टिक का निशान ह़फ़्ते भर उसे मुंह चिढ़ाता रहा, इसलिए वह ग़ुस्से और दुख से भरी सुप्रिया के पास चली आई. प्रकाश तो जीवनभर मेरे रहे. जीवनभर मेरे प्रति निष्ठावान और प्रेमी पति बने रहे. अब वह कहां जा सकते हैं? उसे प्रकाश एकदम निरीह नज़र आने लगे. उन्होंने कोई अपराध नहीं किया, इसलिए कोई अपराधबोध भी नहीं. उन्हें मेरा इस तरह बिना बताए चले आना भी इसलिए समझ में नहीं आया. इतने दिनों बाद मिले तो एक बार मारे ख़ुशी के लिपट गए, अब हमेशा तो लिपटते नहीं रहेंगे. उसके बाद घर भी आई थी रीता, तब तो नहीं लिपटी प्रकाश से. बस कॉलेज की बातें याद कर हंसते रहे दोनों. और नंदिनी उस दिन भी कुडुक मुर्गी-सी बैठी कुड़कुड़ाती रही. छी:, अब नंदिनी को अपनी सोच पर शर्म आ रही थी. मुझसे अधिक समझदार तो लसमी की मां है. उस अनपढ़ औरत से आज मैंने बहुत कुछ सीखा. इसमें शर्म कैसी? किसी भी उम्र में किसी से भी कुछ नया सीखा जा सकता है- ‘थैंक्यू लसमी की मां.’ आज तक उसने सुप्रिया को कुछ नहीं बताया. सुप्रिया का फ़ोन आया था, वह कल सुबह पहुंच रही है. नंदिनी ने अपना सामान समेटना शुरू कर दिया. फ़ोन बजा, तो वह समझ गई कि फ़ोन प्रकाश का होगा. “हैलो नंदिनी, आई मिस यू डार्लिंग, कहां हो तुम?” “तुम मुझे मिस करो, इसलिए तो नागपुर सुप्रिया के पास चली आई. कल शाम की गाड़ी से पहुंच रही हूं.” यह सुनकर ख़ुशी से प्रकाश के चेहरे पर जो उजास फैला, वह यहां इतनी दूर भी नंदिनी की आंखों और चेहरे को दीप्त कर गया.अधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें - SHORT STORIES
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