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कहानी- ठूंठ (Short Story- Thoonth)

 
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“वर्षों बीत गए. विष्णु शहर गया तो फिर लौटा ही नहीं, कभी-कभार उसका मनीऑर्डर आ जाता. पर मनुष्य का पेट ऐसा तो है नहीं कि बरस-छह महीने पश्‍चात् जब साधन जुटे तभी खा ले और जीता रहे. वृद्ध और शक्तिहीन मां छोटे-मोटे काम करके और आधा पेट खाकर जीती रही. इसी उम्मीद में कि कभी उसका बेटा आएगा और उसे संग ले जाएगा...”
  इन दिनों कल्याणी अपना अधिक समय बिस्तर पर लेटे-लेटे ही बिताती है. न ही वह अस्वस्थ है और न ही विशेष बूढ़ी, पर न जाने कैसी शिथिलता ने आ घेरा है उसे? अभी कुछ समय पूर्व तक तो एकदम चुस्त-दुरुस्त हुआ करती थी. अकेली सफ़र पर भी चली जाती. कभी किसी के घर शादी में जाना है, तो कभी-किसी के यहां शोक में. अब तो बस इतनी ही हिम्मत बटोर पाती है कि खिड़की के पास रखी आराम कुर्सी पर जा बैठे. छोटी-सी इस खिड़की से बाहर का बहुत कुछ दिखाई देता है. गेट के बाहर सड़क का कुछ हिस्सा, अपना छोटा-सा लॉन, लॉन के कोने में लगा पेड़. कभी यह पेड़ ख़ूब घना और हरा-भरा हुआ करता था और पूरे लॉन पर छाया रहता था. भरी दोपहरी में भी इसकी ठंडी छांव में आराम से बैठा व लेटा जा सकता था. अनेक क़िस्म के पक्षियों का घर था यह. पर इधर कुछ दिनों से यह सूखता ही जा रहा है. कल्याणी को बहुत लगाव है इस पेड़ से. जब तक सांझ ढले अमर-सोनाली काम से लौट नहीं आते, वह इसी से बातें करती रहती है और इसीलिए वह अधिक दुखी है इसके अकारण और असमय सूख जाने से. वह जब भी खिड़की के पास आकर बैठती है, अतीत की एक और खिड़की भी साथ ही खुल जाती है और उसे लॉन में नन्हा तुषार खेलता-कूदता नज़र आने लगता है. कभी गेंद के पीछे भागता, कभी पेड़ पर चढ़ता. कैसे भरे-पूरे दिन हुआ करते थे वे. अपने पोते के साथ. बहू सोनाली जॉब करती थी. उसका लगभग पूरा दिन ही बाहर निकल जाता. जब तुषार दो माह का था, तभी से उसे कल्याणी ने ही पाला है. खाना खिलाना, नहलाना-सुलाना सभी कुछ और तभी उसे अपने पोते से इतना लगाव भी है. कई बार तुषार गोदी में ही सोने की ज़िद करता, तो वह घंटों बैठी रहती उसे गोदी में लिए हुए. फिर उसने गिरते-पड़ते चलना शुरू कर दिया, घर भर में घूमता-फिरता. वह आगे-आगे और कल्याणी पीछे-पीछे. वह थक जाती, तो उसे अपने पास बुलाकर कहती, “आ, मैं तुझे कोई कहानी सुनाऊं.” तुषार को कहानियां सुनने में रस आने लगा. स्कूल जाना शुरू किया, तब भी लौटते ही तुरंत खा-पीकर दादी की गोद में सिर रख कहता, “कहानी सुनाओ न दादी.” वह कभी उसे पुरानी सुनी-सुनाई कहानियां सुनाती तो कभी कल्पनाओं से बुनकर. एक पुरानी लोककथा ‘विष्णु का पेड़’, जो दादी ने स्वयं अपने बचपन में सुन रखी थी, तुषार को बहुत प्रिय थी और वह प्रायः दादी से वही कहानी सुनाने की ज़िद करता. “विष्णु का पिता उसके जन्म के तुरंत बाद जो शहर गया, तो फिर लौट कर ही नहीं आया. दो वर्ष तक तो उसके मनीऑर्डर आते रहे, फिर वह भी बंद हो गए. कोई नहीं जानता उसका क्या हुआ. सब अपनी-अपनी अटकलें लगाते. भूसे से सूई ढूंढ़ना आसान है, पर दिल्ली जैसे महानगर में एक दिहाड़ी मज़दूर का अता-पता पाना बहुत मुश्किल है. विष्णु की मां खेतों में काम कर अपना और अपने नन्हें बच्चे का पेट पालने लगी. दूध पीकर जब वह सो जाता, तो उसकी मां पेड़ से झड़े पत्तों को इकट्ठा कर उस पर एक फटी चादर का टुकड़ा बिछा, एक गुदगुदा बिस्तर तैयार कर लेती और उस पर अपने बच्चे को सुला देती. नन्हा विष्णु मज़े से सोया रहता और मां काम करती व बीच-बीच में आकर उसे देख जाती. रोज़ का यही नियम. सेब के पेड़ को उस बच्चे से गहरी ममता हो गई. गर्मी के दिनों में वह अपनी कोमल टहनियां हिलाकर उस पर पंखा करता. सर्दियों में टहनियां हटा उसके बदन पर धूप आने देता. बच्चा थोड़ा बड़ा हुआ तो इधर-उधर खेलकर फिर उसी पेड़ के नीचे आ बैठता. कभी उसका तना पकड़ उसके चारों ओर घूमता, कभी टहनियों से लटक जाता. उसकी मां खाने के लिए वहीं कुछ रख जाती थी. पेड़ भी प्रायः कोई पका सेब टपका उसे उपहार स्वरूप देता. इतने वर्षों से पेड़ अकेला खड़ा था. नन्हें साथी को पा वह भी तेज़ी से बढ़ने लगा. ख़ूब फलने-फूलने लगा. रातभर का बिछोह भी उसे उदास कर जाता और वह सुबह का इंतज़ार करने लगता. विष्णु स्कूल जाने लगा तो स्कूल से सीधे वहीं आता, जहां मां उसके लिए पहले से ही खाना रख जाती थी. वह कुछ देर खेलकर वहीं पेड़ के नीचे सो जाता...” कहानी धीरे-धीरे किश्तों में ही आगे बढ़ रही थी. थोड़ी-सी कहानी सुनने के पश्‍चात् तुषार को नींद आने लगती और अक्सर पिछला हिस्सा भी दोहराना पड़ता. कल्याणी पूरी तरह से अपने पोते में रमी अपना बचपन उसमें दोबारा जी रही थी. अमर और सोनाली भी अपने बेटे का बहुत ध्यान रखते थे. ऑफ़िस से लौटकर सोनाली बेटे की पूरी ज़िम्मेदारी निभाती और जब वह रसोई में व्यस्त होती, तो अमर उसके साथ खेलता. छुट्टी के दिन फुटबॉल और क्रिकेट चलता. कभी कल्याणी कहती भी, “तुम लोग पूरा हफ़्ता काम करते हो, छुट्टी के दिन कहीं घूम आओ. फ़िल्म देखनी है तो देख आओ. तुषार तो वैसे भी मेरे संग घुला-मिला है.” लेकिन सोनाली कहती, “नहीं मां, फ़िल्म तो फिर कभी भी देखी जा सकती है, पर तुषार का गया बचपन फिर नहीं लौटेगा. काम पर तो जाना ज़रूरी है, सो चली जाती हूं.” छोटी-छोटी नौकरियां थीं दोनों की, जिनमें काम अधिक था और वेतन कम. पर दोनों जी जान से जुटे थे अपने इकलौते बेटे का जीवन संवारने में. उन्होंने अपने सामर्थ्य से बढ़कर अच्छे स्कूल में दाख़िला दिलाया था उसे, ताकि उसे आगे की प्रतियोगिताओं में दिक़्क़तें न आएं. स्कूल से लौटकर तुषार अपनी दादी से स्कूल की ढेर सारी बातें करता. अपने दोस्तों की, अपने टीचरों की. बातें करते-करते उनींदा होने लगता तो कहता, “कहानी सुनाओ न दादी, वही विष्णु और पेड़ वाली.” और यूं कहानी आगे बढ़ने लगती. “विष्णु स्कूल तो जाने लगा, लेकिन न तो स्कूल में ढंग का कोई मास्टर था, न ही विष्णु का पढ़ाई में मन लगता. शिक्षा के नाम पर तो उसे कुछ हासिल नहीं हुआ. हां, आवारा क़िस्म के कुछ साथी अवश्य मिल गए, जो स्कूल के नाम पर घर से तो निकलते थे, पर दिनभर गलियों में गिल्ली-डंडा, कंचे आदि खेलते रहते. कभी-कभी दूसरे गांव जाकर फ़िल्म भी देख आते. इसी फ़िल्म ने विष्णु को शहर की चकाचौंध से अवगत कराया और उसे भी शहर जाने की धुन सवार हो गई. वह भी पिता की तरह शहर जाकर काम करना चाहता था बिना यह जाने कि वहां पिता का क्या हश्र हुआ...” पर तुषार पढ़ाई में होशियार था. शाम को उसके पापा ख़ुद उसे पढ़ाते. उसने बारहवीं अच्छेे नंबरों से पास कर लिया, पर सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज में दाख़िला मुश्किल था, तो पापा ने अपने प्रोविडेंट फंड से पैसे निकलवा कर उसका दाख़िला दूसरे शहर में एक अच्छे प्राइवेट कॉलेज में करवा दिया और उसे आश्‍वासन दिया, “पैसों के कारण उसकी पढ़ाई नहीं रुकेगी और वह जब तक चाहे, पढ़ सकता है.” कॉलेज खुलने में अभी पंद्रह दिन शेष थे. कपड़े सिलवाने का काम चल रहा था. मन ही मन सभी उदास थे, पर तुषार के भविष्य की सोचकर जी कड़ा किए थे. जाने से दो दिन पूर्व एकदम बचपन के दिनों की तरह तुषार दादी की गोद में सिर रखकर बोला, “फिर आगे क्या हुआ दादी, बताओ तो.” कल्याणी ने कहानी आगे बढ़ाई, “विष्णु अब सोलह बरस का हो चुका था और शहर जाने के लिए ज़िद कर रहा था. कहता था कि हर माह वहां से मां को पैसे भेजेगा. परंतु जाने से पहले किराए-भाड़े के लिए पैसे चाहिए थे. वहां काम मिलने तक खाने के लिए पैसे चाहिए थे. वह जानता था कि मां के पास कुछ नहीं है. वह आकर पेड़ के नीचे उदास बैठ गया. पेड़ ने अपनी टहनियां हिलाकर ठंडी हवा की. फिर स्नेह से पूछा, “क्यों उदास हो नन्हें साथी? मुझे बताओ, शायद मैं कुछ मदद कर सकूं.” तुषार पहली बार बात काटते हुए बोला, “दादी, पेड़ कैसे बोल सकता है?” “पेड़ हमारी तरह भले ही बतिया न सकते हों, पर उनमें भी गहरी संवेदनाएं होती हैं. पशु, पक्षी, पेड़, पौधे सब में होती हैं. प्यार समझते हैं वे. दर्द महसूस कर सकते हैं और कितने निस्वार्थी होते हैं- सोचो तो. धरती से जल और शक्ति ग्रहण कर पेड़ अपना प्रत्येक अंग दूसरों को अर्पण कर देते हैं. पत्ते, फल-फूल, लकड़ी सभी कुछ. बैठने को ठंडी छाया, पक्षियों के रहने की जगह अलग से. इस पर भी हम मनुष्य स्वयं पर गर्व करते हैं, सोचते हैं कि हम सर्वोपरि हैं. और फिर यह तो कहानी मात्र है न. अपने बाल सखा का दर्द कैसे न समझता वह वयस्क पेड़? उसकी सहानुभूति पा विष्णु ने अपनी समस्या कह सुनाई, “शहर जाना चाहता हूं, पर धन का जुगाड़ नहीं कर पा रहा.” “मेरे सारे सेब तोड़कर बाज़ार में बेच डालो और उस धन से शहर चले जाओ.” पेड़ ने कहा, “पर जाने से पहले वचन दो कि मां को पैसे भेजोगे.” विष्णु ने वचन दिया. बड़ा पेड़ था. सेबों का ढेर लग गया, जिन्हें बेचकर विष्णु शहर चला गया...” कॉलेज के क़रीब हॉस्टल में रहकर तुषार अपनी पढ़ाई करने लगा. छुट्टियों में घर आता भी तो मोटी-मोटी क़िताबें संग लेकर. पढ़ते-पढ़ते जब कभी तुषार थक जाता तो दादी के पास आ बैठता. गोदी में सिर रख लेता. दादी उसके बालों में अपनी उंगलियों से हल्के-हल्के मालिश करते हुए आगे की कहानी सुनाती- वही विष्णु की कहानी. “वर्षों बीत गए. विष्णु शहर गया तो फिर लौटा ही नहीं, कभी-कभार उसका मनीऑर्डर आ जाता. पर मनुष्य का पेट ऐसा तो है नहीं कि बरस-छह महीने पश्‍चात् जब साधन जुटे तभी खा ले और जीता रहे. वृद्ध और शक्तिहीन मां छोटे-मोटे काम करके और आधा पेट खाकर जीती रही. इसी उम्मीद में कि कभी उसका बेटा आएगा और उसे संग ले जाएगा...” कहानी सुनते-सुनते तुषार सो जाता, तो दादी तकिए पर उसका सिर टिका उठ जाती. तुषार की मेहनत सफल हुई. वह इंजीनियर बन गया. पर आगे की पढ़ाई के लिए वह दो वर्ष के लिए विदेश जाना चाहता था. अमर और सोनाली बहुत दुविधा में पड़ गए. सलाह-मशविरा किया. अमर को रिटायरमेंट के समय मिली राशि और सोनाली की कुछ जमा-पूंजी मिलाकर भी तुषार के विदेश जाने का इंतज़ाम नहीं हो पा रहा था, तो कुछ कर्ज़ लेना पड़ा. अमर ने तय किया कि दूसरी नौकरी तलाश कर वह कर्ज़ चुकता कर लेगा. सोनाली के रिटायरमेंट में अभी पांच वर्ष बाकी थे. घर ख़र्च उससे चलता रहेगा. पहले दाख़िले, फिर वीज़ा-पासपोर्ट के लिए भागदौड़ चलती रही. तुषार ऊपर से कितना भी बहादुर बनने की कोशिश करे, पर दादी अपने पोते के चेहरे पर तनाव स्पष्ट देख रही थी. उसका बहुत मन करता पुराने दिनों की तरह तुषार उसकी गोदी में सिर रखकर उससे बातें करे. कहानी सुनाने का आग्रह करे, पर इतना समय ही कहां था तुषार के पास? और उसके जाने का दिन भी आ गया. जाते समय सोनाली ने अपनी एकमात्र सोने की चेन गले से उतारकर बेटे के गले में पहना दी, यह सोचकर कि कभी मुश्किल के समय काम आ सकती है, बेटे से बढ़कर तो नहीं होते न गहने. कल्याणी बैठे-बैठे ही अपने कल्पना संसार में पहुंच जाती है. शायद हम सबके पास ही अपनी-अपनी एक टाइम मशीन होती है, जिसमें बैठकर हम अपनी इच्छानुसार बीते समय और आनेवाले के बीच घूमते रहते हैं. दादी स्पष्ट देखने लगती है कि नन्हा तुषार उसकी गोदी में सिर रख लेटा है और कह रहा है, ‘आगे क्या हुआ दादी, बोलो न’ और कल्याणी अपनी कल्पना में यह कहानी न जाने कितनी बार दुहरा चुकी है- “विष्णु लौटा एक दिन, थका-हारा, जवानी में बुढ़ा-सा गया. मन के तारों से जुड़ा न होता, तो शायद पेड़ पहचान ही न पाता उसे. अपने किए पर शर्मिंदा विष्णु देर तक पेड़ के नीचे सिर झुकाए बैठा रहा. बुज़ुर्ग पेड़ का दिल पिघला और उसने अपने पुराने साथी का हालचाल पूछा. उदासी का कारण जानना चाहा. शहर में जुए की लत लग गई थी. आसान लगा था धन कमाना. यह न सोचा कि ऐसा धन जब डूबता है, तो सब कुछ बरबाद कर जाता है. जिन मित्रों से उधार लेकर चुकता नहीं कर पाया था, उनसे छुपता-छुपाता विष्णु अपने गांव लौटा था. मां का हाल देख दुखी था, पर करता क्या? थोड़े से रुपयों का जुगाड़ ही हो पाता, तो कोई छोटा-मोटा धंधा शुरू कर लेता. पेड़ को उस पर फिर ममता उमड़ आई. उसने सुझाव दिया, “तुम मुझे काटकर लकड़ी बाज़ार में बेच दो. उससे जितने पैसे मिलें, उससे अपना धंधा शुरू करो.” थोड़ी-सी आनाकानी के पश्‍चात् विष्णु मान गया. उसने सारा पेड़ काट डाला. बस ठूंठ खड़ा रहा. लकड़ी का सौदा कर वह दूसरे शहर चला गया. मां को वचन देकर कि इस बार वह बुरी संगत से दूर रहेगा और शीघ्र ही वापस आकर मां को भी अपने संग ले जाएगा. बातें तो बड़ी-बड़ी कर गया था बेटा, पर बरसों बीत गए लौट कर नहीं आया. मां का चूल्हा कभी जलता, तो कभी नहीं. प्रायः वह उस ठूंठ के पास जा बैठती अपना दर्द बांटने. बिना बोले एक-दूसरे का दुख समझते थे वेे दोनों. जानते थे, दोनों ही एक-दूसरे की सहायता करने में असमर्थ हैं, पर पास बैठकर बहुत सुकून मिलता था. दो वर्ष बीत गए तुषार को गए. कोर्स पूरा हो चुका था, पर वह अभी कुछ वर्ष और रहकर वहां नौकरी करना चाह रहा है. उसे विदेश बहुत भा गया. वह अक्सर कहता, “आप सब भी यहीं चले आओ.” नहीं समझता कि छोटी पौध तो स्थान बदलकर फल-फूल लेती है, पर अनेक जड़ों द्वारा अपनी धरती से जुड़े वट वृक्ष नहीं. अमर और सोनाली कर्ज़ चुकाने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं. अपने भविष्य का इंतज़ाम भी करना है उन्हें. मन ही मन जानते हैं कि बेटे का लौटना मुश्किल है. कइयों को तो ऐसा करते देखा-सुना है. इस संभावना से समझौता करना ही कठिन लग रहा है, लेकिन करना तो होगा ही. बस, कल्याणी इसी विश्‍वास को सीने से चिपकाए बैठी है कि तुषार लौटेगा एक दिन और यही विश्‍वास उसे जीवित भी रखे हुए है. अकेली बैठी प्रायः वह स्वयं से बातें करती रहती है. अनेक प्रश्‍न हैं उसके मन में. कभी पूछती है- “मां-बाप भी पेड़ों के जैसे होते हैं क्या? या फिर वह फल तोड़ लेने की, वह लक़ड़ी काट लेने की आवाज़ पेड़ के भीतर से आती थी अथवा निज स्वार्थ में डूबे विष्णु के अपने ही मन से?...”
Usha-Wadhwa
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                       उषा वधवा
 

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