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कहानी- … और मौन बोल पड़ा (Story- Aur Maun Bol Pada)

कहानी- ... और मौन बोल पड़ा प्रेम तो कृष्ण ने किया था राधा से. उन्हें प्रेम दिया, उनसे कुछ लिया नहीं. जाते-जाते अपनी प्राणप्रिया बांसुरी भी दे दी, किसी से कुछ लिया नहीं. किसी से बिना कुछ लिए उसे केवल अपना देने की भावना ही प्रेम है, इसलिए तुम्हें ये बताकर मैंने कभी तुम्हारा प्रेम पाने की कोशिश नहीं की. बस, यही माना कि तुम जहां भी रहो, जिसके भी साथ रहो, उसको ख़ुश रखो और ख़ुद भी ख़ुश रहो. तुम्हारे प्रति मेरा यही भाव प्रेम है, शाश्‍वत प्रेम. शाम हो चुकी है. सब लोग घरों को लौट रहे हैं, अपने काम से बोझिल होकर थक-हारकर ठीक इसी सूरज की तरह. देखो तो, कितना बोझिल लग रहा है. शाम होने तक इसका तेज भी ख़त्म हो जाता है और इसका चेहरा भी आम लोगों की तरह बुझा-बुझा-सा लगता है. ग़ौर करो तो प्रकृति हर एक इशारे से अपने होने का एहसास कराती है. इन्हीं इशारों को इंसानी भाषा में समय और कालचक्र की गति के ताने-बानों से बुनकर हम ‘परिस्थितियों’ का नाम देते हैं. इन्हीं परिस्थितियों के योग से जो निचोड़ हमें मिलता है, उसे ‘अनुभव’ कहा जाता है. कहते हैं कि ढलते सूरज को नहीं देखना चाहिए, इससे मन-मस्तिष्क तथा याद्दाश्त पर बुरा प्रभाव पड़ता है. पर मैं कैसे मान लूं? मुझे तो इसे देखकर वो सब याद आ जाता है, जो मुझे याद ही नहीं... आज अपनी बहुत पुरानी दोस्त की याद आ गई. ‘अनुभूति’ यही नाम था उसका, पर शायद ही कोई ऐसा पल रहा होगा, जब मैंने उसे उसके पूरे नाम से पुकारा हो. मैं हमेशा उसे ‘अनु’ ही बुलाया करता था. मेरी इस आदत से प्रभावित होकर वह भी मेरा पूरा नाम ‘सारथी’ न कहकर मुझे ‘सार’ ही बुलाती थी. हम दोनों इस बात पर एकमत थे कि जो हमें सबसे प्यारा और हमारे लिए सबसे अलग हो, उसका नामकरण हमें ख़ुद करना चाहिए. हिंदी मीडियम के स्कूल से निकलकर पहली बार इंग्लिश मीडियम के बच्चों के बीच बड़ा अजीब महसूस कर रहा था. कक्षा में पहले दिन तीन लड़के अपनी-अपनी अमीरी का बखान कर रहे थे और मैं कोने में दबा-कुचला-सा बैठा था, तब वह पहली लड़की थी, जिसने मुझसे दोस्ती की पहल की थी. फिर धीरे-धीरे और भी बच्चे आने लगे और मेरी दोस्ती स्कूल में लगभग सभी से हो गई. चाहे वो मुझसे बड़ी क्लास के हों या छोटी क्लास के, सभी मेरे दोस्त बन गए, लेकिन स्कूल में लड़कियों से अधिक बात करनेवाले लड़कों की हमेशा खिंचाई होती थी, इसलिए मैं अनु से ज़्यादा बातचीत नहीं करता था. थोड़ा अंतर्मुखी भी था. फिर भी मैं उसकी बड़ी फ़िक्र करता, उस पर ध्यान देता. उसकी हर चीज़ मुझे अच्छी लगती. मां के सामने तो मैं खुली क़िताब था. उनसे आज तक मैंने कुछ नहीं छिपाया ‘कुछ भी नहीं’, जो शायद एक उम्र के बाद बच्चे मां-बाप से छुपाते हैं, पर मैं नहीं छुपाता था. इसी वजह से मेरा मार्गदर्शन बड़े ही सुरक्षित हाथों में हुआ. उन्होंने बताया कि इस उम्र में हर लड़की को लड़के और लड़के को लड़कियां बहुत अच्छी लगती हैं. अब मेरा व्यवहार अनु के प्रति और भी सावधानीभरा हो चुका था. अब मैंने अपने मन पर नियंत्रण रखना शुरू कर दिया. अब उसकी हर हरकत, जिससे मैं प्रभावित होता, तुरंत मन-मस्तिष्क के तराजू पर तौलकर परखा करता कि यह वास्तविक प्रेम के कारण हो रहा है या केवल आकर्षण है. इस तरह की आध्यात्मिक और चिंतनवाली गूढ़ बातें दोस्तों के बीच करने के कारण वो मुझे ‘साधू’ या ‘बाबा’ कहकर मेरा मज़ाक उड़ाते थे, क्योंकि वो इन बातों को समझ ही नहीं पाते थे या शायद मैं ही उनसे पहले परिपक्व हो गया था. ख़ैर, कुछ समय बाद मैंने स्कूल छोड़ दिया और फिर दोबारा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा या फिर यूं कहना ज़्यादा बेहतर होगा कि सब कुछ इतना जल्दी और एकाएक छूटा कि पीछे मुड़कर देखने का समय ही नहीं मिला. 13 साल बाद पापा के एक मित्र के घर पार्टी के दौरान क़िस्मत ने मेरा और अनुभूति का सामना करा दिया. हम दोनों के बीच कई सालों की दूरी आ चुकी थी. अनुभूति मेरे सामने थी, पर क़दम थे कि उठ ही नहीं रहे थे. दो क़दम के फासलों की दूरी को चलकर मिटाना कितना मुश्किल होता है, इसे आज मैंने जाना. औपचारिकता का निर्वाह करने के लिए शुरू से ही मैं मशहूर रहा हूं. आख़िरकार हमारे औपचारिकताविहीन संबंधों को औपचारिकता की बैसाखी का सहारा लेना ही पड़ा. “कैसी हो अनुभूति?” मैंने पूछा. उसकी वाचालता आज भी वैसी ही थी, बस छेड़ने भर की देरी थी, “मैं तो ठीक हूं मि. गायब! जी हां, गायब, स्कूल क्या छोड़ा, शहर ही छोड़ दिया. न कोई फोन, न कोई बातचीत, न मिलना-जुलना, न कोई खोज-ख़बर. ज़िंदा भी हो या नहीं, कुछ नहीं पता. ऐसे गायब हुए, जैसे कभी मिले ही नहीं और ये अनुभूति-अनुभूति क्या लगा रखा है. मेरा नाम भूल गए क्या, जो तुमने मुझे दिया था.” कहानी- ... और मौन बोल पड़ा मेरी स्थिति इतनी अजीब थी कि क्या बताऊं, सालों बाद वही अंदाज़. ख़ुशी तो बहुत हुई, पर तुरंत दिल से एक गंभीर आवाज़ आई. ‘सावधान सारथी! ये वही आवाज़ है, जिसे तूने इतने सालों तक दबाए रखा है. यह आवाज़ वो चाबी है, जिसे अपने दिल के ताले से दूर रखना, नहीं तो सारे राज़ खुल जाने का ख़तरा हो सकता है.’ इससे पहले कि मैं कुछ कहता मेरी पत्नी भूमिजा आ गई. मैंने मिलवाने के लिए कहा, “अनु, ये मेरी पत्नी भूमिजा है. एक पुराने दोस्त के साथ एक नया साथी फ्री.” अनु ने हाज़िरजवाब दिया, “हां, वैसे भी अब तुम पुराने हो चुके हो और दुनिया हमेशा उगते सूरज को ही सलाम करती है.” इस पर हम सब खिलखिलाकर हंस पड़े. “ओह! तो आप हैं अनुभूति. इन्होंने कई बार आपके बारे में बताया है. यक़ीन मानिए, आपको देखकर कितनी ख़ुशी हो रही है, ये स़िर्फ मैं और सारथी ही जान सकते हैं.” तब मैंने पहली बार महसूस किया कि मेरी चंचल अनु अब परिपक्व हो चुकी है, तभी तो उसने शरमाकर मुस्कुरा भर दिया, कुछ कहा नहीं, लेकिन उस मुस्कुराहट के पीछे छिपी खिलखिलाहट वाली हंसी मैंने सुन ही ली. तभी पीछे से उसकी आंखें अपने हाथों से ढंकते हुए एक शख़्स ने लड़की की आवाज़ में कहा, “पहचान कौन?” अनु ने झट से कहा, “आवाज़ से भले ही धोखा खा जाऊं, पर तुम्हारे स्पर्श की अनुभूति मुझे धोखा नहीं दे पाएगी मि. स्पर्श खन्ना.” यह उसके पति थे, मुझे समझने में देर नहीं लगी. अनु ने स्पर्श से मेरा परिचय कराया. “तो आप हैं मि. सारथी, आपके बारे में बहुत कुछ सुना है अनुभूति से.” मुझे स्पर्श के इन शब्दों और उसके स्पर्श में एक पुरुष के चोटिल अहं का अनुभव हुआ. शायद मेरी तारीफ़ में अनु ने स्पर्श को मेरे सामने एक अनजाने प्रतिद्वंद्वी के रूप में खड़ा कर दिया था. कुछ कह नहीं सकता था, क्योंकि यह मेरी उनसे पहली मुलाक़ात ही तो थी. फिर भी मैंने उन्हें छेड़कर कहा, “वाह! क्या बात है स्पर्श+अनुभूति=स्पर्शानुभूति.” स्पर्श स़िर्फ मुस्कुराए, पर अनु तो शुरू ही हो गई, “पता है स्कूल के दिनों में सार हम दोस्तों में मशहूर था. किसी का भी नाम संधि-विच्छेद करके ख़ूबसूरत करने और उसका कूड़ा करने में व उसकी टांग खींचने में भी अव्वल. मुझे इसकी ये आदत बहुत अच्छी लगती थी, तुम आज भी नहीं बदले सार.” हमारी बातों को स्पर्श और भूमिजा दोनों ही सुन रहे थे, लेकिन भूमिजा उस वार्तालाप में रस ले रही थी, जबकि स्पर्श की आंखों में मैंने कुछ उलझन महसूस की. वह एक इंजीनियर था और मैं एक सायकियाट्रिस्ट, इसलिए कुछ देर अपने-अपने क्षेत्र के बारे में बातचीत होती रही, पर मैंने देखा वो मुझसे खुल नहीं पा रहा था. अब मुझे उसका मनोविज्ञान थोड़ा-थोड़ा समझ में आने लगा था. कुछ दिन तक हम मिलते-जुलते रहे. हमारी दोस्ती में फिर से वही रंग भर गए, जो पहले थे. एक दिन अनु ने शिकायत की, “तुम तो जैसे मुझसे सारे रिश्ते ही तोड़कर चले गए. मैंने सोचा कि अब हम कभी नहीं मिलेंगे. बस, एक आस थी.” मैंने कहा, “तुम्हें तो आस थी कि हम फिर मिलेंगे, पर मैं तो निश्‍चिंत था कि अब हम ज़िंदगी में दोबारा कभी नहीं मिलेंगे.” अनु की प्रश्‍नवाचक दृष्टि को पढ़ने में मुझे अधिक समय नहीं लगा. मैंने कहा, “सच तो ये है कि अब तक अप्रत्यक्ष रूप से मैं तुमसे भाग रहा था, क्योंकि एक सच जो आज मैं तुम्हें बताने की स्थिति में आ गया हूं, कल तक नहीं था. पहले तुम्हारे सवाल का जवाब- मैं छोड़कर चला गया था, तुमसे रिश्ता तोड़कर नहीं.” अनु ने कहा, “तोड़ा या छोड़ा, बात तो एक ही है.” मैंने प्रतिवाद किया, “नहीं, तोड़ने और छोड़ने में बहुत फ़र्क़ है. टूटे रिश्ते जुड़ते नहीं और अगर जुड़ भी गए, तो उनमें गांठें पड़ जाती हैं, पर छोड़े हुए रिश्ते उस टीवी सीरियल की तरह होते हैं, जिन्हें ज़िंदगी के किसी भी पड़ाव पर हम जहां से छोड़ देते हैं, कुछ समय बाद ज़िंदगी के किसी दूसरे पड़ाव से मिलने पर उन्हें वहीं से दोबारा शुरू कर देते हैं, जहां से हमने उन्हें छोड़ा था. इसलिए तुमसे मुलाक़ात होने पर मैंने वहीं से अपने रिश्ते की शुरुआत कर दी.” अनु आज गंभीरता से मेरी आंखों को देख रही थी, मानो वो मुझे पूरी तरह पढ़ लेना चाहती हो. “वो कौन-सा सच है, जो आज तक तुमने मुझे नहीं बताया.” अनु ने तुरंत जानना चाहा. पर आज मुझे किसी भी तरह का डर, घबराहट या किसी भी प्रकार की हिचकिचाहट महसूस नहीं हो रही थी. लग रहा था, जैसे आज मैं इन सबसे ऊपर उठ चुका हूं. स्वच्छंद और स्वतंत्र निष्कलुष हृदय का स्वामी हो चुका हूं. मैंने सहज लहज़े में इतनी बड़ी अभिव्यक्ति कर डाली, “अनु, मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं.” अनु को काटो तो ख़ून नहीं. उसे पता नहीं चला कि क्या हो गया. निस्तब्धता एवं संवेदनशून्यता की सीमा को पार कर जाने वो किस लोक में पहुंच चुकी थी, जहां उसके कान तो सुन रहे थे, परंतु संदेश अपने गंतव्य के बीच ही कहीं खोए-से लग रहे थे. उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि वो क्या कहे, क्या करे? मैंने उसकी मन:स्थिति को भांप लिया कि जिस शख़्स को वो अपना सबसे अच्छा दोस्त मानती है, वो एक आदर्श पति भी है, उसमें चारित्रिक दोष भी नहीं है, फिर ये क्या...? मैंने आगे कहना शुरू किया, “वो भी आज से नहीं, जब तुमसे पहली बार मिला था, तब से. लेकिन कभी कहा नहीं, क्योंकि मैं प्रेम और आकर्षण के बीच की बारीक रेखा के अंतर में ही उलझा रह गया था और जब उलझन से निकला, तब तक तुम अनूप से प्यार कर बैठी थी. लेकिन मैंने प्रेम का गूढ़ स्वरूप तब तक समझ लिया था, इसलिए तुम्हें उसके साथ देखकर भी ख़ुश था. तुम्हारा वो प्रेम स्थायी नहीं था, मैंने सुना तीन महीने बाद उसने तुम्हें छोड़ दिया, लेकिन मैं तुमसे इतना दूर था कि चाहकर भी तुम्हें सांत्वना देने नहीं आ सका.” थोड़ी देर रुककर मैंने फिर बोलना शुरू किया, “लेकिन तुम्हारी बदहवासी बता रही है कि तुमने प्रेम का मूल अर्थ आज तक जाना ही नहीं है, नहीं तो तुम इस तरह बदहवास नहीं होती, बल्कि सहज होती. तुम प्रेम के शाब्दिक अर्थ में न जाओ, बल्कि उसके मूल अर्थ अथवा भावार्थ में जाकर उसे देखो, जो उसका वास्तविक तथा शाश्‍वत अर्थ है, तो तुम्हें भी उस प्रेम का ज्ञान हो जाएगा.” मैंने समझाना शुरू किया, “मनोविज्ञान कहता है कि प्रेम के मूल में स्वार्थ होता है, किंतु सच तो ये है कि जहां सच्चा प्रेम हो, वहां स्वार्थ का क्या काम? संसार में कामना को भी प्रेम ही कहते हैं, वह कामना उपयोगिता के कारण हो सकती है या फिर आधिपत्य के कारण भी हो सकती है. तुम केवल उस प्रेम से परिचित हो, जो सांसारिक और सात्विक है. प्रत्यक्ष शरीर के बंधनों से बंधा है. कामी पुरुष वेश्या के प्रति अपने काम-भाव को ही प्रेम मानता है. बेटे से उसकी उपयोगिता और अपेक्षा के कारण ही पिता उससे प्रेम करता है और पति का पत्नी-प्रेम मात्र अपनी पत्नी के प्रति आधिपत्य भाव ही होता है, वस्तुतः इनमें से प्रेम कोई भी नहीं है. प्रेम स्वार्थ, अपेक्षा तथा आधिपत्य से परे है, यही प्रेम का यथार्थ स्वरूप है, बल्कि मैं तो कहता हूं कि प्रेम केवल प्रेम है, शाश्‍वत प्रेम. उसे सांसारिकता या सात्विकता का जामा पहनाना भी उचित नहीं है. प्रेम तो कृष्ण ने किया था राधा से. उन्हें प्रेम दिया, उनसे कुछ लिया नहीं. जाते-जाते अपनी प्राणप्रिया बांसुरी भी दे दी, किसी से कुछ लिया नहीं. किसी से बिना कुछ लिये उसे केवल अपना देने की भावना ही प्रेम है, इसलिए तुम्हें ये बताकर मैंने कभी तुम्हारा प्रेम पाने की कोशिश नहीं की. बस, यही माना कि तुम जहां भी रहो, जिसके भी साथ रहो, उसको ख़ुश रखो और ख़ुद भी ख़ुश रहो. तुम्हारे प्रति मेरा यही भाव प्रेम है, शाश्‍वत प्रेम.” अनु की आंखें छलछला उठीं. प्रेम के गूढ़ स्वरूप को जानकर या शायद आत्मग्लानि से. मैं हर किसी की आंखों को पढ़ लेता था, लेकिन नमी की वजह से उसकी आंखों के अक्षर धुंधले पड़ गए थे, जिन्हें मैं पढ़ नहीं पा रहा था और कुछ देर बाद मैंने भी महसूस किया कि ओस की कुछ ठंडी बूंदें मेरी भी आंखों में कैद थीं, जिन्हें बहाते ही नज़ारा साफ़ दिखने लगा. अनु ने ख़ुद को संभालते हुए पूछा, “क... क... क्या भूमिजा, ये सब...?” मैंने मुस्कुराकर कहा, “हमारी जब शादी हुई, तब वो स़िर्फ मेरी पत्नी थी, पर अब वो मेरी अर्धांगिनी है, इसलिए कभी छुपाने की नौबत ही नहीं आई, तभी तो उस दिन पार्टी में तुम्हें देखकर वो मुझसे भी ज़्यादा ख़ुश हुई, बल्कि उसी के कहने पर मैं तुमसे यह सब कह पा रहा हूं.” अनु अब न हंस पा रही थी, न ही रो पा रही थी. उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि क्या करे. अंततः मुझसे लिपटकर रो पड़ी, जैसे बांध से पानी छूटने पर जलधारा अपना संयम तोड़कर अपने साथ सब कुछ बहाकर ले जाती है और अंततः समुद्र में विलय होकर ही शांत होती है. मेरी भी हिम्मत अब उसे चुप कराने की नहीं हो पा रही थी कि तभी नम आंखों से भूमिजा ने कमरे में प्रवेश किया और कहा, “तुम जब नहीं थी, तब तुम्हारे नाम की जगह खाली थी, मैं वहां नहीं बैठ सकती थी, तो मैंने सार के दिल में अपने लिए एक नई जगह बना ली और मैं ये भी जानती हूं कि मेरी जगह सार कभी किसी को नहीं बैठने देंगे, चाहे मैं रहूं या न रहूं.” अनु ने बड़ी हिम्मत जुटाकर एक प्रश्‍न और कर दिया, “इतने सालों तक कैसे छुपाकर रखा तुमने?” मैंने कहा, “अनु, समुद्र में कई सीप होते हैं, मगर मोती स़िर्फ वही सीप बना पाता है, जो बारिश की बूंदों को अपने अंदर मोती बनने तक संभाल सके...” तभी मेरी नज़र पीछे खड़े एक हाथ में अटैची और दूसरे में कोट लिए स्पर्श पर पड़ी. आश्‍चर्य से मेरी आंखें स्पर्श पर टिकी रह गईं, उसकी आंखें लाल थीं... लेकिन क्रोध से नहीं, उनमें सम्मान था, आग्रह था, संवेदना थी, पश्‍चाताप था और थे... दो आंसू, जो बहुत बोझिल थे. माहौल में उस समय कोई हलचल नहीं थी, स़िर्फ शांति और सबका मौन. वो मौन इतना गहरा था कि आज मैं उस मौन की गूंज को साफ़-साफ़ सुन पा रहा था और हम चारों ही लगभग आज उसी भाषा के माध्यम से बातें कर रहे थे. कभी-कभी मौन भी बहुत कुछ कह जाता है. बस, उसे सुनने के लिए उस मौन भाषा के ज्ञान की आवश्यकता होती है. मैंने महसूस किया कि इस मौन में भी सबके प्रति प्रेम ही था, क्योंकि कुछ लोग कहते हैं कि रिश्तों में मौन आ जाए, तो रिश्तों को खोखला कर देता है. शायद, इसीलिए इतने सालों से मैं मौन रहा, पर सालों से शांत बैठा मेरा मौन आज बोल ही पड़ा... फिर भी वह सुखद ही था.

      कुशाग्र मिश्रा

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