अगली सुबह मिनी जब ससुरजी के लिए चाय लेकर आई, तो थोड़ा चिढी हुई सी थी… मगर पिता के दिए संस्कार ऐसे थे कि कभी अपनी मर्यादा नहीं भूलती थी. वो ससुरजी को अपने प्रोग्राम के बारे में सूचित करते हुए कहने लगी, “पिताजी, जैसा आपने कहा था मैं शुक्रवार को पापा के यहां जा रही हूं. उनको बता भी दिया है. बड़े ख़ुश थे. कह रहे थे कि वसीयत बनवाने वाले हैं और संपत्ति का आधा हिस्सा मेरे नाम करना चाहते हैं, मगर मैंने साफ़ मना कर दिया. मैंने उन्हें बता दिया कि ऐसा सोचना भी मत, पिताजी बहुत नाराज़ हो जाएंगे.”
“नाराज़… मैं… क्यों?” आशाओं पर पानी फिरा देख ससुरजी हड़बड़ा गए.
“मिनी बेटा, मैं आज सोच रहा था कि तुम्हें मायके गए हुए सालभर से ज़्यादा हो गया. हम सबका ध्यान रखते-रखते, लगता है तुम अपना मायका ही भूल गई हो... तुम तो अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गई, मगर ज़रा अपने पापा की तो सोचो, उनका मन तुम्हें देखने को कितना तड़पता होगा... भले मुंह से कुछ न कहे, मगर मैं जानता हूं पिता का मन तो बेटी में ही पड़ा रहता है.”
सुबह-सुबह ससुरजी के मुंह से ये मिश्री घुले वचन सुनकर मिनी हक्की-बक्की रह गई. सोचने लगी यह आज सूरज कौन-सी दिशा में निकला है... आज तक तो ऐसा कभी नहीं हुआ था. कितना तड़पती है वह मायके जाने के लिए... मगर ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दबकर कभी निकल ही नहीं पाती.
जब सासू मां ज़िंदा थीं, तो फिर भी बच्चों की गर्मियों की छुट्टियों में चली जाया करती थी, मगर उनके जाने के बाद, तो कभी इस घर की चाकरी से फ़ुर्सत ही नहीं मिली. जब भी मायके जाने का नाम लेती हूं, तो मनीष हमेशा मान जाते हैं, मगर ससुरजी... ये ही सबसे ज़्यादा हल्ला मचाते हैं. कभी कहेंगें, "मुझसे इस उम्र में बाहर का नहीं खाया जाता, पेट ख़राब हो जाता है" जबकि मेरे से छुपकर दोस्तों के साथ ख़ूब होटलों के चक्कर लगाते हैं और शाम को वापस आकर कह देते हैं कि दिन का खाया हजम नहीं हुआ, इसलिए अब डिनर नहीं करूंगा...
अगर घर पर खाना बनाने के लिए कोई कुक लगा दूं, तो उसके खाने में दस बुराई निकालकर भरी थाली छोड़ खड़े हो जाते हैं. इन्ही के कारण तो पिछले डेढ़ साल से मायके की सूरत नहीं देख पाई, जबकि 5-6 घंटे का ही रास्ता है. पर आज ये गंगा उल्टी की दिशा में कैसे बह रही है... कुछ तो बात है.
मिनी को दाल में पक्के से काला नज़र आ रहा था, इसलिए इतना बड़ा ऑफर सुनने के बाद भी उसके चेहरे पर कोई उत्साह न देख ससुरजी ने आगे बोलना शुरू किया, “दरअसल, आज तुम्हारे पिताजी का फोन आया था. सबके हालचाल पूछ रहे थे. मैं तो उनके स्वर से ही उनकी पीड़ा समझ गया कि वे तुमसे मिलने को कितने ललायित हैं, मगर खुलकर कुछ कह नहीं पा रहे हैं. ऐसा करो, दो-चार दिन मायके रह आओ, उनको भी अच्छा लगेगा और तुम्हारा भी चेंज हो जाएगा.” यह अविश्वसनीय प्रस्ताव सुनकर मिनी जैसे बेहोश होते-होते बची.
“वो तो ठीक है पिताजी, मगर अभी बच्चों की छुट्टियां कहां हैं.”
“अरे, कौन-सा बच्चे वकालत की पढ़ाई कर रहे हैं, जो दो-चार दिन में बड़ा नुक़सान हो जाएगा... एक पांचवी में है, दूसरा दूसरी में... दो दिन की छुट्टी करा लो, शनिवार-इतवार लगाकर 4 दिन में आ जाना.” मिनी को यह उदारता अभी भी हजम नहीं हो रही थी फिर भी कुछ पूछ नहीं पाई, इसलिए वहां से चुपचाप चली आई.
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शाम को मनीष को जब बताया, तो वह भी चकित रह गए.
“पिताजी ऐसा बोल रहे हैं. मैंने तो जब भी उनसे ऐसा कुछ कहता हूं, दस बातें सुना डालते हैं, मायके में रहने का इतना शौक था, तो ब्याह ही क्यों किया था… शादी के बाद लड़की की पहली ज़िम्मेदारी ससुराल की बनती है. मायके के लिए तो वह मेहमान होती है… वगैरह…वगैरह… ऐसा करो मिनी, इससे पहले कि उनका दिमाग़ पलटे चुपचाप मायके निकल लो और मैं तो कहता हूं 2-4 दिन नहीं, बल्कि एक-दो हफ़्ते लगाकर मन भर रह आओ…” मनीष ने चुटकी ली.
शाम को सब बैठे डिनर कर रहे थे, तो ससुर ने पुनः पूछा, “तो बहू क्या सोचा तुमने?”
मिनी की बजाय मनीष ही बोल पड़े, “सोचना क्या है पिताजी आप इतना कह रहे हैं, तो चली जाएगी. मैं कल ही उसके टिकट निकलवा लूंगा.” पतिदेव की तत्परता देख मिनी मुस्कुरा उठी.
“हां.. हां.. ज़रूर जाओ बहू, सचमुच तुम्हारे पिताजी का सोचता हूं, तो बड़ा लगता है तुम्हारी माताजी के देहांत के बाद वह अकेले रह गए हैं.”
“अकेले क्यों, भैया-भाभी भी तो साथ हैं और वे पिताजी का भरपूर ध्यान रखते हैं.” मिनी को ससुरजी के कहने का तरीक़ा थोड़ा अखरा.
“हां ध्यान तो रखते हैं, मगर पिता का दिल तो बेटी में पड़ा ही होता है. मैं तो उन्हें कितनी बार बोल चुका हूं, दो-चार दिन के लिए यहां आकर बिटिया के पास भी रहा करें. हमें भी अच्छा लगेगा.” मिनी दोबारा बेहोश होते-होते बची. यह क्या हो गया आज पिताजी को… मेरे पापा जब कभी यहां पर आए और चाय-नाश्ता भी कर लिया, तो अगले 2 दिनों में ही ये यही सुनाते रहे कि शास्त्रों में तो बेटी के घर का खाने वाला नरकगामी बताया गया है. सास कुछ न कहती, मगर ससुरजी ताने मारने का कोई मौक़ा ना छोडते… कभी कहते कन्यादान के बाद कन्या मायके के लिए पराई हो जाती है. दो-चार दिन मेहमान बनकर रहती है और लौट आती है… उसका वहां कोई हक़ नहीं रहता, पर आज तो ससुरजी महानता की मूर्ति बने जा रहे हैं.
“अरे आजकल बेटा-बेटी में कुछ फ़र्क थोड़े ही है… माता-पिता पर दोनों का ही बराबर का हक़ बनता है. आजकल तो सरकार ने भी क़ानून बना दिया है कि पिता की संपत्ति में बेटा-बेटी का बराबर का हक़ है… मेरे कोई बेटी नहीं, वरना में उसे अपनी संपत्ति में हिस्सा ज़रूर देता…”
संपत्ति और हिस्से जैसे शब्द सुन मिनी को यकायक झटका लगा. पिता की संपत्ति में बेटी का हक़…आज पिताजी ये कौन-सा नया राग छेड़ रहे हैं… पापा कुछ दिनों पहले वसीयत बनवाने की बात, तो कह रहे थे… ओह! कहीं इसीलिए तो मुझ पर यह अतिरिक्त प्रेम नहीं उमड़ रहा… मेरी भावनाओं की यकायक चिंता होने लगी, मिनी थोड़ा चौकन्नी हो गई.
मनीष ने डिनर के बाद ही अगले शुक्रवार की ट्रेन की ऑनलाइन बुकिंग करा दी थी. बच्चों को जब पता चला, तो वे आज से ही पढ़ाई-लिखाई छोड़ ननिहाल की बातें करने लगे… नानू कैसे उन्हें अपने साथ बाज़ार ले जाकर मनपसंद आइसक्रीम खिलाते थे… मामी कैसे उनके लिए नई-नई डिश बनाती थी… उनके बच्चों के साथ कैसे सारा दिन धमाचौकड़ी मचती थी और मामा… वो तो उनके लिए जैसे अलादिन का जिन्न थे, वे जो-जो फ़रमाईश करते जाते, पल में हाज़िर कर देते… कोई पिक्चर देखनी हो, वीडियों गेम खेलना हो… या कहीं घूमने जाना हो… कुछ भी. सच, मिनी अपने से ज़्यादा बच्चों की ऐक्साइटमेंट देखकर ख़ुश थी. कारण जो भी हो, मगर ससुरजी के लिए उसके दिल से धन्यवाद निकल रहे थे.
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रात को फोन पर उसने पापा को अपने आने का प्रोग्राम बताया, तो वे बहुत ख़ुश हुए. कहने लगे, “आज ही तेरे ससुर साहब से सुबह बात हुई थी. सोचा नहीं था, वे तुझे इतनी जल्दी भेजने को तैयार होंगे.”
“वो तो ठीक है पापा, मगर क्या आपने उनसे कुछ और भी बात की थी… कुछ प्राॅपर्टी से संबंधित…”
“हां, कही तो थी. उन्हें बताया था कि इस सप्ताह वसीयत बनवा रहा हूं, यही आख़िरी काम बचा है, इसे निपटाकर सारी ज़िम्मेदारियों से फ्री हो जाऊंगा… अब तू आ ही रही है, तो अच्छा है, जो कुछ है, तुम दोनों के सामने आधा-आधा बांटकर चैन की सांस लूंगा.”
अब मिनी को सारा माजरा समझ आ गया कि क्यों ससुरजी उसे मायके भेजने के लिए इतने उतावले थे. वे चाहते थे कि मैं मायके जाऊं और वसीयत मेरे सामने बने, ताकि मुझे मेरा हिस्सा मिल जाए… इतने प्यार और परवाह में लपेटकर जिस तरह से उन्होंने अपनी मंशा दिखाई, उसे सोचकर ही मिनी का मन कसैला हो उठा.
वैसे पापा के पास संपत्ति के नाम पर है ही क्या, सारी जमा-पूंजी तो हमारी पढ़ाई-लिखाई और शादी पर ही लगा दी. ले देकर एक दो मंज़िला मकान है. भाई को तो पीछे से प्राॅपर्टी के नाम पर वही एक सहारा है, मैं उसमें से भी हिस्सा ले लूं..? छीः ससुरजी ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं? क्या कमी है उनके पास… दो-दो मकान हैं, एक प्लॉट है, मनीष इकलौते बेटे हैं.. फिर क्यों इतनी हाय-हाय?
अगली सुबह मिनी जब ससुरजी के लिए चाय लेकर आई, तो थोड़ा चिढी हुई सी थी… मगर पिता के दिए संस्कार ऐसे थे कि कभी अपनी मर्यादा नहीं भूलती थी. वो ससुरजी को अपने प्रोग्राम के बारे में सूचित करते हुए कहने लगी, “पिताजी, जैसा आपने कहा था मैं शुक्रवार को पापा के यहां जा रही हूं. उनको बता भी दिया है. बड़े ख़ुश थे. कह रहे थे कि वसीयत बनवाने वाले हैं और संपत्ति का आधा हिस्सा मेरे नाम करना चाहते हैं, मगर मैंने साफ़ मना कर दिया. मैंने उन्हें बता दिया कि ऐसा सोचना भी मत, पिताजी बहुत नाराज़ हो जाएंगे.”
“नाराज़… मैं… क्यों?” आशाओं पर पानी फिरा देख ससुरजी हड़बड़ा गए.
“आप ही तो कहा करते थे पिताजी, कन्यादान के बाद लड़की पराई हो जाती है, उसका मायके पर कोई हक़ नहीं रहता… अब जब कोई हक़ ही नहीं बचता, तो फिर संपत्ति में कैसे हक़ बनता है… मैंने उन्हें बता दिया कि ऐसा करने पर आपको बहुत बुरा लगेगा…”
ससुर साहब का चेहरा उतर गया, फिर बात संभालते हुए बोले, “अरे, वो सब तो पुराने चलन हैं, बेटी… आजकल यह सब कौन मानता है. आजकल तो बेटा-बेटी बराबर हैं. पहले हमें समझ नहीं थी, इसलिए ऐसा कह गए होगे.. मगर अब हमने भी ज़माने के हिसाब से चलना सीख लिया है. देखो, तुम मना मत करो. उस घर में तुम्हारा हिस्सा रहेगा, तो पिता के बाद भी तुम्हारा मायका खुला रहेगा. भाई-भाभी इज्ज़त करेंगे, वरना तो रिश्तों को बदलते देर नहीं लगती.” पिताजी बोलते जा रहे थे और मिनी भीतर ही भीतर सुलग रही थी. 'अपने हिसाब से रिश्तों की बिसात बैठाना और उसे अपने मतलब के लिए आज़माना, तो कोई आपसे सीखे पिताजी' मगर संस्कारवश चुप रही. फिर थोड़ी देर कुछ सोचकर बोली, “ठीक है पिताजी, यदि आप मानते हैं कि बेटा-बेटी दोनों का बराबर हक़ है, तो ऐसा ही सही, मैं उन्हें मना नहीं करूंगी.” सुनकर पिताजी के चेहरे पर मुस्कान दौड़ आई. आंखों में लालच के डोरे तैरने लगे. मिनी बनावटी मुस्कान लिए उठ खड़ी हुई.
कामकाजी स्त्रियों के लिए दिन गुज़रते देर नहीं लगती, दिन इधर शुरू होता है, उधर ख़त्म.. मिनी के ये 4-5 दिन इसी गति से गुज़र उस मुक़ाम पर आकर खड़े हो गए थे, जहां वह ट्रेन में बैठ गई थी. अपने मायके जाने के लिए.
जैसे-जैसे ट्रेन खेत-खलिहानो से गुज़रते हुए मायके के शहर की ओर बढ़ रही थी, मिनी का दिल बल्लियों उछलने लगा था, क्योंकि मायका किसी मकान का नाम नहीं होता… ना ही मायका किसी एक परिवार तक सीमित होता है… मायके की परिधि में तो वो पूरा शहर और उस तक जानेवाले तमाम रास्ते भी समाए होते हैं… किसी एक पर पग रखने की देर होती है, लगता है, मायके की चौखट छू ली…
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घर पहुंचकर मिनी के भईया-भाभी ने उनका ख़ूब सत्कार किया. पापा से भी भरपूर दुलार मिला. तरस गई थी इस सुख के लिए. थक गई थी, मां, बहू और पत्नी बनते हुए... कुछ दिन ही सही, उसने लाड़ली बेटी होने का पूरा लुत्फ़ उठाया. बात जब वसीयत की आई, तो उसने कुछ भी लेने से मना कर दिया. मगर भईया उसे समझाने लगे, “देख मिनी, कमी ना तेरे पास है, ना मेरे पास है. पापा का जो दिल कर रहा है, उन्हें करने दे. उन्होंने अपने दोनों बच्चों में कभी फ़र्क नहीं किया. अगर आज करेंगे, तो अपराधबोध से घिरे रहेंगे, जो उनकी सेहत के लिए अच्छा नहीं होगा. इसलिए वो जो भी देना चाहते हैं, उसे उनकी ख़ुशी के लिए, उनका आर्शीवाद समझकर रख ले.”
बहुत समझाने पर मिनी ने पापा की बात मान ली. उसने मायके से ही पिताजी को फोन पर बता दिया था कि पिताजी ने भाई की सहमति से घर में उसे भी हिस्सा दिया है और वह दो दिन बाद लौट रही है. यह ख़बर सुन उसके ससुर बहुत ख़ुश थे. अब तो बस बहू का इंतज़ार था, ताकि आकर वापस पहले की तरह घर संभाल ले.
मिनी जब घर में आई, तो ससुर अचंभित रह गए, क्योंकि दो बडे सूटकेस के साथ उसके पापा भी साथ आए थे. मनीष ने उनकी भाग-भागकर आवभगत की और उनका सामान गेस्ट रूम में रख दिया.
"बहू, समधीजी यहां किसी डाॅक्टर को दिखाने आए हैं क्या? तबियत ढ़ीली-सी लग रही है उनकी… वैसे उनका कितने दिनों का प्रोग्राम है?" ससुरजी बड़ी चतुराई से समधी के आने की वजह जानना चाह रहे थे.
“पापा तो बिल्कुल भले-चंगे हैं पिताजी. किसी को नहीं दिखाना है, न ही कहीं जाना है. दरअसल, आपने ही कहा था ना कि आज के ज़माने में बेटा-बेटी का बराबर का हक़ है , बेटियों को भी संपत्ति में बराबर का हक़ मिलना चाहिए, इसीलिए संपत्ति के साथ-साथ मैं भईया से अपने हक़ के पापा भी साथ ले आई. मेरी मायके की असली पूंजी तो वही हैं ना… मैंने भईया से कहा, 'तुमने बहुत साल पापा की सेवा कर ली, अब मेरी बारी है, इसलिए आज से पापा हमारे साथ ही रहेंगे. जैसे एक पापा का ध्यान रखती हूं, वैसे दूसरे पापा का भी रखूंगी…” कहकर आत्मविश्वास से भरी एक बेटी अपने पापा को उनका कमरा दिखाने चली गई. अब बेहोश होने की बारी उसके ससुर साहब की थी.
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