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कहानी- मोहभंग (Story- Mohbhang)

Hindi Short Story
“नहीं मम्मी, मुझे शादी-वादी नहीं करनी. ज़िंदगीभर पति और उसके परिवारवालों की जी-हुज़ूरी करो. मुझसे ये सब नहीं होगा. मुझे शादी नहीं करनी. मैं तो अपने ढंग से जैसे चाहूंगी, वैसे जीऊंगी. आप ही सोचो, कभी आप अपने मन का कर पाई हैं? दादा-दादी, पापा और हम बहन-भाइयों के लिए ही दिनभर खटती हैं. शादी से पहले कितनी अच्छी नौकरी थी आपकी, पर दादा-दादी नहीं चाहते थे कि आप नौकरी करें, वरना आज आप कितने ऊंचे पद पर होतीं.”
  आज दिसंबर की आख़िरी तारीख़ है. पुराना वर्ष अपनी खट्टी-मीठी यादों की गठरी छोड़ जाने की तैयारी में है. नया वर्ष, नई आशाएं, नई तरंगें लेकर द्वार पर खड़ा दस्तक दे रहा है. आंखें बिछाए सब उसके स्वागत के लिए बैठे हैं, पर मैं- न मन में कोई उमंग, न तरंग. हताश-निराश, रिक्त मन...दोष दूं भी तो किसे? अपने ही हाथों तो सब गंवाया है. उस दिन भी साल की आख़िरी तारीख़ थी, जब मैं आधुनिकता और नए चलन के मोह में समाज-परिवार, शादी-ब्याह को पुराने ज़माने की सड़ी-गली परंपराएं कहकर छोड़ आई थी और इस दो कमरे के फ्लैट में नीरज के साथ रहने चली आई थी. कितना समझाया था मम्मी-पापा ने, “शादी-विवाह हमारे जीवन का सबसे पवित्र बंधन है, जिसमें लड़का और लड़की जीवनभर के लिए एक अटूट बंधन में बंधकर अपना घर-संसार बसाते हैैं.” “नहीं मम्मी, मुझे शादी-वादी नहीं करनी. ज़िंदगीभर पति और उसके परिवारवालों की जी-हुज़ूरी करो. मुझसे ये सब नहीं होगा. मुझे शादी नहीं करनी. मैं तो अपने ढंग से जैसे चाहूंगी, वैसे जीऊंगी. आप ही सोचो, कभी आप अपने मन का कर पाई हैं? दादा-दादी, पापा और हम बहन-भाइयों के लिए ही दिनभर खटती हैं. शादी से पहले कितनी अच्छी नौकरी थी आपकी, पर दादा-दादी नहीं चाहते थे कि आप नौकरी करें, वरना आज आप कितने ऊंचे पद पर होतीं.” “अब वैसा नहीं है. बहुत कुछ बदल गया है, लड़कियां शादी के बाद भी नौकरी कर रही हैं, आत्मनिर्भर हैं. बराबरी का दर्जा है अब उनका. अब जी-ह़ुजूरी नहीं करनी पड़ती है उन्हें. फिर अकेले ज़िंदगी बिताना मुश्किल है. हम आज हैं, कल नहीं. बहन-भाइयों की भी अपनी-अपनी गृहस्थी हो जाएगी. फिर अपने बच्चे, अपना घर-परिवार तो हर लड़की का सपना होता है.” “घर-गृहस्थी, बच्चे मुझे नहीं चाहिए. एक बच्चे के साथ दस तरह की ज़िम्मेदारियां. अपना करियर तो चौपट हुआ समझो. फिर मम्मी, मैं अकेले थोड़े रहूंगी. नीरज के साथ रहूंगी. पिछले दो सालों से हम एक ही ऑफ़िस में काम कर रहे हैं.” “पहले क्यों नहीं बताया? नेहा! तुम हमें उसका पता बताओ. हम उसके मम्मी-पापा से तुम्हारी शादी की बातचीत कर लेते हैं.” पापा मेरी बात सुनकर बाहर आ गए थे. “नहीं पापा, आपको किसी के पास जाने की ज़रूरत नहीं है. हमने आपस में फैसला कर लिया है. ज़रूरी तो नहीं है कि साथ-साथ रहने के लिए शादी की जाए. आजकल कई लड़के-लड़कियां ऐसे रह रहे हैं. वहीं ऑफ़िस के पास हमने एक फ़्लैट लीज़ पर लिया है और आनेवाली पहली तारीख़ से हम दोनों वहीं रहेंगे. नए साल के साथ ही अपनी नई ज़िंदगी शुरू करेंगे.” यह सुनकर मम्मी का मुंह तो खुला का खुला ही रह गया, पर पापा भड़क उठेे, “यह क्या करने जा रही हो? इसका अंजाम क्या होगा, कुछ मालूम भी है? हम समाज में कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाएंगे. तुम्हारे बहन-भाइयों की शादी होनी मुश्किल हो जाएगी. फिर तुम्हारी ज़िंदगी कैसी होगी? भविष्य क्या होगा?” “बिना शादी के किसी लड़के के साथ रहनेवाली लड़की को समाज इ़ज़्ज़त की नज़र से नहीं देखता.” कहने के साथ-साथ मां फूट-फूट कर रो पड़ी थीं. “समाज क्या कहता है, इसकी परवाह मुझे नहीं है.” उसके बाद भी मम्मी-पापा ने मुझे अलग-अलग अपने पास बिठाकर समझाया था. सौरभ और गीता ने भी बहुत कहा. पर मेरे सिर पर तो आधुनिकता और नए ज़माने के इस नए चलन ‘लिव इन रिलेशनशिप’ का भूत सवार था. माता-पिता के आंसू और मान-मनुहार किसी का भी मुझ पर कोई असर नहीं हुआ. सब कुछ अनसुना और अनदेखा कर मैं चली आई थी नीरज के साथ रहने. एक साल कैसे बीता, पता ही नहीं चला. समय जैसे पंख लगा कर उड़ रहा था. सुबह साथ-साथ नाश्ता बनाना, खाना, साथ-साथ ऑफ़िस जाना, देर रात तक घूमना-फिरना, होटल में खाना... ऐसे लगता जैसे सोने के दिन और चांदी की रातें हैं. शनिवार-इतवार के लिए पहले से ही प्रोग्राम बन जाता, कहां घूमने जाएंगे, कौन-सी पिक्चर देखेंगे, किस होटल में खाना खाएंगे आदि-आदि. फिर धीरे-धीरे नीरज में कुछ बदलाव-सा आने लगा. वह ऑफ़िस से भी देर से आता. एक दिन कारण पूछा तो बोला, “देखो पत्नी बनने की कोशिश मत करो.” अगले ह़फ़्ते एक साथ चार छुट्टियां पड़ रही थीं. मैंने नीरज से कहा, “चलो आस-पास कहीं घूमने चले जाते हैं.” “नहीं, मैं पूना जा रहा हूं, अपने घर. कल मम्मी का फ़ोन आया था. बहन की शादी की बातचीत चल रही है.” “ठीक है, मैं भी साथ चलती हूं.” “नहीं, तुम नहीं चल सकती.” “क्यों?” “मम्मी-पापा, भैया-भाभी को क्या बताऊंगा कि तुम्हारा-मेरा क्या रिश्ता है?” “तो क्या तुमने घर में मेरे बारे में किसी को कुछ नहीं बताया?” “इसमें बताने जैसी क्या बात है? हमारे रिश्ते में शादी जैसा कोई बंधन तो है नहीं. दोनों अपने-अपने ढंग से जब तक चाहें, जैसे चाहें रह सकते हैं.” “तुम मुझे अकेला छोड़कर कैसे जा सकते हो?” “क्यों नहीं जा सकता? यही तो इस रिश्ते की ख़ूबी है कि इसमें कोई बंधन नहीं है. मैं कोई तुम्हारा पति तो हूं नहीं और तुम भी बार-बार पत्नी बनने की कोशिश मत करो.” शुक्रवार रात को नीरज पूना चला गया. मुझे पहली बार महसूस हुआ कि अकेले रहना कितना मुश्किल है. चार दिन पहाड़-से बीते. नीरज वापस आया तो बहुत ख़ुश था, तन-मन से प्रफुल्लित. उमंग में भरकर मिठाई का डिब्बा खोला, “मेरी बहन की सगाई हो गई है. सुयश बहुत लायक लड़का है. शहर का जाना-माना परिवार है. सच नेहा, मैं अपनी बहन की शादी को लेकर बहुत ख़ुश हूं. और सबसे मज़ेदार बात बताऊं? मेरे लिए भी तीन-चार रिश्ते आए हैं.” नीरज जोश में अपनी ही रौ में बोले चले जा रहा था. “फिर तुम मिले किसी से?” “हां! एक लड़की तो मुझे बहुत ही अच्छी लगी. पढ़ी-लिखी, ख़ूबसूरत, सुशील, मां-बाबूजी को भी बहुत पसंद है.” “नीरज तुम शादी करने की बात कर रहे हो?” “हां!” “देखो, मज़ाक मत करो.” “मज़ाक नहीं, सच कह रहा हूं.” “मेरा क्या होगा?” “वो तुम जानो. हमारा कोई सात जन्मों का बंधन तो है नहीं. बंधन वाली ज़िंदगी की वजह से ही तुमने शादी नहीं की.” नीरज मेरी हर बात से मुझ पर ही वार कर रहा था. अगले ह़फ़्ते की छुट्टी में नीरज फिर पूना गया, बहन की शादी की तैयारी के लिए. रात करवटें बदलते बीत गई. जितना सोचती, उतना उलझती चली जाती. सुबह उठी तो तबियत भारी थी. थोड़ी देर बाद उल्टी हो गई. सोचने लगी, रात को क्या खाया था? पर उसके बाद दो-तीन बार फिर उल्टी हो गई तो मेरा माथा ठनका. कहीं चूक तो नहीं हो गई? डॉक्टर के पास गई. मेरा शक सही था. “बधाई हो! आप मां बननेवाली हैं. पहला बच्चा है न!” जैसे-तैसे घर पहुंची. एक उलझन से निकली नहीं कि दूसरी सामने आ खड़ी हुई. नीरज का इंतज़ार कर रही, एक क्षीण-सी आशा की लौ भी मन में जागी कि शायद बच्चे के बारे में सुनकर शादी का इरादा बदल दे. अगले दिन नीरज आया तो मैंने उसे प्रेग्नेंसी के बारे में बताया, “डॉक्टर से दवाई ले ली न.” ऐसे कहा, जैसे मुझे कोई मामूली सर्दी-बुख़ार हुआ हो. मैंने उसे पकड़ कर झिंझोड़ा, “क्या कह रहे हो? मैं बच्चे की बात कह रही हूं. ज़्यादा समय ऊपर हो गया है, ऑपरेशन करवाना पड़ेगा.” “तो करवा लो. इसमें ऐसी क्या बात है? रखना चाहो, तो रख लो, तुम अपना निर्णय लेने के लिए आज़ाद हो.” “यह हम दोनों का बच्चा है, इसलिए निर्णय दोनों का होगा.” “देखो नेहा, मैंने पहले ही यह बात साफ़ की थी कि मुझे बच्चों का झंझट नहीं पालना.” “तो फिर शादी क्यों कर रहे हो? वहां बच्चे नहीं होंगे क्या?” मैं ज़ोर से चिल्लाई. “वहां तो परिवार होगा, समाज की मान्यता होगी.“ “तो अब हम शादी कर लेते हैं.” “नहीं, शादी तो मैं मम्मी-पापा की पसंद की लड़की से ही करूंगा.” नीरज ने दो टूक उत्तर दिया. मेरे पैरों तले जैसे ज़मीन खिसक गई. अब मुझे मां की एक-एक बात याद आ रही थी. कहीं न कहीं मेरे भीतर स्त्री सुलभ ममता भी जाग रही थी. नीरज का रूखा व्यवहार और इस तरह से पल्ला झाड़ कर किनारा करना मन में चिंता के साथ-साथ भय भी उत्पन्न कर रहा था, पर मैं इस तरह से कमज़ोर भी नहीं पड़ना चाहती थी और अगले ही क्षण भय और चिंता का स्थान मंथन ने ले लिया. मन में एक कशमकश-सी चलने लगी. यदि बच्चे को जन्म देती हूं, तो समाज के सवालों का जवाब भी देना होगा. लोगों की सवालिया नज़रों को चाहे नज़रअंदाज़ कर भी दूं, पर कोई मेरे बच्चे को नाजायज़ कहे, यह मुझे मंज़ूर नहीं होगा. मम्मी ने कितना सच कहा था, घर-परिवार तो हर लड़की का सपना होता है. आज मुझे यह एहसास हो रहा था कि सामाजिक मान्यताओं का जीवन में क्या स्थान होता है. समाज के ख़िलाफ़ कोई क़दम उठाने पर सवालों का जवाब देना कितना मुश्किल हो जाता है. सुख-दुख में जीवनसाथी का होना कितना मायने रखता है, यह मुझे आज समझ में आ रहा था. आधुनिकता के इस नए चलन के मोह में मैंने कितना ग़लत क़दम उठाया था. पर हालात के आगे इतनी जल्दी हथियार डालनेवालों में से मैं न थी. मैं पूर्ववत् ऑफ़िस जाती रही. दोनों साथ-साथ रह रहे थे, पर एक-दूसरे से खिंचे-खिंचे से. मैंने कोई मान-मनौवल नहीं की. एक-दो बार नीरज ने पूछा भी, “डॉक्टर से कब का टाइम लिया है?” “यह मेरी समस्या है.” कुछ कड़ेपन से मैंंने दो टूक उत्तर दिया. मुझे मालूम था कि अगले ह़फ़्ते नीरज बहन की शादी के लिए छुट्टी लेकर पूना जानेवाला है और पिछली बार पूना से वापस आने पर उसकी बातों से यह आभास भी हो गया था कि उसके माता-पिता उन्हीं दिनों उसकी सगाई भी करनेवाले हैं. बस, मैंने मन-ही-मन समस्या के समाधान का ताना-बाना बुनना शुरू कर दिया. जिस दिन नीरज पूना के लिए रवाना हुआ, उसी दिन दोपहर को मैं भी पूना के लिए निकल पड़ी और नीरज के घर के पास एक होटल में ठहरने का प्रबंध कर लिया. यहां मुझे कोई जानता नहीं था और यह बात मेरे पक्ष में थी. नीरज के घर के पास-पड़ोस में थोड़ी-सी जासूसी की तो मालूम हुआ कि उसकी बहन की शादी के दूसरे दिन ही उसकी सगाई की तारीख़ निश्‍चित की गई है. वह लड़की भी इसी शहर में रहती है और एक कॉलेज में लेक्चरार है. अगले दिन सुबह मैं उस लड़की के कॉलेज जा पहुंची. डॉ. अनुराधा बहुत ही अपनेपन और आदरभाव से मिलीं. वे बहुत ही समझदार और सुलझे विचारों की लगीं. अपने कॉलेज और आस-पास में अपनी एक अलग पहचान थी उनकी. मैंने भी वह सब कुछ, जो नीरज और मेरे बीच था, बिना किसी दुराव-छिपाव के पूरी ईमानदारी के साथ उन्हें बता दिया. होनेवाले बच्चे के लिए अपने मन की कशमकश भी बता दी. “अपने इन हालात के लिए मैं ख़ुद ज़िम्मेदार हूं.” भावावेश में मेरी आवाज़ भर्रा गई. उनका हाथ पकड़कर कहा, “आप मदद करेंगी तो अपनी ज़िंदगी के बारे में तो कुछ नहीं कह सकती, कैसी होगी. हां, एक बच्चा ज़िल्लत की ज़िंदगी जीने से ज़रूर बच जाएगा.” थोड़ी देर के लिए तो वे सोच में पड़ गईं, पर फिर मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोलीं, “बिल्कुल चिंता मत करो. भरोसा रखो, नीरज तुमसे ही शादी करेगा और तुम्हारे बच्चे को कोई नाजायज़ नहीं कहेगा.” दो दिन मैं होटल के कमरे में ही रही. इस बात का ख़ास ख़याल रखा कि नीरज की नज़र मुझ पर न पड़े. अनुराधा बीच-बीच में मुझसे फ़ोन पर बात करती रही. आज नीरज की सगाई है. अनुराधा ने सुबह-सवेरे ही मुझे अपने घर पर बुलवा लिया था. उसने मेहमानों से मेरा परिचय अपनी सहेली के रूप में करवाया. ऐसे लगता था, जैसे उसने अपने मम्मी-पापा, भैया-भाभी और परिवारवालों को हक़ीक़त बता दी थी. अनुराधा और उसकी भाभी ने मुझे साड़ी, गहने आदि पहनाकर तैयार किया. हालांकि मेरा मन बिल्कुल नहीं था. सगाई की रस्म के समय दोनों परिवारों के लोग और कुछ विशिष्ट मित्रगण उपस्थित थे. अंगूठी पहनाते समय अनुराधा ने मुझे बुलाया और नीरज के सामने खड़ा कर दिया. एकाएक मुझे सामने देखकर नीरज हड़बड़ा गया, “नेहा, तुम?” “जानते हो न इसे!” अनुराधा फुंकार उठी, “रहना किसी के साथ और शादी किसी दूसरी के साथ!” “यह क्या मज़ाक है, अनुराधा!” नीरज भड़का. “मज़ाक नहीं, सच्चाई है. क्या तुम पिछले एक साल से इसके साथ मुंबई में एक ही फ़्लैट में नहीं रह रहे हो और अब यह तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली है. ये सब तुम जानते हो और इस तरह इसे मंझधार में छोड़कर मुझसे शादी करने चले आए? शर्म आनी चाहिए तुम्हें.” “अनुराधा मेरी बात सुनो.” नीरज थोड़ा नरम पड़ता हुआ बोला. “अब कहनेे-सुनने को रह क्या गया है? हम दोनों पढ़े-लिखे, समझदार और परिपक्व हैं. सम्मानित पद पर नौकरी कर रहे हैं. सगाई से पहले हम दो-तीन बार मिले हैं. हमारे मम्मी-पापा ने हमें एक-दूसरे के विचारों को जानने का पूरा मौक़ा दिया है. फिर तुमने मुझसे ये सब क्यों छिपाया?” “सगाई तो तुम्हारी होगी और अभी होगी, पर अनुराधा से नहीं, नेहा से.” अनुराधा के पापा ने एक तरह से ऐलान किया. फिर नीरज के मम्मी-पापा के कंधे पर हाथ रखकर कहा, “आप आज ही इन दोनों की शादी कर दें. आपके सारे रिश्तेदार भी मौजूद हैं. अपनी बहू और परिवार के आनेवाले नए सदस्य को अपना लें. इसी में सबकी भलाई है.” “आप ठीक कह रहे हैं, वकील साहब. अगर ये सब कुछ हमारे सपूत ने हमें पहले बता दिया होता, तो आज सब के बीच इस तरह शर्मिंदा न होना पड़ता.” और आगे बढ़ कर दोनों ने मेरे सिर पर हाथ रख दिया तथा नीरज को अंगूठी पहनाने को कहा. ‘बधाई हो, बधाई हो’ की गूंज में सगाई की रस्म पूरी हुई. “बड़ी बहू, पंडितजी से फेरों का मुहूर्त निकलवा लो और छोटी बहू को अंदर कमरे में ले जाओ.” नीरज के मम्मी-पापा उत्साह में भरकर शादी की तैयारी के लिए निर्देश दे रहे थे. मैंने आगे बढ़कर मम्मी-पापा के पांव छू लिए. आज मन को एक सुकून-सा मिल रहा था. आधुनिकता के इस नए चलन ‘लिव इन रिलेशनशिप’ से मेरा मोहभंग हो गया था.
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        डॉ. विमला मल्होत्रा
 

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