“मर्द को सौ खून भी माफ़ है बिटिया, लेकिन औरत को तो न किया खून भी माफ़ नहीं है, उसे तो सीधे नर्क की सज़ा मिलती है. मर्द का पाप अगर कहने जाएं, तो बदले में औरत को ही नर्क मिलता है और वो भी ज़िंदगीभर के लिए, इसलिए मर्द के पाप पर पानी डाल और नर्क से बची रह.” और उन कांपते हुए हाथों ने उसे कसकर अपनी छाती में भींच लिया.
'मर्द का पाप पत्थर जैसा होता है, पानी में नीचे बैठ जाता है, किसी को पता नहीं चलता, दिखता भी नहीं, लेकिन औरत का पाप बुलबुले की तरह होता है, जो पानी की सतह पर आकर चीख-चीखकर अपनी कहानी कहता है.’ मस्तिष्क में यही शब्द हथौड़े की तरह बार-बार बज रहे थे. ‘औरत का चरित्र ढोल की तरह होता है, एक हल्की-सी थाप पड़ जाए, तो उसकी आवाज़ दस-बीस गांवों तक सुनाई देती है और फिर घर-घर में हर एक दहलीज़ पर वह गूंज जाकर उसके पाप की कहानी कहती रहती है.’ ऐसी न जाने कितनी ही बातें, कितनी सीखें, सिसकियों के साथ, नसीहतों के साथ न जाने किस-किस के जाने-अनजाने स्वरों में घर की दहलीज़, दीवारों, किवाड़ों, झरोखों से कमरे के अंदर आकर उसके चारों ओर मंडराने लगीं. और फिर इन सबके बीच एक अत्यंत बेबस और करुणाभरी सिसकी ने प्रार्थनाभरे स्वर में कहा, “मर्द को सौ खून भी माफ़ है बिटिया, लेकिन औरत को तो न किया खून भी माफ़ नहीं है, उसे तो सीधे नर्क की सज़ा मिलती है. मर्द का पाप अगर कहने जाएं, तो बदले में औरत को ही नर्क मिलता है और वो भी ज़िंदगीभर के लिए, इसलिए मर्द के पाप पर पानी डाल और नर्क से बची रह.” और उन कांपते हुए हाथों ने उसे कसकर अपनी छाती में भींच लिया. पूरी दुनिया तब तक नर्क लगने लगी थी और पूरे नर्क के बीच यही मुट्ठीभर स्वर्ग बचा रह गया था. उसकी मां का ममतामयी हृदय... मां की सुरक्षाभरी गोद... और उस दिन के बाद से वह पूरे समय बस अपनी मां की ही परछाईं बनकर घूमती रहती, क्योंकि उसके फूफाजी ने... महज़ बारह-तेरह साल की ही तो थी वह- अल्हड़, अलमस्त, अपनी परियों की दुनिया में खोई हुई, मां के आंचल से झां-झू खेलनेवाली. उसकी सगी बुआ पास ही के गांव के एक रसूख़दार व्यक्ति से ब्याही गई थीं. फूफा का उनके घर अक्सर आना-जाना होता. बचपन से ही पितृवत फूफा उसे भी गोद में बिठाते, लाड़ करते, सबके बीच. कहीं किसी की दृष्टि में कोई दोष नहीं पकड़ में आया. यूं भी दबदबेवाले व्यक्ति के घर के दामाद होने के नाते बहुत सम्मान था उनका, उस पर भी धीर-गंभीर स्वभाव था उनका. लेकिन एक दिन, दो दिन, तीन दिन, फूफा ने दो-तीन बार लाड़ करते हुए उसके साथ अजीब हरकत की. जांघों पर बहुत ऊपर तक हाथ फेरते रहे और गालों पर फेरता हुआ हाथ इतने नीचे तक ले आए कि... वह घबरा गई. बच्ची थी तो क्या, पर बड़ी हो रही थी और नारी हर उम्र में पुरुष के अनुचित स्पर्श को भांप लेती है. एक ओर पितृतुल्य फूफा का मन ही मन बहुत आदर-सम्मान करती थी और दूसरी ओर उसी फूफा से वितृष्णा हो रही थी. बालमन अत्यंत आहत हो रहा था. बारह साल का आदर, विश्वास सब रेत की तरह ढह रहा था. वह फूफा से कतराने लगी. सब कुछ न समझने के बाद भी इतना समझ आ रहा था कि फूफा का व्यवहार ठीक नहीं है. हमेशा डरी-डरी रहने लगी. फिर एक दिन अपनी मां से अपना डर कह दिया. मां सन्न रह गई, मगर अपनी बेटी पर भरोसा किया उसने. रोते हुए अपने सीने में भींच लिया. शायद मां का बचपन भी उन्हीं अंगारों पर पैर रखते हुए जवानी की दहलीज़ तक पहुंचा होगा, वैसे ही डरता, कांपता और शायद मां की मां का भी और उनकी मां का भी... पराए लोगों की बुरी नज़रों से बचने के लिए हम घर की चारदीवारी की सुरक्षा में रहते हैं, लेकिन जिस घर की अपनी ही एक दीवार बुरी नज़र डालने लगे, तो हम कहां जाएं? बाहर का कोई व्यक्ति अगर बेटी पर बुरी नज़र डालता है, तो उसके पिता-भाई का खून खौल उठता है, लेकिन जब घर के सगे ही ऐसा करने लगें, तो बेटी अपनी रक्षा के लिए किसका मुंह देखे? पराए पर क्रोध करके उसके ख़िलाफ़ बोला जा सकता है, लेकिन हथौड़ा लेकर अपने ही घर की दीवार कौन तोड़ सकता है? अपरिचितों से तो ये परिचित अधिक ख़तरनाक होते हैं, ये कुछ भी करें, इन्हें पता है, रिश्ते का लिहाज़ कर कोई कुछ बोल नहीं पाएगा. और उसकी मां भी नहीं बोल पाई. घर की दीवारें मज़बूत हों, तब तो ठीक है, लेकिन न हों, तो सबसे ज़्यादा डर अपने ही घर की दीवारों से रहता है, पता नहीं, चरित्र कब कमज़ोर हो जाए और दीवार भरभराकर सिर पर गिर पड़े. उस दिन से उसकी मां ने उसे भरसक फूफा से क्या, किसी भी रिश्तेदार पुरुष से दूर ही रखा. हमेशा साए की तरह उसके साथ रही. मगर इस घटना ने उसके बालमन को एक अस्वस्थता से भर दिया था. आज इतिहास अपने को दोहरा रहा था. आज उसकी भूमिका में उसकी बेटी है और उसकी मां की भूमिका में वह ख़ुद है. उसे विश्वास नहीं हो रहा है कि उसकी बेटी के साथ ऐसा दुर्व्यवहार करनेवाले कोई और नहीं, बल्कि उसके ससुरजी के ममेरे भाई हैं. मेरे ससुरजी को उनके मामाजी ने ही पाल-पोसकर बड़ा किया, नौकरी लगवाई और विवाह करवाया. ससुरजी आकंठ उनके एहसानों तले दबे हुए थे. उन्हीं मामाजी के इकलौते बेटे ने विवाह नहीं किया, संन्यासी होकर साधुवेश धारण कर चुके थे. घर में उनका बड़ा मान-आदर था. वह भी ससुर कुल की परंपरा अनुसार अपने ससुर के ममेरे भाई का ससुर समान ही आदर करती. वह कभी दस दिन, कभी बीस दिन रहते, फिर तीन-चार महीनों की यात्रा पर निकल जाते. घर में उनके लिए एक अलग कमरा था, उसी में सारा समय ध्यान-पूजा और पढ़ने में व्यस्त रहते. उसकी बेटी को बचपन से ही रामायण, गीता और बड़े महापुरुषों की जीवनियां पढ़कर सुनाते थे. लेकिन कुछ दिनों से बेटी उनके बुलाने पर उनके कमरे में जाने से कतराने लगी, उन्हें चाय-पानी देने जाने को मना करने लगी. वो कमरे से बाहर निकलते, तो बेटी भागकर उसके पास आ जाती. “क्या बात है बिटिया? कुछ अनमनी-सी क्यों लगती हो आजकल?” एक दिन उसने बेटी को प्यार से अपने पास बिठाकर उसके सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा. उत्तर में भयभीत हिरणी-सी चौदह वर्षीया बेटी ने जो बताया, सुनकर वह वैसे ही सन्न रह गई, जैसे पच्चीस साल पहले उसकी मां. अपनी मां की तरह उसने भी अपनी मृगछौने-सी प्यारी-सी बिटिया को कसकर सीने से लगा लिया. जब बिटिया ने बताया कि साधू दादाजी कहानियां सुनाते हुए आजकल यहां-वहां हाथ लगाते रहते हैं. उठने लगती है, तो कसकर हाथ पकड़कर ज़बर्दस्ती पास में, गोद में बिठाने लगते हैं, तो उसके संपूर्ण शरीर में विद्युत-सी दौड़ गई. ‘नीच... नराधम! अपने ही मन से स्वयं को साधू बना बैठा है और आज भी वृत्ति इतनी घिनौनी?’ सच है गृहस्थ हो या संन्यासी, सभी पुरुषों के अंदर एक आदिम पाश्विक वृत्ति आज भी छुपी बैठी है. कुछ कहा नहीं जा सकता, किस रूप में, किस उम्र में वो पशु जागकर अपना वीभत्स रूप दिखा दे. उसका सिर भारी हो गया. क्या करे वह, पच्चीस साल पहले की अपनी मां की भूमिका में उतरकर अपनी बेटी को अपने अंतर में आजन्म के लिए एक डर, एक दाह, एक घुटन का नरक धरोहर के रूप में सौंप दे या फिर एक जलती हुई लकड़ी देकर रावण की लंका को एकबारगी ही भस्म करने को कह दे. अगर आज रिश्तों की दुहाई देकर बेटी को चुप रहने पर मजबूर कर दिया, तो ज़िंदगीभर वह न जाने कहां-कहां पर टूटती रहेगी और अपनी यह टूटन, ना जाने कितनी पीढ़ियों को उत्तराधिकार के रूप में सौंपती चलेगी. नहीं, स्त्री की थाती यह टूटन, यह शोषण स्वीकार करना नहीं है. घर के अंदर अगर इस घिनौनी करतूत का विरोध नहीं किया, तो बाहर भी स्त्री लड़ नहीं पाएगी और हमेशा रिश्तों की आड़ में शोषित ही होती रहेगी, घर में भी और बाहर भी. बचपन में भी और वयस्क होने पर भी. और पूरी ज़िंदगी वह एक डर, एक घुटन में, असुरक्षा, अविश्वास के दलदल पर चलते हुए गुज़ारने को विवश हो जाएगी. जैसे वह हो गई थी. उसे मर्द के साये से भी शंका होने लगी थी. अपने पिता से भी. पिताजी भी अगर सहज स्नेह से उसके कंधे या पीठ पर हाथ रख देते, तो वह डर से ठंडी पड़ जाती और भागकर मां से लिपट जाती. हमारा शरीर हमारी अत्यंत निजी और सबसे क़ीमती संपत्ति है. इस पर किसी का भी अनाधिकार स्पर्श स्वीकार नहीं करना चाहिए, चाहे वह कोई भी हो. जब तक स्त्री स्वयं अपने शरीर का सम्मान करना नहीं सीखेगी, तब तक चारदीवारी के भीतर विभिन्न रिश्ते, उससे विभिन्न रूपों में छल करते रहेंगे. नहीं. वह अपनी बिटिया को बताएगी स्त्री होने के नाते अपनी मर्यादा और अपने शरीर का सम्मान दुनिया की किसी भी अन्य चीज़ से सर्वोपरि है. किसी को भी इसका अपमान करने का अधिकार मत दो. चार दिन बाद घर में कथा का पाठ रखा गया था. आस-पड़ोस, दूर-पास के सब रिश्तेदार एकत्रित थे. यही अच्छा मौक़ा है. इतने लोगों के सामने यदि वह साधू बने इस कपटी की करतूत बता पाई, तो उसकी अपनी बेटी के साथ ही और भी बहुत-सी बेटियों को घरों के अंदर होनेवाले इस शोषण के विरुद्ध बोलने का साहस मिल जाएगा. वह बेटी का हाथ पकड़कर साधू के सामने जा खड़ी हुई और सब लोगों के सामने उसने साधू की करतूत बताई और उसे ख़ूब लताड़ा. उसके ससुरजी बीच-बचाव करते ही रह गए. अपनी बहू को ग़लत कहना चाह ही रहे थे कि अचानक सास गरज पड़ीं, “मेरी बहू ठीक ही कह रही है. मुझे अपनी बहू की बात पर पूरा भरोसा है. मैं भी इनकी बुरी नीयत के प्रति शंकित थी, लेकिन परिवार की इज़्ज़त, रिश्तेदारी और समाज के ख़्याल से आज तक चुप रही, लेकिन अब नहीं. अब भी अगर हम चुप रहीं, तो घर की दीवारें ही हमारे सिर से लाज के पर्दे उतारने लगेंगी. अब ये इस घर में और नहीं रह सकते. इन्हें चलता करिए. आप पर किए गए एहसानों का बोझ मैं अपनी बहू-बेटियों की मर्यादा को दांव पर लगाकर नहीं उतार सकती. आज के बाद अब कभी भी इनके पैर मेरे घर में न पड़ें.” संन्यासी बने ससुरजी के भाई ने चुपचाप अपना सामान उठाया और चले गए. सास ने अपनी बहू और पोती को अपने सीने से लगा लिया. स्त्री स्त्री पर विश्वास करे, अपना स्वयं का सम्मान करे, रिश्तों को एक ओर रख अपनी मर्यादा का हनन करने की चेष्टा करनेवाले के विरुद्ध बोलने का साहस करे, तो पुरुष के अंदर छिपे उस आदिम हिंसक पशु की हिम्मत ही नहीं होगी कि वह आंख उठाकर उसकी ओर देख भी ले. आज उसने अपनी सास के साथ मिलकर अपनी बेटी को एक साहस, एक सुरक्षा का एहसास सौंपा था. धरोहर के रूप में अपनी आनेवाली पीढ़ियों को भी यही सौंपना है.डॉ. विनीता राहुरीकर
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