मैंने राजू के नन्हे-मुन्ने हाथ देखे. जाड़ों में कुसुमी अक्सर दूध के जूठे भगौने की तली में चिपकी रह गयी मलाई कांछकर उसके हाथ-पैरों में मलती थी. कल से इन छोटी-छोटी उंगलियों में पेचकस, पाना और रिंच होंगे. कलेजे में मरोड़-सी उठी. मैंने उसे सीने से चिपटा लिया. माथा चूमकर भरे गले से बोली, “जब भी कोई ज़रूरत हो, बेहिचक चले आना.”उदास आंखें लिये राजू ने ‘अच्छा’ के भाव से सिर हिला दिया.मंगला के पीछे छोटे-छोटे क़दम रखकर जाते हुए राजू को मैं अपनी डबडबाई आंखों से ओझल होने तक देखती रही. कमरे में आकर हिलक-हिलककर रोई अपनी विवशता पर. जीवन में पहली बार ये मुझे बहुत बुरे लगे.
सुखदेई की कार्यकुशलता ने पांच सालों में ही मुझे एकदम निकम्मा बना दिया था. इसलिए जब एक दिन उसने स्थायी रूप से गांव जा बसने का ऐलान करके बोरिया-बिस्तर समेटा तो मेरे तो हाथ-पैर ही फूल गये. घर के इस छोर से लेकर उस छोर तक फैले काम में समझ ही नहीं आता था कि काम की शुरुआत करूं तो कहां से करूं? ऐसे संकट काल में कुसुमी का आगमन मुझे वरदान जैसा लगा.
पड़ोस में रहनेवाले मालवीयजी की नौकरानी मंगला की बहन बीस वर्षीया कुसुमी पति की असामयिक मौत के बाद दो महीने के राजू के साथ भरण-पोषण के अलावा आवास की समस्या से भी जूझ रही थी. कुसुमी की समस्याएं मेरी समस्याओं के निवारण का ज़रिया बन गयीं. हालांकि उसकी आवासीय समस्या हल करने में मुझे ख़ासी मेहनत करनी पड़ी. दरअसल नौकरों के बारे में इनके उसूल निश्चित और एकदम स्पष्ट हैं. उनके साथ इन्सानियत के बर्ताव की हिमायत के बावजूद ये एक निश्चित दूरी रखना पसन्द करते हैं. इसलिए साथ रखने के पक्ष में नहीं हैं. पिछवाड़े वाली कोठरी में कुसुम को रखने के लिए इन्हें मुश्किल से राज़ी कर पायी.
अपनी असहायता के एहसास ने कुसुमी को इतना अधिक विनम्र बना दिया था कि कई बार उसकी विनम्रता मुझे दीनता-सी लगने लगती. धीरे-धीरे उसने घर के सारे उत्तरदायित्व संभाल लिए. अब अलसुबह किचन में जाकर मुझे बेडटी नहीं बनानी पड़ती थी. बाथरूम धोकर मंजी हुई बाल्टी में पानी भरकर, कपड़े अरगनी पर टांग कर कुसुमी मुझे नहाने के लिए पुकारती. पूजा की अलग व्यवस्था मिल जाती. पूजा निबटते-निबटते वह मैले कपड़े वॉशिंग मशीन के सुपुर्द कर नाश्ते की तैयारी में लग चुकी होती. रसोईघर में कुसुमी की घुसपैठ ने दोनों समय के भोजन बनाने के मेरे दायित्व को काट-छांटकर स़िर्फ सब्ज़ियां छौंकने और खाना परोसने तक समेट दिया था. अपने इसी गुण से कुसुमी मेरे मन में जगह बनाती चली गयी और मैं जान भी नहीं पायी कि नौकरानी बनकर घर में प्रविष्ट हुई कुसुमी कब मेरे लिए परिवार के सदस्य जैसी अपनी और आत्मीय बन गयी.
कुसुमी जिस दिन घर आयी, उसी दिन सुशान्त का सीपीएमटी का परीक्षाफल निकला. परीक्षा के दौरान सुशान्त के बीमार पड़ जाने के कारण हम उसकी सफलता के प्रति आशान्वित नहीं थे, पर वह चयनित हो गया था. अंधविश्वासी न होने के बावजूद मेरे मन में एक विश्वास घर कर गया
कि कुसुमी के पैर मेरे घर के लिए शुभ हैं. प्रसन्न मन:स्थिति में उपज आयी उदारता में मैंने उसे आश्वासन दे डाला, “मैं तेरे राजू को पढ़ाऊंगी.”
सुशान्त का जब एमबीबीएस पूरा हुआ तब मैं राजू को ‘क’ से कबूतर ‘ख’ से खरगोश पढ़ना सिखा रही थी. सुशान्त के छोटे पड़ गये कपड़ों से मैं बर्तन ख़रीदकर उकता चुकी थी. राजू के माध्यम से उनका सदुपयोग कर एक संतोष मिला. वह सुशान्त के स्कूल दिनों वाली ग्रे नीकर और स़फेद कमीज़ पहनकर पढ़ने बैठता तो कई बार मुझे लगता मेरे सामने बीस साल पहले का छोटा-सा सुशान्त आ बैठा है. उसके तेल चुआते बाल, मोटे काजल से आंजी आंखों और कडुए तेल से गंधाती देह से वितृष्ण हुए बिना मैं उसे सीने से चिपटा लेती. एक आध बार इन्होंने देखा, लगा, पसन्द नहीं आया. अकेले में समझाते हुए बोले, “देखो, नौकर-चाकर के प्रति मैं स्नेह-ममता का विरोधी नहीं हूं, पर इन भावों का मन में रहना ही अच्छा है, ऐसा खुला प्रदर्शन उचित नहीं.”
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“क्यों भला?” मैंने किंचित अप्रसन्नता से पूछा.
“इसलिए कि अगर कल यही बराबरी उसकी तरफ़ से हुई, तब तुम्हें ही गवारा नहीं होगा.”
हालांकि इनकी बात अपनी जगह सही थी, पर मुझे अच्छी नहीं लगी. चिढ़कर जवाब दिया, “आप पुरुष हैं, स्त्री होते तो जानते स्त्री की ममता भेदभाव नहीं जानती.”
इन्हें ग़ुस्से से अपनी ओर घूरता पाया तो जैसे और चिढ़ाती-सी बोली, “मैंने तो कहीं पढ़ा है कि जो व्यक्ति संगीत, फूल और बच्चों से प्यार नहीं करता वो...”
“ख़ून कर सकता है, यही ना.” इन्होंने ग़ुस्से से मेरा वाक्य पूरा किया.
“ठीक है, नौकरानी के लड़के को कलेजे से चिपका-चिपकाकर जब आपकी ममता तृप्त हो ले, तो मेरे कमरे में एक कप चाय भिजवा दीजिएगा.”
इसके बाद इस विषय पर इनकी ओर से कोई टिप्पणी नहीं हुई.
सुशान्त को डॉक्टर बने एक वर्ष पूरा होने को आ रहा था. कुलीन घर-परिवार का लड़का अगर काम पर लग जाये और सुदर्शन भी हो तो जाने किन बेतार के तारों पर तैरती हुई उसकी विवाह पात्रता की सूचना अविवाहित कन्याओं के पिताओं तक जा पहुंचती है. प्रस्तावों का तांता लग गया था. ढोलक की थाप पर गूंजते बन्ने की पृष्ठभूमि में घोड़ी पर सेहरा बांधे सुशान्त की मनमोहक कल्पना करते हुए मैं तो अभी से मगन हुई जा रही थी. लेकिन मेरी ग़लतफ़हमी के नाज़ुक कांच को सुशान्त की वयस्कता के एक ही ऐलान ने फ़र्श पर पटक कर झन्न से चकनाचूर कर दिया, “मम्मी, तुम किसी जगह ‘हां’ मत कर बैठना. मेरी अपनी लाइकिंग है.”
बेटे की इस बेहिचक, बल्कि सच कहूं तो निर्लज्ज उद्घोषणा से हम मियां-बीबी आसमान से ज़मीन पर आ गए. और जब बेटे की ‘लाइकिंग’ को प्रत्यक्षत: देखा तब तो जैसे निष्प्राण ही हो गये. यह उसकी सुरूचि का अध:पतन था या सौंदर्य के नये मापदण्ड, हम समझ नहीं सके.
सुशान्त की पत्नी का तीखे नाक-नक्शों के बावजूद रंग गहरा सांवला था और चेहरे पर नाराज़गीभरी ऐसी शुष्कता व्याप्त थी, जो आमतौर पर पब्लिक डीलिंग का काम करनेवालों के चेहरे की स्थायी पहचान बन जाती है. पुरुषों जैसी ऊंचाई के साथ शरीर इतना दुबला था कि डॉक्टरनी ख़ुद ही रोगिणी होने का भ्रम पैदा करती थी. कहां अपनी अछूती सुन्दरता को घूंघट में ढंके, पलकें झुकाए, सकुचाए क़दमों से चलती आती पुत्रवधू की हमारी कोमल कल्पना और कहां इस छह फुटी विजातीय श्यामा की किसी विख्यात मॉडल जैसी दर्पीले आत्मविश्वास भरी एक बार बाएं दूसरी बार दाएं लचकती नि:संकोच चाल का कठोर यथार्थ. मैंने इसे अपनी नियति समझकर स्वीकार कर लिया.
शादी के दौरान मुझे कुसुमी की तबीयत ढीली होने की ख़बर मिली तो थी, पर मैं उसकी गम्भीरता का अनुमान नहीं लगा पायी थी. एक-दो बुखार की गोलियां देकर सोचा था मौसमी बुखार है, उतर जायेगा. मगर शादी निबटते-निबटते जब वह बिस्तर से जा लगी तो मुझे चिंता होने लगी. बुखार उतरने का नाम नहीं ले रहा था. जांचें हुईं, परिणाम देखकर मेरे तो पैरों तले धरती ही खिसक गयी. कुसुमी को रक्त कैंसर था.
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कुसुमी की बीमारी से मैं मानसिक रूप से बहुत परेशान थी. ऐसे में बहू का असहयोग मुझे और भी दुखी कर जाता. वह कुसुमी को सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाने का कई बार मशवरा दे चुकी थी. उसकी तार्किक सोच में तनख़्वाह और नौकर का गणित एकदम साफ़ था. वेतन थमाते ही नौकर मिल जाने की सुविधा होते हुए भी नौकरानी की सेवा करना और नौकरानी भी वह, जिसे ठीक ही नहीं होना है, उसके लिए भावनात्मक मूर्खता थी. यह सच था कि कभी कुसुमी की ओर से चाकरी और मेरी तरफ़ से वेतन हमारे सम्बन्ध जोड़ने का पुल बना था. लेकिन आत्मीयता की बाढ़ में वह पुल तो कब का टूटकर बह चुका था. अब तो इस पार से लेकर उस पार तक केवल हार्दिकता का छलछलाता जल था. इसे मेरी बहू कभी समझ नहीं सकी.
इस तरह की छोटी-छोटी घटनाएं भविष्य के एकदम साफ़ संकेत दे रही थीं. लेकिन शायद सच स्वीकारने की हिम्मत न होने से मैं जान-बूझकर अनदेखी कर रही थी. ये मुझसे ़ज़्यादा दुनियादार हैं और कुशाग्र बुद्धि भी, इसलिए आगत को मुझसे कहीं ़ज़्यादा साफ़ देख रहे थे. पर इनका पुरुष अहं इन्हें दुख को स्वीकार नहीं करने दे रहा था. इसलिए ये दोहरी पीड़ा झेल रहे थे. अंदर दुख सहने की, बाहर छिपाने की. मैं तो फिर भी रसोईघर में मसाला भूनते हुए, कपड़े प्रेस करते हुए या मंदिर में रामायण पढ़ते हुए मौक़ा पाकर चोरी से रो लेती थी, पर ये गम्भीर मुद्रा और ख़ामोशी के आवरण तले भीतर का चीत्कार छिपाये रखते.
सुशान्त के विवाह को छह महीने हो चले थे. इन छह महीनों में बहू-बेटे ने हमें हर तरह से जता दिया था कि हमने उनके लिए स़िर्फ समस्याएं खड़ी की हैं. बहू-बेटे के मनोभाव भांप कर हालांकि ये किसी भी तरह की टोका-टाकी कब की छोड़ चुके थे, पर उस दिन पता नहीं कैसे भूल हो गयी. पार्टी से आधी रात गये लौटने पर इनका मामूली सवाल-जवाब दोनों की नाराज़गी का बहुत बड़ा कारण बन गया और उनके निर्मम प्रस्ताव की भूमिका भी. इसमें इन्होंने पुराने मुहल्ले के इस ‘ओल्ड ़फैशन्ड’ पुश्तैनी मकान को बेचकर नयी कालोनी में नये ढंग के मकान बनवाने की इच्छा प्रस्तावित की थी, जिसमें आने-जाने के दो स्वतंत्र रास्ते निश्चित रूप से हों, ताकि उनके देर-सबेर आने का अव्वल तो हमें पता ही न लगे और लग जाये तो आपत्ति का कोई आधार न हो.
उस दिन इनका संचित आक्रोश एक साथ फूट पड़ा. इनके शांत स्वभाव का उत्तेजना भरा यह नया रूप देखकर मैं तो सहम गयी.
“न ये मकान बिकेगा, न इसे छोड़कर हम कहीं जाएंगे. हां, तुम अपनी सुख-सुविधा के हिसाब से जहां चाहो जा सकते हो.” नपे-तुले शब्दों में दो टूक जवाब का पत्थर उनके मुंह पर मारकर जैसे ये ख़ुद ही आहत हो आए.
लगा, बहू-बेटे ने शायद इसी हरी झण्डी को पाने के लिए ही सारा उपक्रम रचा था. कुछ ही दिन बीते कि बहू ने खाड़ी देश में बसे अपने भाई का भेजा नियुक्ति पत्र हमारी विस्फारित आंखों के सामने लहरा दिया, जिसमें दोनों के लिए पैसा उगलती नौकरियों के आमंत्रण थे.
‘अपनी सुख-सुविधा के हिसाब से जहां चाहो जा सकते हो’ कथन कहने में जितना आसान था, उसकी वास्तविकता झेलना उतना ही मुश्किल था, लेकिन तीर कमान से निकल चुका था.
आनेवाला हर दिन कुसुमी और मौत का फ़ासला कम करता जा रहा था. सुशान्त की उड़ान को बीस दिन बचे थे, जब कुसुमी ने अन्तिम विदा ली. उसके अन्तर्मन की याचना शब्द विहीन होकर भी शून्य में टिकी उसकी आंखों की कातरता और सूखे होंठों की फड़फड़ाहट में पूरी तरह अर्थपूर्ण थी. मैंने उसकी दुबली हथेलियां थाम लीं. माथे पर स्नेह भरा हाथ फेर कर आश्वासन दिया, “मैं हूं न, तेरा राजू मेरी ज़िम्मेदारी है.”
मैंने तो बड़े आत्मविश्वास से राजू की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ली थी, पर मुझे क्या पता था कि मुझे परलोकवासी कुसुमी का अपराधी बनना पड़ेगा.
इनका व्यवहार अप्रत्याशित था, जैसे बेटे से मिले आघात का बदला निर्दोष राजू से ले रहे हों- “आख़िर तुम समझने की कोशिश क्यों नहीं करती? इस नासमझ बच्चे को किस हक़ से अपने साथ रखना चाहती हो?”
राजू को अपने साथ रखने में किसी हक़ की भी ज़रूरत पड़ सकती है, ये तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था. कोई जवाब नहीं सूझा. सिटपिटाकर बोली, “जैसा कुसुमी को रखा था, वैसे ही राजू को भी रख लूंगी.”
“पागल हुई हो?” ये मेरे गैर दुनियादार रवैये पर झल्लाकर बोले, “नाबालिग बच्चा है. दस तरह के झंझट खड़े हो सकते हैं. कल किसी ने बच्चे को नौकरी पर रखने की झूठी रिपोर्ट दर्ज करा दी, तो जेल जाने की नौबत आ सकती है. रखा रह जायेगा सारा परोपकार.”
“फिर कहां रहेगा ये बेचारा?” पूछती हुई मैं अपनी लाचारी पर रो पड़ी.
“क्यों, मंगला... इसकी मौसी नहीं है? वहीं रहेगा.” ये कठोरता से बोले.
“आपके हाथ जोड़ती हूं, इसे मेरे साथ रहने दीजिए.” अनुनय में मैंने सचमुच ही हाथ जोड़ दिये.
“देखो, मैं कोई क़ानूनी झमेला नहीं चाहता.” कहते ही ये एक क्षण को रुके. इनका स्वर एकदम उतार पर आ गया, “एक धक्का खाकर अभी जी भरा नहीं, जो फिर नया नाता जोड़ने चली हो.” इनकी ओढ़ी हुई कठोरता की वजह मेरी समझ में आ रही थी.
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मंगला के चेहरे पर अनचाहा बोझ आ पड़ने का असंतोष साफ़ ज़ाहिर था. एक कोने में मासूम राजू सहमा खड़ा सब देख रहा था. मैं सामान के साथ मंगला को राजू का बस्ता भी थमाने लगी तो वह किंचित उकताकर बस्ता वापस करती हुई बोली, “बहूजी, ये पोथी-पत्तर तो आप ही रखो. हमारे घर में इसका कोई काम नहीं है.”
मेरा अनबूझा सवाल भांपकर ही शायद उसने जवाब दिया, “कल से अपने बड़े भाइयों के साथ गैराज के काम पर ये भी जाएगा.” अपने कहे को जायज़-सा ठहराती वह बोली, “क्या करें बहूजी, हम गरीबों के यहां तो जितने पेट हैं, उतने ही जोड़ी हाथ काम करें, तभी दाल-रोटी का जुगाड़ हो पाता है.”
मैंने राजू के नन्हे-मुन्ने हाथ देखे. जाड़ों में कुसुमी अक्सर दूध के जूठे भगौने की तली में चिपकी रह गयी मलाई कांछकर उसके हाथ-पैरों में मलती थी. कल से इन छोटी-छोटी उंगलियों में पेचकस, पाना और रिंच होंगे. कलेजे में मरोड़-सी उठी. मैंने उसे सीने से चिपटा लिया. माथा चूमकर भरे गले से बोली, “जब भी कोई ज़रूरत हो, बेहिचक चले आना.”
उदास आंखें लिये राजू ने ‘अच्छा’ के भाव से सिर हिला दिया.
मंगला के पीछे छोटे-छोटे क़दम रखकर जाते हुए राजू को मैं अपनी डबडबाई आंखों से ओझल होने तक देखती रही. कमरे में आकर हिलक-हिलककर रोई अपनी विवशता पर. जीवन में पहली बार ये मुझे बहुत बुरे लगे. कुछ दिनों के लिए हम दोनों में संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हो गयी, लेकिन जिस दिन बेटा-बहू रवाना हुए, इनकी हालत देखकर मैं सारा आक्रोश भूल गयी. संधि प्रस्ताव लेकर ख़ुद ही आगे बढ़ आयी. किसी अनहोनी के घटने का डर हो आया था मुझे. बहू-बेटे की पीठ फिरते ही इनके संयम का बांध भरभरा कर ढह गया था. इतना विचलित मैंने इन्हें कभी नहीं देखा था. भीतर से उमड़ता रुलाई का वेग रोकने की कोशिश में इनके होंठ कांप रहे थे. समूची देह हवा से झकझोर डाली गयी टहनी-सी हिल रही थी. सहारा देकर मैं इन्हें बिस्तर तक लायी और रोने का अवकाश देने के लिए झूठ बोलती पलट गयी, “हाय राम, आग लगे मेरी याद को, गैस पर दूध चढ़ा ही छोड़ आयी हूं.”
दूध का ग्लास और दवा की गोली लेकर जब मैं लौटी तो ये बाहर जा चुके थे. मालवीयजी के यहां ही गये होंगे, मैंने सोचा. उन्हीं के यहां इनका सुबह-शाम का उठना-बैठना था. तसल्ली हुई- चलो, कह-सुनकर मन हल्का कर आयेंगे. ये दोपहर के खाने तक नहीं लौटे, तो मैंने मालवीयजी के यहां फ़ोन किया. ये वहां गये ही नहीं थे. फिर कहां जा सकते हैं? सोचते-सोचते मुझे चिंता होने लगी. एक-एक करके सभी परिचितों के यहां फ़ोन मिला डाले. इनका कुछ पता नहीं चला. इंतज़ार करते-करते घड़ी की सुई चार को पार कर चली थी. अब मेरे हाथ-पैर ठण्डे पड़ने लगे. अर्द्धमूर्च्छित-सी मैं भगवान के सामने ढह पड़ी, “हे प्रभु, अनजाने में किये मेरे पापों का दण्ड उन्हें मत देना.”
तभी डोरबेल बजी, यही थे. क्रोध और रुलाई के आवेग में इतना ही कह पायी, “बता कर तो जाते.”
“फिर ये सरप्राइज़ कैसे देता?” कहने के साथ इन्होंने बोगनबेलिया की आड़ में छिपे राजू को खींचकर सामने कर दिया.
“क्या?” आनन्द और आश्चर्य के अतिरेक में मैं और कुछ बोल ही नहीं पायी.
“लो सम्हालो अपना राजू...” मेरे एक हाथ में राजू का हाथ पकड़ा कर, “और ये रहा तुम्हारा अधिकार पत्र.” कहते हुए इन्होंने मेरे दूसरे हाथ में एक लिफ़ाफ़ा थमा दिया. खोलकर देखा तो गोद लेने की क़ानूनी कार्यवाही के काग़ज़ थे. मैंने आभार और आनन्दभरी नज़रों से इनकी ओर देखा. इनकी आंखों में नटखट शरारत थी और होंठों पर सुशान्त की शादी के बाद पहली बार आयी मुस्कान. कुछ वैसी ही मीठी-सी, जैसी नवजात सुशान्त के माथे पर पहला चुम्बन रखते हुए आयी थी.
- निशा गहलोत
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