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कहानी- ऋतुरंग (Story- Riturang)

  Hindi Short Story
“लगता है पीला रंग आपको बहुत पसंद है.” मेरे इस सवाल को सुनकर उसने राहत भरी मुस्कुराहट के साथ एक नज़र अपने चारों तरफ़ के पीतमय वातावरण पर दौड़ाई और कुछ कहने के बजाय स्वीकृति में सिर हिला दिया. “लेकिन यह तो वसंत का रंग है.” मैंने कहा. “अच्छा!” उसने इस तरह कहा मानो यह बात उसे पहली दफ़ा किसी ने बताई हो. “तो बरसात का रंग कैसा होता है?” बड़ी मासूमियत से पूछे गए उसके इस सवाल पर मैं मुस्कुरा दिया. “हरा यानी ग्रीन.” सुनकर प्रभा उन्मुक्त भाव से हंस पड़ी.
  पीला रंग उसे बहुत अधिक पसंद था. पर्दा पीला, परिधान अधिकतर पीले, स्कूटर का रंग पीला ही, पीले फूलोंवाले गमले- यहां तक कि कपड़ा सुखाने की नायलॉन की डोरी और प्लास्टिक की क्लिपों का रंग भी पीला ही था. यूं लगता था शायद उसे पता ही नहीं था कि पीला रंग वसंत ऋतु का रंग है, बरसात का नहीं. वह युवती अपने पति और देवर के साथ उस फ्लैट की बालकनी के ठीक सामनेवाले फ्लैट में रहती थी, जिसमें मैं स़िर्फ चार-छ: दिनों के लिए बतौर मेहमान ठहरा हुआ था. शाम होने पर या दिन में भी कभी-कभी जब बालकनी में आता, तो वह दिखाई दे जाती थी. कभी चावल बीनती हुई, तो कभी कपड़े डालती हुई, कभी बाल सुखाती हुई या फिर कभी कंघी से उन्हें संवारती हुई या कभी-कभी यूं ही सलवार-कमीज़ पहने, ओढ़नी ओढ़े बालकनी की रेलिंग पर झुकती हुई वह अविवाहिता जैसी लगती थी. मुझ पर नज़र पड़ते ही अंदर की ओर चली जाती. उससे मेरा साक्षात्कार कभी दस-पांच पलों से अधिक का नहीं हुआ. ज़ाहिर है, उसकी यह उपेक्षा मुझे अच्छी नहीं लगती, क्योंकि उपेक्षा किसी को भी अच्छी नहीं लगती, यहां तक कि पशु-पक्षी भी प्यार और निकटता चाहते हैं. सुन्दर थी, लेकिन उतनी नहीं कि चांद देखकर शरमा जाए या अंधेरे घर में उजाला छा जाए. बाल-बच्चे शायद नहीं थे. अपने इन्जीनियर पति को विदा करके दोनों देवर-भाभी घर के कामों में एक-दूसरे की मदद किया करते और मन बहलाया करते. लड़का अभी कम उम्र का था. मैट्रिक का छात्र रहा होगा. वह एकटक उसकी तरफ़ देखता हुआ उसकी बातें सुनता रहता और कभी-कभी जब वह उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कॉलोनी के फुटपाथ पर घूमने लगती तो वह एक बार भी अपना हाथ छुड़ाने की चेष्टा न करता. देवर और भाभी का यह प्यार भरा संबंध देखकर मैं यह सोचने को विवश हो जाता कि काश! मेरी भी कोई अपनी भाभी होती. इसी तरह सगी और उदार. पर यह सोचकर संतोष कर लेता कि इस संसार में सबको सब कुछ नहीं मिलता है. कोई-न-कोई कमी हर किसी के जीवन में रह ही जाती है, जो बार-बार सालती तो है, लेकिन जीने की शक्ति भी शायद वही देती है. चंद्रन दुबला-पतला, छरहरा, मासूम चेहरेवाला सीधा-सादा नौजवान इन्जीनियर, मगर प्रभा वैसी न थी. भरे बदन की पूर्ण युवती थी वह और उसकी अपेक्षा अधिक सुन्दर भी थी. लड़का, शायद उसका नाम पद्म था, अपने बड़े भाई की तुलना में अधिक सुन्दर भी था और आकर्षक भी. मुझे देखकर उसके छुप जाने का सिलसिला जब समाप्त नहीं हुआ और उस औद्योगिक नगरी में बरसात के मौसम में मुझे मन बहलाने का कोई और ज़रिया नहीं मिला, तो मुझे अपने ब्रीफकेस में पड़े उस परिचय-पत्र की याद आई, जो एक प्रसिद्ध प्रकाशन संस्थान द्वारा मुझे अपना संवाददाता नियुक्त करते समय प्रदान किया गया था. मैंने सोचा, क्यों न बैठे-बैठे अपनी पत्रिका के लिए एक परिचर्चा आयोजित कर ली जाए. विषय भी जल्दी ही सूझ गया, जो काफ़ी समयानुकूल भी था. कॉलबेल बजाने के थोड़ी देर बाद थोड़ा-सा दरवाज़ा खुला, उसके पीछे से पद्म का गोल-सा चेहरा झांक रहा था. “आप किससे मिलना मांगते हैं?” यह विशिष्ट हिन्दी उस बहुरंगे शहर की प्रचलित संपर्क भाषा थी. “हम आपका भाभीजी से मिलने मांगते.” मैंने भी मुस्कुराते हुए उसी अंदाज़ में जवाब दिया और अपना परिचय-पत्र उसके हवाले कर दिया. उन बहुमंज़िली इमारतों में रहनेवाले लोग, ख़ासकर अपने पतियों के काम पर चले जाने के बाद अकेली औरतें, दरवाज़ा खोलने में बहुत सावधानी बरतती हैं, यह मुझे पता था, इसीलिए मैंने सबसे पहले अपना परिचय-पत्र बढ़ा दिया. पद्म ने दरवाज़ा थोड़ा-सा और खोल दिया. “हू कम्स देयर?” कहती हुई एक छोटे से तौलिए से अपना हाथ पोंछती हुई प्रभा भी वहां पर आ गई. मुझ पर नज़र पड़ते ही ऐसे ठिठक गई, मानो चोरी करते पकड़ी गई हो. तब तक पद्म मेरा परिचय-पत्र उसे थमा चुका था. उसने एक बार मेरी तरफ़ गौर से देखा और फिर परिचय-पत्र पढ़ने लगी. तब तक दरवाज़ा पूरा खुल चुका था. पद्म मानो मुझे अंदर आने की मौन सहमति देकर पीछे हट गया. “आइए, अंदर आ जाइए.” प्रभा ने थोड़ा-सा हकलाते हुए और मुस्कुराने की कोशिश करते हुए मुझसे कहा. उसने मेरा परिचय-पत्र मुझे वापस कर दिया और सोफे पर बैठने का इशारा करते हुए ख़ुद भी मेरे सामने बैठ गई. पद्म अभी तक वहीं खड़ा था मानो इस एपिसोड में अपनी भूमिका तलाश रहा हो. प्रभा ने उसे भी एक बार बैठने के लिए कहा, लेकिन उसके इन्कार करने पर उसे अंदर पढ़ने के लिए भेज दिया. जब मैंने उससे कहा कि मैं अपनी पत्रिका के लिए महिलाओं की समस्याओं से संबंधित एक परिचर्चा में उसे भी शामिल करना चाहता हूं, तो वह प्रसन्न हो गई. भला प्रसिद्धि किसे अच्छी नहीं लगती. वह मुझे बताने लगी कि वह इस पत्रिका की नियमित पाठिका है, लेकिन उसका पत्र संपादक कभी नहीं छापते हैं- उसने मुझसे शिकायत के लहजे में कहा. तब मुझे मालूम हुआ कि अहिन्दी भाषी होते हुए भी वह बहुत अच्छी हिन्दी जानती है. परिचर्चा के विषय के बारे में जब मैंने उसे थोड़ा विस्तार से बताया, तो वह बोली, “आपने यह विषय उठाकर हम जैसी गृहिणियों की दुखती रग को छुआ है, जो पति के काम पर चले जाने के बाद बिल्कुल अकेली हो जाती हैं. न सास, न ननद, न बच्चे. बस आप और दीवारें. टीवी बेचारा भी कितना साथ निभाए.” उसकी व्यथा वास्तविक थी- ऐसा उसके चेहरे से लग रहा था. “मगर आपके साथ तो आपके देवरजी हैं, फिर आपकी समस्या क्या है?” मैंने बातचीत को आगे बढ़ाते हुए पूछा. “मेरी समस्या दूसरी है.” उसने आराम से बैठते हुए कहना शुरू किया. इसी बीच उसने पद्म को पुकार कर उससे चाय बनाने का आग्रह किया. निश्‍चय ही यह आग्रह अपनी मातृभाषा में किया गया था. लेकिन लगता था कि चाय बनाने का तरीक़ा पद्म को ठीक से आता नहीं था, क्योंकि वह बीच-बीच में आता और कभी चाय, तो कभी चीनी और दूध की मात्रा पूछ जाया करता था. “पद्म का अपने भैया और मेरे सिवाय संसार में और कोई नहीं है.” उसने कुछ धीमे स्वर में कहा. “पिताजी बहुत पहले गुज़र गए, मां भी नहीं रहीं. बचपन में मां के प्यार से वंचित यह बालक मुझसे वात्सल्य मांगता है. लेकिन मैं तो उसकी मां नहीं हूं. छाती से लगाती हूं, तो इसकी सांसें गर्म हो उठती हैं. तरुण है, मेरे होंठ चूम लेता है. उस समय अपने आपको संभालना मुश्किल हो जाता है. सोचती हूं कि ज़रा भी ढील दूंगी, तो यह बर्बाद हो जाएगा. फिर अपने भैया से इसके और अपने पति से मेरे संबंधों का क्या होगा. आप ही सोचिए- बरसात की दोपहरी में जब झमक-झमक कर पानी बरसता है और घर में स़िर्फ मैं और यह होते हैं, बिजली कड़कती है, तो मुझसे लिपट जाता है. वात्सल्य और रति की यह मिली-जुली भावधारा किस क्षण हमें कहां बहाकर ले जाएगी, कहना मुश्किल है.” मैं एकाग्रचित होकर उसकी धाराप्रवाह भावाभिव्यक्ति के शब्द-शब्द को और उसके अर्थ को पूरे मनोयोग से सुन और समझ रहा था. उसका बोलना जब समाप्त हुआ, तो मैंने मुस्कुराकर कुछ कहना चाहा. प्रभा भी एक लंबी सांस लेकर मुस्कुराती हुई सीधी होकर बैठ गई. फिर मेरी तरफ़ देखते हुए बोली, “मि. कुमार, आप कोई जादूगर मालूम होते हैं.” “सो कैसे?” मैंने ख़ुश होकर पूछा. प्रशंसा से भला कौन प्रसन्न नहीं होता. “इसलिए कि जो बातें मैंने अभी-अभी आपको बताई हैं, वे बताने योग्य तो थीं नहीं, लेकिन आपको देखकर मुझे ऐसा लगा मानो मैं किसी चिकित्सक के समक्ष बैठी हूं, जो मेरे मन की उलझनों का समाधान करने मेरे पास आया है.” वह सहज थी. इसी सहजता के साथ उसने मुस्कुराते हुए कहा, “आपसे सब कुछ बताकर मैं अपने आपको बहुत हल्का महसूस कर रही हूं.” “यह तो आपकी उदारता है कि आपने मुझे इस योग्य समझा कि अपने मन की गहन अनुभूतियों से मुझे अवगत कराया. आप अगर अपने मन का भार कुछ हल्का महसूस कर रही हैं, तो यह मेरे लिए बहुत ही ख़ुशी की बात है.” मेरे इस वक्तव्य के बाद प्रभा के व्यवहार में और आत्मीयता आ गई. तब तक पद्म भी चाय लेकर आ गया. चाय उसने अपने लिए भी बनाई थी. हमने उसके काम की प्रशंसा की और चाय की चुस्कियों के बीच इधर-उधर की बातें होती रहीं. जब खाली कपों को लेकर पद्म भीतर चला गया, तो मैंने मानो निष्कर्ष के तौर पर कहना शुरू किया- “मैं तो यही कहूंगा कि आप पद्म को स्नेह दीजिए और उसे समझाइए कि प्यार का मतलब क्या होता है. देवर-भाभी के प्रेम और पति-पत्नी के प्यार के बीच जो अंतर है, उसे आप उसके सामने स्पष्ट कर दीजिए. अभी तरुण है, युवा होते ही उसके आकर्षण का क्षेत्र विस्तृत हो जाएगा, तब आपकी समस्याएं अपने आप काफ़ी कम हो जाएंगी.” उसने ध्यान से मेरी बात सुनी और उससे इस तरह सहमति जताई- मानो ये बातें पहले से उसे पता हों. फिर थोड़ी देर तक चुप्पी छाई रही. इन्टरव्यू समाप्त हो चुका था. मैंने भी वहां से प्रस्थान करने का निर्णय किया और दोनों हाथों को जोड़ते हुए उठ खड़ा हुआ. लेकिन चलते-चलते मैंने सोफा कवर के रंग पर गौर किया. उसका रंग भी पीला ही था. प्रभा भी हाथ जोड़े उठकर खड़ी हो गई, तो मैंने उससे कहा, “प्रभाजी, चलते-चलते मैं एक और सवाल आपसे पूछना चाहता हूं.” “अवश्य ही पूछिए.” प्रभा की आंखों में प्रोत्साहन था. “लेकिन यह एक निजी सवाल है.” मैंने उसकी आंखों में गहराई से झांकते हुए कहा. उसके चेहरे से साफ़ ज़ाहिर हुआ कि इस बात से वह थोड़ा संकोच में पड़ गई है कि निजी सवाल न जाने कैसा हो. लेकिन मैंने उसे और अधिक चिंतित नहीं होने दिया और पूछा, “लगता है पीला रंग आपको बहुत पसंद है.” मेरे इस सवाल को सुनकर उसने राहत भरी मुस्कुराहट के साथ एक नज़र अपने चारों तरफ़ के पीतमय वातावरण पर दौड़ाई और कुछ कहने के बजाय स्वीकृति में सिर हिला दिया. “लेकिन यह तो वसंत का रंग है.” मैंने कहा. “अच्छा!” उसने इस तरह कहा मानो यह बात उसे पहली दफ़ा किसी ने बताई हो. “तो बरसात का रंग कैसा होता है?” बड़ी मासूमियत से पूछे गए उसके इस सवाल पर मैं मुस्कुरा दिया. “हरा यानी ग्रीन.” सुनकर प्रभा उन्मुक्त भाव से हंस पड़ी. उससे विदा लेकर जब मैं अपने मेज़बान के फ्लैट में आया तो खाना तैयार था. भोजन के बाद बालकनी में आता हूं, तो देखता हूं सामने अपनी बालकनी में प्रभा खड़ी है. सब्ज़ रंग की साड़ी पहने हुए, ऋतुरंग में लिपटी हुई अपने पति की तरफ़ देख रही थी, जो नीचे स्कूटर पार्क करके हैलमेट खोल रहा था. पति के जीने में गायब होते ही उसने मेरी तरफ़ देखा मानो रंग परिवर्तन के लिए मेरी प्रशंसा मांग रही हो. मेरा हाथ अनायास ही अभिवादन की मुद्रा में उठ गया. उसने झुककर उसे स्वीकार किया और फ्लैट के अंदर चली गई. मैं अकेला रह गया, लेकिन इस अकेलेपन में भी एक बहुत बड़ा संतोष था. किसी को सच्ची राह दिखाने का संतोष.
- वीरेश कुमार
 
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