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कहानी- बादल (Short Story- Badal)

"तेरा कसूर यही है कि तूने पराई चीज़ को अपना समझ लिया. सारा जीवन तूने झूठी ममता के हवाले कर दिया. अपने स्व से लापरवाह हो गई. तुझे तो इतनी अच्छी पेंटिंग आती थी, वह भुला दिया. तुझे नर्सरी का शौक था, वह भूल गई. अपने फ़ुर्सत के क्षणों में अपने शौक को तराशो अरु. देखना उन नन्हें-नन्हें पौधों से जब तू बतिआएगी तो कैसे झूम-झूम कर वह तेरी बात का जवाब देंगे."

दीपों की तरफ़ लगी टकटकी में व्यवधान पड़ा अरुन्धती देवी ने पलटकर रिक्शे के आने की दिशा में देखा, मन में आशा का जलता दीप भड़का, फिर बुझ गया. रिक्शा खाली आ रहा था. उन्होंने चोर निगाहों से थोड़ी दूर बैठे रमन बाबू को देखा, जो प्रत्यक्ष में तो पुस्तक में डूबे थे पर अरुन्धती की मनोदशा से पूर्णतया परिचित थे. "अब उम्मीद छोड़ दो अरु. बादल और बहू अब नहीं आएंगे."

"नहीं..." अरुन्धती घबरा कर बोली, "मैं तो दीपों को देख रही थी, देखो न टिमटिमाते हुए कितने अच्छे लग रहे हैं."

"क्यों बहलाती है ख़ुद को अरु, अरे, आधे दीप तो कब के बुझ चुके हैं. कुछ बुझने की कगार पर हैं. तू उन्हें देख रही थी तो उनमें तेल डालने की याद तुझे क्यों न आई."

"वो..." क्या उत्तर देती. अरुन्धती कैसे अपनी कमज़ोरी को प्रकट करती. कैसे बताती कि उनकी नज़र दीपों पर नहीं, गली के मोड़ पर लगी है. अब बादल, बहू का रिक्शा गली में प्रवेश करेगा, अब करेगा... कितनी देर से दीप जलाया था उन्होंने, जब अधिकांश घरों के दीप आधे जल चुके थे, बेटे-बहू की प्रतीक्षा में. कल तक नहीं आए, छुट्टी न मिली होगी पर दीवाली के दिन तो ज़रूर आ जाएंगे, यही सोचा था उन्होंने.

आज तक ऐसा हुआ है भला कि होली-दीवाली पर बादल उनके पास न रहा हो.

"खाना परसो अरु, बड़ी ज़ोर की भूख लगी है." जान-बूझकर रमन बाबू ने कहा. वरना वे जानते थे बेटे-बहू की प्रतीक्षा में.. अब ट्रेन आ रही होगी. लेट हो गई होगी... करते-विचारते अरु भूखी ही रह जाएगी.

किसी तरह बेमन से उठकर उन्होंने खाना लगाया, पर खाने का उत्साह न था. खीर, कचौड़ी, सूरन की टिक्की, दही बड़ा, पुलाव सभी कुछ तो बनाया था उन्होंने. बादल के पसन्द की सब्ज़ियां और रसगुल्ले भी बनाए थे.

रमन बाबू इतने सारे व्यंजन देखकर हंस पड़े.

"ख़ूब दावत बना डाली तूने तो बेटे-बहू की प्रतीक्षा में."

"ऐसा क्यों कहते हैं, ये सब तो हर बार बनता है." वह थोड़ी सकपका गई.

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"हां बादल भी तो हर बार रहता है." अरुन्धती देवी की भर आई आंखों को रमन बाबू ने अनदेखा कर दिया. जानते थे ज़रा सा छेड़ने भर से सावन की तरह बरस उठेंगी.

"आ तू भी खा साथ में, वरना मैं भी नहीं खाऊंगा, बताए देता हूं."

"नाहक क्रोध न करो, मुझे भूख नहीं है."

"कैसे नहीं है भूख." ज़बरदस्ती उन्होंने ग्रास अरुन्धती के मुंह में ठूंस दिया तो अरुन्धती के तनाव भरे प्रौढ़ चेहरे पर लाज की लालिमा दौड़ गई.

खा-पीकर बर्तन समेटकर अरुन्धती ने झांका, रमन बाबू सोने के कमरे में जा चुके थे. वह एक बार और आकर छज्जे पर खड़ी हो गई. अब तो गली भी सूनी तो गई थी. पटाखे, फुलझड़ियां इधर वैसे भी कम ही फूटते थे. अब तक तो बिल्कुल ही शांति छा गई थी. अमावस की काली रात इस समय और भयानक लग रही थी. उनका स्वयं का मन भी तो आज बड़ा अशांत था. कई दिनों की प्रतीक्षा ने आज दम तोड़ दिया था.

कमरे में जब वह पहुंची, तब तक रमन बाबू जग रहे थे. लेटे उबासी ले रहे थे. पति के पायताने बैठकर उन्होंने अपना हाथ उनके पांव पर रखा तो उन्होंने रोक दिया, "रहने दे. थक गई होगी."

"बिना मेरे तुम्हारे पांव दबाएं तुम्हें नींद आ जाएगी?" हंसकर अरुन्धती बोली.

"आएगी तो नहीं." वह भी हंस पड़े.

पत्नी की हथेली का चिरपरिचित कोमल दबाव रोज़ाना अपने पांव पर महसूस करने के आदी हो चुके थे. थोड़ी ही देर में उन्हें नींद आ गई. अरुन्धती उठकर अपने बिस्तर पर आ गई. आज नींद नहीं आएगी और रातभर जगती रही तो दूसरे दिन रमन को पता चल जाएगा, उनकी सूजी आंखें, सिरदर्द सब राज़ खोल देगा. चुपके से रखी नींद की दो गोली गटककर वह लेट गई. रमन की चोरी से लेती हैं. इधर-उधर करवट बदलती रहीं फिर जाने कब आंख लग गई.

सुबह उनकी नींद खुली तो रमन बाबू उठकर बाहर जा चुके थे. श्यामू आकर चौके में धरा उठाई कर रहा था. सिर बहुत भारी लगा. गोली लेने का असर था शायद. सिर पर हाथ धरे बैठी थीं कि श्यामू आ गया, "अम्मा चाय लाऊं क्या?"

"मुंह तो धो लूं रे... अभी ठहर जा." बाहर आकर देखा लॉन में रमन बाबू कुर्सी में घंसे अख़बार पढ़ रहे हैं.

चाय पीकर नहा-धोकर वह फिर कमरे में आ गई. उन्हें देर तक बाहर आता न देख रमन भी वहीं आ गए.

"क्या बात है अरु. तबीयत तो ठीक है न तेरी?"

"हां ठीक है." उन्होंने मुस्कुराने का प्रयास किया, "बच्चे नहीं आए आज पढ़ने?"

"आज छुट्टी कर दी है उनकी. चलो कहीं घूम आते हैं."

"कहां चलूं," पांव फैलाकर अरुन्धती बोलीं.

"दिल नहीं हो रहा. आराम करना चाहती हूं."

"वह तो तेरा चेहरा ही बता रहा है कि तू ठीक से सोई नहीं. लेट कर आराम कर, मैं पुस्तकालय में बैठता हूं."

रमन बाबू चले गए तो अरुन्धती फिर लेट गई, लेटने का तो बहाना था. वास्तव में वह लेटकर अतीत की छोटी-बड़ी वादियों में विचरना चाहती थीं, जिसके लिए एकान्त का होना ज़रूरी था. आंख मूंदी तो २५ वर्ष पीछे का अतीत नाच उठा.

शादी की पहली रात को ही अरुन्धती में रमन बाबू को क्या दिखा कि वह उसे प्यार से तू कहने लगे. उनके हिसाब से अरु बच्ची थी उनके सामने. शायद अरुन्धती के चेहरे का भोलापन उन्हें उसकी अल्हड़ता का एहसास करा गया. रमन एक इण्टर कॉलेज में विज्ञान के अध्यापक थे. घर में सास-ससुर और जेठ-जेठानी थे. विवाह के दो वर्ष बाद भी जब अरु की गोद सूनी रही तो शुरु हुआ डॉक्टरों का लंबा चक्कर और कुदरत का अजीब करिश्मा कि दोनों ही सन्तान पैदा करने में अक्षम थे. पर गज़ब का संस्कारी परिवार था वह, किसी ने भी उन पर उ़गली नहीं उठाई. तब तक जेठानी के तीन बच्चे हो चुके थे, बड़ी लड़की फिर बादल और तीसरा अंकुश. अंकुश के जन्म के समय मात्र दो वर्ष के बादल को उसी ने संभाला था. लड़की सात वर्ष की थी. छोटे में ही जेठानी पुष्पा इतना थक जाती कि बादल को अरु के पास देख निश्चिंत हो जाती.

उस दिन बादल को उसकी गोद में डालकर पुष्पा ने कहा था, "संभालो अपने लाडले को. मुझे संभालने के लिए ये दोनों ही काफ़ी हैं. यह तेरे हिस्से का है. कल को वापस करने न चली आना." उन्मुक्त हंसी निर्मल आंखों में छलछलाता स्नेह, जेठानी के पांव पर झुक गई थी अरु.

"जीजी."

"अरी रोती काहे को है. तुझे रोता देख तेरा यह बादल लाड़ला भी रोने लगेगा."

फिर उस दिन से भूल गई अरु कि वह बादल की मां नहीं चाची है. ढाई वर्ष के बादल को उसने अपने अंक में यूं समेट लिया मानो हवा का हल्का सा झोंका भी उसे उसके आंचल से दूर न कर दे.

धीरे-धीरे समय बीतने लगा. एक ही घर में रहने से बादल को यह महसूस हो गया कि उसकी यहां दो मां हैं. पुष्पा को वह मां कहता और अरु को अम्मा. फिर वह स्कूल भी जाने लगा. उसकी उन्नति, उसकी रुचि सभी में वह पुष्पा को शामिल करना न भूलती. रमन या कोई सदस्य अरु को नहीं टोकता. बादल के स्नेह में सिमटी वह काफ़ी दूर निकल आई.

तब बादल ८वीं में था. रमन की नियुक्ति इलाहाबाद डिग्री कॉलेज में प्रवक्ता के पद पर हुई तो अरु और बादल भी साथ चले गए. यूं तो एक साथ रहने से सभी का जाना घरवालों को बुरा लगा, पर बादल के जाने से पुष्पा और उसके पति सुरेश को काफ़ी धक्का लगा. घर सांय-सांय करता. कस्बे से शहर की दूरी ज़्यादा न थी इस कारण आना-जाना बना रहा. तीज-त्योहार पर सभी कस्बे में आकर साथ में त्योहार मनाते.

शहर आए उन्हें दो वर्ष ही हुए थे कि अचानक एक हादसे में पुष्पा के पति सुरेश का देहांत हो गया. वह कपड़े की दुकान पर बैठते थे. उस वक़्त बादल के साथ अरु कई दिन घर पर ही रही. तीनों बच्चों को समेटे वह बेहाल पुष्पा को संभाले रही. कस्बे में अब रखा ही क्या था. सास-ससुर बुढ़ापे से ज़्यादा जवान बेटे की मौत से टूट गए. आख़िर यही निर्णय लिया गया कि सब कुछ बेचकर शहर चला जाए. छोटा अंकुश भी ७वीं में पहुंच गया था. लड़की ने इण्टर कर लिया था.

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दुकान, थोड़ी बहुत खेती और मकान बेचकर शहर में ही एक बड़ा मकान ले लिया गया. बाकी पैसा बिटिया शैल के विवाह के लिए जमा कर दिया गया. इन सारी क्रियाओं के मध्य पुष्पा ख़ामोश रही. लेकिन धीरे-धीरे पति विहीन पुष्पा के स्वभाव में चिड़चिड़ापन आने लगा. कभी-कभी सास को भी जवाब दे देती, पर 'दुखी है' सोचकर सब चुप लगा जाते.

अरुन्धती का घूमना-फिरना लगभग बंद हो गया. जहां जाती पुष्पा को भी साथ ले जाना चाहती परंतु वह न जाती और यदि अकेले जाती तो लौटने पर पुष्पा व्यंग बोलने से बाज़ न आती. इस कारण अरु ने ही बाहर निकलना बंद कर दिया.

दो वर्ष के अन्तराल पर सास-ससुर भी न रहे तो पुष्पा की ज़ुबान और चलने लगी. अरु ख़ामोश ही रहती. उसकी कोशिश यही रहती कि जेठानी के बच्चों को ज़्यादा से ज़्यादा सुविधा मिले, चाहे बादल को कम. लेकिन यही भावना एक दिन विस्फोट करा गई. उसने गाजर का हलवा बनाया था. पर था थोड़ा ही. कटोरी में डाल उसने अंकुश एवं शैल को थोड़ा ज्यादा ही दिया. बादल की कटोरी में कम, बस पुष्पा भड़क उठी.

"ओह, यह बर्ताव किया जाता है मेरे बेटे के साथ, आख़िर पेट का जाया होता तब न जी चटकता तुम्हारा."

"जीजी!"

"तभी मैं कहूं, मेरा बादल कमज़ोर क्यों है?" बादल की पीठ पर हाथ फेरती पुष्पा बोली, "अरी, अभी इसकी मां ज़िन्दा है समझी." मारे अपमान के वह बेटे के सामने सिर झुकाकर खड़ी रही. क्या सोचेगा बादल, मां वास्तव में उसके साथ पक्षपात करती है. उसने तो उसे अपना समझ कर ऐसा व्यवहार किया.

पुष्पा का उनके घर आना उनके इतने वर्ष के सुखी जीवन को ख़त्म कर गया. हर वक़्त एक डर समाया रहता, क्या पुष्या उनका बेटा छीन लेगी? नहीं, बादल ख़ुद ही नहीं जाएगा, उन्होंने उसे पाला है, पढ़ाया लिखाया है. वह उसकी मां है. लेकिन बादल की त्रासदी ये थी कि न तो वह मां को नाराज़ करना चाहता था न अम्मा को. उसे दोनों से स्नेह था. हां उसके लिए दोनों आपस में कहासुनी करें, यह उसे पसन्द न था. इसी कारण वह पुष्पा की गैरमौजूदगी में वही अरु का परोसा खाना प्यार से खाकर निकल जाता. पढ़ने में वह अव्वल था ही, इंजीनियरिंग में वह चुन लिया गया.

इस बीच शैल का रिश्ता रमन बाबू ने दिल्ली के एक व्यवसायी के डॉ. पुत्र से तय कर दिया. बेटी के विवाह के समय पुष्पा शांत रही. कहीं कोई विघ्न डालने का प्रयास भी नहीं किया. शादी आराम से हो गई. लेकिन बादल के इंजीनियरिंग करने के बाद जब एक स्थानीय फर्म ने उसे इंजीनियर की नौकरी दे दी और उसके रिश्ते की बात उठी तो वह वाचाल हो उठी.

बादल के लिए अरु ने कई वर्षों से एक लड़की देख रखी थी. पढ़ी-लिखी सुंदर, रमन के ही मित्र की लडकी थी. पर पुष्पा बिदक गई.

"इंजीनियर है मेरा बादल, ऐसी-वैसी लड़की से ब्याह न होगा, मैं रिश्ता तय करूंगी."

फिर रमन बाबू के कहने पर अरु ने बादल के विवाह का जिम्मा जेठानी पर ही डाल दिया. कई रिश्तों में से एक ठेकेदार की बेटी को पुष्पा ने पसंद किया तो अरु ने मन मारकर लेकिन धूमधाम से बादल का विवाह कर दिया,

पिछले जाड़ों में बादल का ब्याह हुआ था. रसम के अनुसार पहली होली में बहू के साथ वह ससुराल चला गया था. छुप-छुप कर कितना रोई थी तब अरु. इन सब चरणों में अरु को अपना स्थान सिमटता प्रतीत हुआ था. उवास होली के बीतते एक और धमाका हुआ. बावल ने एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी के लिए मुंबई में आवेदन किया था. वहां उसकी नियुक्ती हो गई.

"नहीं, तू वहां नहीं जाएगा." अरु फैल गई.

"मुझे क्या पता था मैं वहां चुन लिया जाऊंगा. मेरे पास तो इतना अनुभव भी नहीं था. दोस्तों के कहने पर भर दिया था." बादल ने सफ़ाई दी.

"ठीक है, छोड़ दे, लेकिन तू मेरे साथ ही रहेगा."

"यहां का वेतन, पद बहुत अच्छा नहीं है अम्मा, भविष्य के लिए कोई स्कोप नहीं है."

"पर मेरा भविष्य तेरे बगैर कहां रहेगा बेटे." वह रो दी.

"शशि है, मां है, अंकुश है, वह तो लखनऊ में ही है. मैं आता-जाता रहूंगा."

"शशि यहां रहेगी तो तुझे रोटी बनाकर कौन देगा?"

"वहां मेस में खा लूंगा, अकेले की क्या चिंता."

"नहीं." उन्होंने खाने पर विचार किया तो रोकने की ज़िद छोड़ कह बैठी, "तुझे खाने की तकलीफ़ हो जाएगी, जीजी ठीक कहती है तू शशि को ले जा."

"नहीं अम्मा, शशि यहीं रहेगी तुम्हारे पास. बाद में ढंग का मकान देख लूंगा तो सब साथ चलेंगे."

अरुन्धती के जलते दिल पर मानों ठंडी फुहार पड़ गई. कितना ध्यान रखता है बादल, बेटा तो उन्हीं का है वह. बहू ने भी कुछ न कहा पर पीछे ऐसी खिचड़ी पकी कि बादल के साथ बहू ही नहीं पुष्पा भी चली गई. बादल खामोश नहीं वरन् उदास था. लगता था कोई ज़बरदस्ती उसकी डोर पकड़े उसे लिए जा रहा है. उस दिन अरुन्धती रोई नहीं थी बादल का कंधा पकड़कर गिड़गिड़ाई थी.

"तू वादा कर, हर त्योहार हमारे साथ मनाएगा,"

"तुम्हारा पांव छूकर आशीर्वाद लिए बगैर कोई पर्व सफल हुआ है भला." भरे गले से बादल ने कहा, फिर मुंह फेरकर झटके से निकल गया.

टप... पांव पर कुछ ठंडा एहसास हुआ. आंखों से एक बूंद आंसू अरु के पांव पर टपक गया था.

"अरु... रो रही है?" रमन बाबू की आवाज़ पर उन्होंने आंखें खोलकर देखा, वह एक काग़ज़ लिए थे.

"तार भेजा है अंकुश ने. हो सकता है फोन का प्रयास किया हो, पर इधर ३-४ दिन से अपना फोन ख़राब था न. लिखा है वह भी बंबई जा रहा है, नहीं आ सकेगा."

"अरे तू... सुना नहीं तूने..." उसे चुप देख उन्हें आश्चर्य हुआ.

"सुन लिया." वह उठ कर बैठ गई.

"हो सकता है तबीयत वगैरह ख़राब हो गई हो. फोन भी तो अभी नहीं मिला है उसे, कोई नंबर ही नहीं है हमारे पास."

अब उन्होंने ध्यान दिया, वह बोलते जा रहे हैं, अरु का ध्यान कहीं और है.

वह पत्नी के पास खिसक आए. उसका कंधा पकड़कर बोले, "देख अरु, मैंने आज तक तेरे और बादल के विषय में तुझसे कभी कुछ नहीं कहा. पर तू क्यों मरीचिका के पीछे भाग रही है. बादल हमारा बेटा नहीं है. अरे कुदरत को देना ही होता तो क्या हमें निःसंतान रखता. फिर बादल की ज़रूरत भाभी को हमसे ज़्यादा है. वह उसका सहारा है अरु."

उन्होंने जिन निगाहों से पति को निहारा, रमन बाबू दहल उठे. पर इतना तय था कि यदि आज भी वह अरु को बादल की ममता से खींच न पाए ती अरु को बीमार होने से बचा न सकेंगे.

"वह भाभी ही तो थी, जिन्होंने निःस्वार्थ तेरी गोद में बादल को डाल दिया था. अपना परिवार अपनी गृहस्थी के लिए वह तरस रही है, बादल में वह सब कुछ पाना चाहती है.”

"पर मेरा क्या कसूर है?" रुंधे गले से उन्होंने पूछा.

"तेरा कसूर यही है कि तूने पराई चीज़ को अपना समझ लिया. सारा जीवन तूने झूठी ममता के हवाले कर दिया. अपने स्व से लापरवाह हो गई. तुझे तो इतनी अच्छी पेंटिंग आती थी, वह भुला दिया. तुझे नर्सरी का शौक था, वह भूल गई. अपने फ़ुर्सत के क्षणों में अपने शौक को तराशो अरु. देखना उन नन्हें-नन्हें पौधों से जब तू बतिआएगी तो कैसे झूम-झूम कर वह तेरी बात का जवाब देंगे."

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रमन बाबू चले गए और अरु सोचने लगी कि जिसने कभी भी उनकी मर्ज़ी में दख़ल नहीं डाला. उसके शौक के विषय में कैसे इतना कुछ जान गए. वह जहां की तहां रही और पति की गरिमा से युक्त रमन बाब बाजी मार ले गए.

शाम तक वह यूं ही बैठी रही. खाना भी बेमन से खाया. रमन बाबू बाहर ही बैठे रहे. वह जानते थे ममत्व की डोर एकदम से नहीं टूटेगी. अरु प्रयास करेगी तभी वह बंधन से मुक्त होगी. वह उठकर बाहर आ गई. आज ध्यान से देखा घर के चारों तरफ़ काफ़ी ज़मीन थी. एकाध पौधे तो लगे थे, परंतु हरियाली न थी. उदासी व्याप्त थी वहां. तभी बगल के घर की तरफ़ नज़र उठ गई. मिसेज कर्नल जो विधवा थीं पौधों को पानी दे रही थीं, साथ में उनका पोता भी था ५-६ वर्ष का. उसे देखते ही उन्हें बादल का बचपन याद आ गया. गोल-गोल काली आंखें कैसे मटकाता था, गोरा स्वस्थ बादल. जाने क्यों प्रकृति का यह नियम है कि जब अपने बेटे की याद आती है तो उसका बचपन ही ज़्यादा याद आता है. शायद इस कारण कि जीवन की यात्रा में वही एक निश्छल सरल ठहराव होता है.

तभी उन्हें महसूस हुआ उनके साथ तो प्रकृति की ज़्यादा मेहरबानी है. पति है साथ में... सच ही देखा, तो बगल में रमन खड़े थे.

"क्या देख रही है?"

"सोच रही हूं सब्ज़ियां किधर बोऊ और फूल किधर?"

रमन बाबू ने झुककर प्यार से पत्नी की आंखों में झांका फिर हौले से पूछा, "चलें."

"कहां." वह घबरा गई.

"नर्सरी... बीज और पौधे लेने."

"ओह मैं समझी..." आगे कुछ कहने के पूर्व उनका चेहरा रक्तिम हो उठा.

- साधना राकेश

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