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कहानी- अनचाहे बंधन (Short Story- Anchahe Bandhan)

उस दिन के बाद से उमा जब भी सब्ज़ी लेने जाती. अक्सर उसे देर हो जाती, जिसके लिए तरह-तरह के बहाने बनाती. नील भी कोई अनाड़ी तो थे नहीं, कुछ-कुछ समझ रहे थे. उमा को भी व्यंग्यबाण से बहुत कुछ समझा रहे थे, पर उमा का मन अब बिल्कुल समझने के लिए तैयार नहीं था. मनीष से मिलते रहने से दोनों का प्यार फिर से मुखर होने लगा. मनीष के जीवन में फिर से उसे लौटकर आने का आमंत्रण उमा को लुभा रहा था और उसे स्वार्थी भी बना रहा था. वह समझ गई थी कि उसकी ख़ुशियां सिर्फ़ मनीष के साथ ही है और उसे अपनी ख़ुशियां पाने का पूरा हक़ है.

सुबह के उजास के साथ-साथ ही चिड़ियों कि चहचहाहट की आवाज़ वातावरण में मधुर संगीत घोलने लगे थे. रात के निस्तब्ध सन्नाटे के बाद यहां-वहां उड़ती चिड़िया के झुंड और पेड़ की डालियों पर फुदक रही नन्ही नन्ही चिड़ियां, वातावरण को जीवंत बना रही थीं. आंगन में खड़ी उमा, आकाश में नज़रें जमाए इस नैसर्गिक दृश्य का आनंद उठा रही थी. तभी छोटा अनुज आकर उसे पीछे से थाम लिया. वह चौंककर जैसे नींद से जग गई. अनुज को बाथरूम में भेजकर, उसने तेजी से अपने कदम किचन की तरफ़ बढ़ाया और नाश्ता बनाने में जुट गई.
कभी किचन ,कभी आंगन में, तो कभी बेडरूम में तब तक चक्कर लगाते रही, जब तक कि अनुज व अंकित को स्कूल और नील को ऑफिस नहीं भेज दी.
घर के दूसरे छोटे-मोटे काम निपटाकर, बरामदे में पड़े सोफे पर आ लेटी. यही तीन-चार घंटे का समय है, जो उसके अपने होते है. जिसे वह अपने हिसाब से शांति और सुकून से जी पाती है. तब वह हुकूम की गुलाम नहीं होती है. एक आज़ाद पंक्षी होती है, जो दिल चाहता है, वही करती है. खाना-पीना और सोना सब अपने मन का होता है, पर न जाने क्यूं आज उसका मन कही रम नहीं रहा था. अलसायी हुई सी सोफे पर लेटी थी, पर मन था कि न चाहते हुए भी पाखी बन अतीत में विचरण करने लगता. धीरे-धीरे मन बचपन की यादों में गोते लगाने लगा.
वह बचपन से ही अनचाहे रिश्तो से घिरी रही, जिसे उसने दिल से कभी भी नहीं स्वीकारा. मां को तो उसने सिर्फ़ फोटो में ही देखा था, क्योंकि वह तो उसे जन्म देते ही स्वर्ग सिधार गई थीं. बस, पापा के प्यार की कुछ धुंधली-सी यादें बची थी. पापा का प्यार भी मात्र पांच वर्ष की उम्र में छिटक गया था. वह भी चार दिनों के बुखार में ही उसकी मां के पास चले गए थे. होश सम्भालते ही चाची ने घर के कामो में लगा दिया था. ज़िंदगी की तपती रेत पर एकमात्र प्यार का स्रोत सिर्फ़ दादी मां ही थीं, जो ख़ुद ही चाचा-चाची पर आश्रीत थीं. फिर भी वह उसे पढ़ाने के लिए चाचा को परेशान किए रहती थीं. दादी का ही दबाव था, जो उसका एडमिशन एक सरकारी स्कूल में करवा दिया गया था. जहां किताब, ड्रेस और दिन का खाना सब मुफ़्त मिलता था. उसी स्कूल से वह दसवीं तक की पढ़ाई अपनी मेहनत और लगन से काफ़ी अच्छे नंबरों से पास कर ली थी.
उसके आगे की पढ़ाई भी अधूरी रह जाती, अगर पड़ोस में रहनेवाले उसके पापा के दोस्त रह चुके कपिल अंकल ने काॅलेज के प्रिंसिपल से निवेदन कर उसकी फ़ीस माफ़ नहीं करवा दी होती और उनका लड़का मनीष अपनी किताब उससे शेयर करने का वादा न किया होता. वैसे भी मनीष उसके बचपन का दोस्त था. दोनो एक साथ खेल-कूद कर, लड़-झगड़ कर बड़े हुए थे, इसलिए दोनों के बीच गहरी आत्मियता उत्पन्न हो गई थी. उसके मरूस्थल बन गए जीवन में मनीष एक नखलीस्तान सा था, जो कुछ ही समय के लिए ही सही, उसके मन में सुकून और खुशियां भर देता था.
धीरे-धीरे दोनों के बीच की यह आत्मियता कब प्यार में बदल गई, वे ख़ुद ही नहीं समझ पाए. जब उन्हें समझ में आया कि अब वे दोनों एक-दूसरे के बिना नहीं जी सकते, तब मनीष ने उमा से वादा किया था कि अनुकूल समय आने पर वह ख़ुद ही परिवार के लोगों से उससे शादी करने के लिए बात करेगा.
ग्रेजुएशन के बाद मनीष को एक प्रसिद्ध बैंक में ऑफिसर के पद पर चुन लिया गया था. उसे ट्रेनिंग के लिए हैदराबाद भेज दिया गया. उन्हीं दिनों चाची अपने मायके के एक रिश्तेदार नील से जो विधुर होने के साथ दो छोटे बच्चों का पिता भी था. उससे उमा की शादी की बातें करने लगी. दादी मां, मनीष के साथ चल रहे उमा के प्यार से अनभिज्ञ नहीं थीं. बरसों से ख़ुद उनके दिल में भी इन दोनों की शादी के अरमान थे, इसलिए बहू को शादी की बात आगे बढ़ाने से रोक, स्वयं कपिल बाबू से उमा और मनीष के शादी की बात करने जा पहुंची थीं, जिसे सुन कपिल बाबू ने बड़े ही रूखे शब्दों में शादी से इंकार कर दिया. उनकी बातों से दादी को तो आघात लगा ही था, उमा के चाचा भी अपने को अपमानित महसूस कर काफ़ी नाराज़ हो गए थे. तब आनन-फानन में उसकी शादी नील से तय कर आए.


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उमा के पास न फोन था, न मनीष का फोन नंबर. बहुत कोशिश करने पर भी किसी ने मदद नहीं की और वह मनीष को सूचित नहीं कर सकी. तब 20 वर्ष की उमा की शादी 35 वर्ष के विधुर नील से हो गई, जो एक मालगोदाम में क्लर्क था. यौवन काल का प्रथम प्यार मनीष, जो उसके जीवन का अर्थ था. सहसा कितना जघन्य था, उसके लिए उसे छोड़, एक अपरिचित चेहरे के साथ आगे बढ़ना. फिर भी अतीत को तिलांजलि दे वह दिल पर पत्थर रख नील के साथ रांची चली आई थी.
अब ज़िंदगी उसे एक ऐसे पड़ाव पर ले आई थी, जहां वह सिर्फ़ एक पत्नी और बहू ही नहीं, दो बच्चों तीन वर्ष के अनुज और पांच वर्ष के अंकित की मां भी थी. न चाहते हुए भी वह एक बार फिर इस नए और अनचाहे रिश्ते के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश करने लगी. अभी उसकी शादी के दस दिन भी नहीं गुजरे थे कि सासू मां, उसे घर की सारी ज़िम्मेदारियां सौंपकर गांव चली गई.
अब तक वह भी समझ गई थी कि चाहा-अनचाहा, जो भी है, यही एक रिश्ता उसके पास बचा है. ख़ून के जो भी रिश्ते उसके पास थे, अब तक भले ही जैसे-तैसे साथ निभते रहे, पर वो ही ख़ून के रिश्ते शायद ही अब उसके ढ़योढ़ी पर आएंगे या उसे बुलाएंगे. जल्द ही वह घर-परिवार की सारी ज़िम्मेदारियां बख़ूबी संभालने लगी. देखते-देखते वह अव्यवस्थित घर साफ़-सुथरा और सुव्यवस्थित नज़र आने लगा. बच्चों के कपड़े भी अब साफ़-सुथरे और प्रेस किए रहते. वे समय से स्कूल आते-जाते और अपना होमवर्क भी समय से पूरा कर लेते.
बहुत जल्द ही दोनों बच्चे उससे घुलमिल गए थे. अपने पापा को छोड़, दोनों ही उमा के आगे-पीछे "मां…मां…" करते घूमते रहते, जैसे- उनकी सगी मां हो. वही उमा के मन का मरूस्थल बढ़ता ही जा रहा था, जिसमें अब किसी नखलिस्तान का नामोनिशान नहीं था. जितनी आसानी से उसने बच्चों को अपनाया, पति को भी अपना लिया. एक भावनाविहीन समर्पण था उसका, जिसे समझ नील का मन भी कभी-कभी उसे धिक्कारने लगता. क्या ज़रूरत थी ऐसी सुंदर, नाज़ुक और कमसीन लड़की से शादी करने की, जिसके साथ न उनकी उम्र में कोई समानता थी, न ही सोचने-समझने के ढंग में कोई समानता थी.
जब भी सासू मां आती, यह सोच कर संतुष्ट हो जाती कि इस लड़की में अथाह ममता है, जिसने उनके दोनों पोतों को मां की तरह बांध लिया था. उसमें उन्हें सुंदरता के साथ-साथ सेवाधर्म, सहिष्णुता और समझदारी भी दिखती, जिसके कारण उनके बेटा का उजड़ा घर एक बार फिर से बस गया. पर कोई, यह नहीं देख पाता कि नवीन परिवेश की चुभन उमा को सूई की तरह बींध रहा था. वह जैसे टुकड़ों-टुकड़ों में जी रही थी. कभी मां, पत्नी और बहू बनकर, तो कभी प्रेमिका बनकर. जब भी वह एकांत में होती, उसका पत्थर बन गया प्यार भी सांसें लेने लगता और मन के मरूस्थल में हरे-भरे फूलों से लदे पेड़ उग आते, जिसकी भीनी-भीनी ख़ुशबू के बीच वह मनीष की बांहों में विचरण करती रहती. नैसर्गिक आकांक्षाओं से भरपूर वह आंखें मूंदें सारी दोपहर उस जंगल में भटकती रहती. यही दिवास्वप्न उसके जीने का आधार था.
एक दिन वह सब्ज़ी मार्केट में सब्ज़ियां ले रही थी कि अचानक एक जानी-पहचानी-सी आवाज़ ने उसे चौंका दिया. नज़रें घुमाई, तो उसकी आंखें खुली की खुली रह गई. सामने जो व्यक्ति खड़ा था वह और कोई नहीं मनीष था. थोड़ी देर तक वह आवाक बुत बनी निशब्द खड़ी रही. नजरें मिली, तो दोनों की आंखें भर आईं. थोड़ी देर की चुप्पी के बाद मनीष बोला, ‘‘मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि तुमसे यूं मुलाक़ात हो जाएगी. आजकल मेरी पाेस्टंग यही पर है. वो सामनेवाले मकान में मेरा ऑफिस है." वह एक तरफ़ इशारा करते हुए बोला. तभी जैसे उमा को होश आ गया. वह तुरंत घर जाने के लिए मुड़ी ही थी कि आगे बढ़कर उसका रास्ता रोकते हुए मनीष बोला, ‘‘यूं मत भागो, तुमसे कितनी ही बातें कहनी-सुननी है. चलो सामने मंदिर के प्रांगण में बने बेंच पर कुछ देर बैठकर बातें करते है.’’
मनीष की बातों का सम्मेहन अब भी कायम था. वह उसके पीछे-पीछे आकर, बेंच पर बैठ गई. मनीष ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘तुम ख़ुश हो?’’
‘‘अब ऐसी बातों का कोई मतलब नहीं है. तुमने भी तो अपने पापा की पसंद से शादी कर ली होगी.’’
‘‘नहीं… तुम्हारे अलावा दिल किसी को स्वीकार ही नहीं कर पाया. मेरे कारण तुम्हारे साथ जो अन्याय हुआ, उसे भी भूलाना मेरे लिए आसान नहीं था.’’ उमा को खो देने का दर्द साफ़ उसके चेहरे पर झलक रहा था.
अब पिछली बातों में कुछ नहीं रखा. ज़िंदगी में आगे बढ़ने में ही सब की भलाई है.’’
इतना कह वह जाने के लिए उठ खड़ी हुई. उसे लगा, किसी की नज़र पड़ गई, तो मुश्किल हो जाएगी. उसे जाते देख मनीष याचनाभरे स्वर में बोला, ‘‘फिर नहीं मिलोगी.’’
वह बिना कुछ बोले वहां से चली गई. घर पहुंची, तो नील घबराए हुए था.
‘‘कहां रह गई थी?’’
‘‘एक बहुत पुरानी सहेली मिल गई थी.’’
‘‘ठीक है, मैंने पोहा बना दिया है. हम लोग नाश्ता कर लिए हैं, तुम भी खा लो.’’
उमा ने राहत की सांस ली और अपने काम में जुट गई. दूसरे दिन सब काम पहले की तरह ही चलते रहें, पर शाम को जब वह सब्ज़ी लेने निकली, लौटते-लौटते उसे काफ़ी देर हो गई. उस दिन फिर मनीष मिल गया था. उसके साथ टहलते हुए थोड़ी दूर तक निकल आई थी. उसका साथ उसे सम्मोहित कर रहा था. मनीष उसका हाथ थाम एक कॉफी हाउस में आ बैठा था. जब घर लौटी, मनीष का आत्मियतापूर्ण मूक र्स्पश उसे बेचैन करने लगा था.
उस दिन के बाद से उमा जब भी सब्ज़ी लेने जाती. अक्सर उसे देर हो जाती, जिसके लिए तरह-तरह के बहाने बनाती. नील भी कोई अनाड़ी तो थे नहीं, कुछ-कुछ समझ रहे थे. उमा को भी व्यंग्यबाण से बहुत कुछ समझा रहे थे, पर उमा का मन अब बिल्कुल समझने के लिए तैयार नहीं था. मनीष से मिलते रहने से दोनों का प्यार फिर से मुखर होने लगा. मनीष के जीवन में फिर से उसे लौटकर आने का आमंत्रण उमा को लुभा रहा था और उसे स्वार्थी भी बना रहा था. वह समझ गई थी कि उसकी ख़ुशियां सिर्फ़ मनीष के साथ ही है और उसे अपनी ख़ुशियां पाने का पूरा हक़ है. ज़बर्दस्ती थोपे गए अपने त्रासदीपूर्ण शादी के फ़ैसले को आख़िर वह क्यों माने?
उसी दौरान मनीष का ट्रांसफर कानपुर हो गया. उसने उमा के सामने प्रस्ताव रखा कि अगर उमा उसके साथ चलकर कानपुर में उसके साथ रहे, तो वह मंदिर में शादी कर लेगा. फिर कुछ ही दिनों बाद नील से तलाक़ दिलवाकर कोर्ट में भी शादी कर लेगा. उमा को मनीष पर पूरा विश्‍वास था कि वह उसे कभी धोखा नहीं देगा, इसलिए उसने उसका प्रस्ताव मानने में देर नहीं लगाई. दोनों ने मिलकर घर छोड़ने का दिन और समय दोनों ही तय कर लिया. अपने फ़ैसले पर जब भी उसका मन विचलित होता, वह मन को समझा देती. कौन-से ये सब मेरे ख़ून के रिश्ते हैं, जो अपनी सारी ख़ुशियां कु़र्बान कर दूं. वैसे भी ख़ून के रिश्तो ने ही कौन-सा उसका साथ दिया था.
एक मनीष के साथ उसका रिश्ता सत्य था बाकी सब झूठ. जिस दिन उसे मनीष के साथ निकलना था, उससे एक दिन पहले अपना ज़रूरी सामान एक बैग में डालकर बच्चों के कमरे में रख दी. वह रात वह बच्चों के साथ ही बिताना चाहती थी, पर बच्चों के पास लेटी उमा की आंखों से नींद कोसो दूर था.
रात के नीरवता में कल और आज को खंगालता उसके मन का प्रहरी, उसकी आत्मा को ही कटघरे में ला खड़ा किया था. अचानक अनेक सवाल उसके मन को कुतरने लगे थे. क्या अपना सुख आदमी को इतना स्वार्थी बना देता है कि दो मासूम बच्चों का प्यार, पति का सम्मान, लोक-लाज सब गौण हो जाता है. उसका मन कही गहरे गर्त में डूबने लगा था. तभी अनुज सपने में डरकर, सिसकता हुआ उसके गले आ लगा. उमा के थपकी देते ही निंश्चत होकर सो गया. अनुज का अपने ऊपर विश्‍वास देख, मन का सपंदन उसकी सोई चेतना को जैसे जगाने लगा.
उसे अपना बचपन याद आने लगा. जब कभी वह रात में डर जाती, घंटों घुटने में सिर छुपाए कांपती रहती. कोई उसे गले से लगाने नहीं आता. उसे रात की निस्तब्धता अपने लिए निर्णय पर, बारीकियों से सोचने पर मजबूर करने लगा. दोनों बच्चे हर सुख-दुख में अपनी सगी मां की तरह उस पर विश्‍वास करते थे. कोई भी ज़रूरत में या डरने पर पापा की जगह उसे ही पुकारते थे. जब वह चली जाएगी ,तब एक मां से धोखा खाने के बाद क्या ये दोनों बच्चे कभी किसी पर भरोसा कर पाएंगे? उसका एक ग़लत कदम उसके पति और इस परिवार के साथ उसके मान-सम्मान को भी धूल-धूसरित कर देगा.

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अपना जो फ़ैसला उसे रोमांच से भर देता था, अचानक उसे अपराधबोध से भरने लगा था. उसका दिल चाह रहा था कि इस अनचाहे रिश्ते को छोड़कर रस्मो-रिवाज़ को तोड़कर अपने प्यार को पा ले. पर वह समझ रही थी कि यह प्यार का वासनापूर्ण फ़ैसला विनाशकारी होगा. ज़िंदगी के दौड़ में वह बहुत आगे निकल आई थी. अब पीछे लौटकर बिछुड़े के साथ आगे बढ़ना सबसे बड़ी मूर्खता होगी, इसलिए अपने बिछुड़े प्रेम से मोह की बेड़ियां काटकर उसके आगे बढ़ने में ही सब की भलाई है.
सुबह जब मनीष अपनी कार लेकर आया और उसे फोन किया. वह गेट खोलकर बाहर आई. उसे देखकर वह बहुत ख़ुश हुआ, पर वह शांत अपलक दृष्टि से उसे देखती रही, फिर बोली, ‘‘नहीं मनीष, …मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकती. दोनों बच्चे मुझे मां समान प्यार करते हैं और एक मां सब कुछ कर सकती है, पर अपने बच्चों को धोखा नहीं दे सकती.’’
उसकी बातें सुन वह बुरी तरह झुंझला उठा था, "यह कैसा पागलपन है? यह भावनात्मक दुर्बलता का समय नहीं है, बस चले चलो यहां से.’’
"मेरी और तुम्हारी सोच में बस इतना ही फ़र्क है कि जिसे तुम मेरा पागलपन समझ रहे हो, वह अब मेरा कर्म है, बच्चों के प्रति मेरा न्याय है. तुम मेरे प्रारब्ध में हो ही नहीं, वरना प्रारब्ध में इतनी उदारता कहां होती है कि एक बार खो देने के बाद, फिर से सम्मान के साथ तुम्हे मेरे नाम लिख दे. हां, इस बात से मैं इनकार नहीं कर सकती कि तुम्हारा प्यार एक एहसास बन हमेशा मेरे साथ रहेगा अब जाओ यहां से, जीवन में आगे बढ़ने में ही हम दोनो की भलाई है.’’
अचंभीत मनीष को वही छोड़कर वह घर के अंदर आ गई थी. शायद उसकी भावना को समझ मनीष भी एक गहरी उसांस के साथ गाड़ी र्स्टाट कर कानपुर की तरफ़ बढ़ गया था.

Rita kumari
रीता कुमारी

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