माना बच्चा मां के पेट में रहता है, लेकिन जुड़ा तो पिता के दिल से भी रहता है. तुम गर्भस्थ शिशु को सुनने का प्रयास करना. देखना, उसकी धड़कनें स्वतः ही तुम्हारे दिल में उतरती चली जाएंगी. गर्भ में आने से लेकर गर्भनाल से जुदा होने तक वह तुम्हारे क्रियाकलापों और सोच-विचार से भी उतना ही प्रभावित होगा जितना अपनी मां से, क्योंकि उसकी मां के क्रियाकलाप और सोच-विचार तुमसे जुड़े हैं. तुम मां और शिशु के बीच की अत्यंत महत्वपूर्ण कड़ी हो. और कड़ी का महत्व हमेशा लड़ी से ज़्यादा होता है, क्योंकि वही लड़ी को तोड़ती या जोड़ती है.
सुशांत के जाते ही स्वाति को फिर से टेबल, दराजें आदि टटोलते देख रमाजी से रहा न गया. “बेटी, तुम क्या टटोलती रहती हो? कुछ परेशानी है?” सास द्वारा चोरी पकड़ी जाते देख स्वाति एकदम झेंप गई.
“इस समय तुम्हें ज़रा भी टेंशन लेने की ज़रूरत नहीं है. किसी भी तरह का तनाव बच्चे पर ग़लत असर डाल सकता है.”
“तो क्या सारी ज़िम्मेदारी होनेवाली मां की ही है? होनेवाले पिता का भी तो कोई फर्ज़ बनता है न मम्मीजी.” इतने समय से स्वाति के सीने में पनपता दर्द आख़िर फटकर बाहर आ ही गया था.
“कैसी बातें कर रही हो बेटी तुम? सुशांत तुम्हारा इतना तो ख़याल रखता है.” रमाजी बहू के आक्षेप से हैरान थीं.
“मैं कब कहती हूं कि ख़याल नहीं रखते? लेकिन मुझे धोखा तो न दें. शरीर फैलकर अनाकर्षक हो रहा है तो वे और कहीं...”
रमाजी को तो सांप सूंघ गया. “किसने कहा तुझसे ऐसा? सुशांत ऐसा नहीं कर सकता.”
“आप उनकी मां हैं न, इसलिए ऐसा कह रही हैं. लेकिन मैंने अपनी आंखों से उन्हें छुप-छुपकर उसके पत्र पढ़ते देखा है.”
“किसके?”
“अब यह मैं क्या जानूं? अपने लाडले से ही पूछिए न?” स्वाति की रुलाई फूट पड़ने को थी. लेकिन रमाजी ने धीरज रखते हुए उसके सिर पर हाथ फेरा. फिर हाथ पकड़कर उसे पलंग तक ले गई और धीरे से लिटा दिया.
“मैं शाम को सुशांत से स्वयं बात करूंगी. तुम विश्वास रखो, ऐसी कोई बात नहीं है.”
‘काश न हो...’ सोचते हुए स्वाति आंखें मूंदकर सोने का प्रयास करने लगी. डिलीवरी का समय एकदम पास जान उसकी रातों की नींद उड़ गई थी. हालांकि रमाजी ने आकर सब संभाल लिया था. उसकी मम्मी ने भी व़क़्त पर पहुंच जाने का आश्वासन दिया था. रमाजी और फ़ोन पर मम्मी उसे नसीहतें देती रहती थीं, हिम्मत बंधाती रहती थीं. पर फिर भी कोई न कोई परेशानी उसे घेरे रहती. समस्या मात्र शारीरिक रहती तो फिर भी ठीक था. लेकिन पति सुशांत के प्रति जब से उसके मन में शक के कीड़े ने जन्म लिया था, तब से वह मानसिक तनाव में भी रहने लगी थी. और इसी बात ने रमाजी को बेहद चिंतित कर दिया. शाम को सुशांत के घर लौटते ही उन्होंने उसे आड़े हाथों लिया. इस अनपेक्षित प्रहार से सुशांत एकदम बौखला उठा. उसने सफ़ाई पेश करने का प्रयास किया तो स्वाति भूखी शेरनी की तरह गरज उठी.
“मम्मीजी, इनसे कहिए कि वो पत्र निकालकर दिखाएं जो ये चोरी-चोरी पढ़ते हैं.”
“क... कौन-सा पत्र?”
“झूठ मत बोलो. मैंने अपनी आंखों से तुम्हें कभी बाथरूम में, तो कभी बालकनी में तो कभी मेरे सो जाने के भ्रम में चोरी-चोरी उसके पत्र पढ़ते देखा है.”
“हूं... तो यह बात है.” सुशांत ने अपनी जेब से एक पत्र निकालकर दिखाया. “शायद तुम इस पत्र की बात कर रही हो?”
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“हां, यही... देखा मम्मीजी आपने? इसे अपने साथ जेब में लेकर घूमते हैं. और मैं यहां...” स्वाति की बात अधूरी ही रह गई, क्योंकि सुशांत पत्र मां के हाथ में थमाकर तेज़ी से घर से बाहर निकल गया था. सास-बहू किंकर्त्तव्यविमूढ़-सी उसे जाते देखती रह गईं. रमाजी की नज़रें हाथ में पकड़े पत्र पर गईं तो वह चौंक उठी, “अरे, यह तो तुम्हारे पापाजी के हाथ का लिखा पत्र है!”
“क्या?” स्वाति चौंक उठी.
रमाजी पत्र पढ़ने में खो गईं. स्वाति ने भी अपनी नज़रें उसी पर गड़ा दीं.
प्रिय बेटे सुशांत,
मेरा पत्र पाकर तुम हैरत में पड़ गए होगे न? दरअसल जब से पता चला है कि मैं दादा बननेवाला हूं, मैं ख़ुशी से फूला नहीं समा रहा हूं और तभी से तुम्हें पत्र लिखने की सोच रहा हूं. लगभग रोज़ ही रमा को बहू से फ़ोन पर बात करते सुनता हूं. अपने खाने-पीने का ख़याल रखना, रोज़ दोनों व़क़्त नियम से दूध पीना, सूखे मेवे, फल आदि बराबर खाना, भारी सामान मत उठाना. कपड़ों या पानी से भरी बाल्टी ख़ुद मत उठाना. सुशांत या बाई से कह देना... क्या? सवेरे जी मिचलाता है? अब बेटी यह तो इस दौरान होता ही है. पास में बिस्किट रखकर सोया करो. सवेरे उठकर दो बिस्किट खाकर ही बिस्तर से नीचे उतरा करो... आयरन और कैल्शियम बराबर ले रही हो न? बिल्कुल चिंता मत करना. इस समय किसी भी तरह का टेंशन लेना बिल्कुल ठीक नहीं है. मैं डिलीवरी से काफ़ी पहले आ जाऊंगी और सब संभाल लूंगी... हां, पर तब तक अपना ख़याल रखना.
तुम्हारी सास के भी रोज़ ऐसे ही हिदायत भरे फ़ोन आते होंगे. मां बनना है ही इतनी महत्वपूर्ण और गौरवपूर्ण बात. लेकिन एक बात तुम्हें भी खटकती होगी कि तुम भी तो पिता बनने जा रहे हो, फिर कोई तुम्हें इतना महत्व क्यों नहीं दे रहा? इस समय तुम्हारी अनुभूतियों को मुझसे बेहतर और कोई नहीं समझ सकता. लेकिन हम पुरुष बेचारे इस तरह के अनुभव फ़ोन पर शेयर नहीं कर सकते. झिझक होती है. इसलिए बहुत सोच-विचारकर आख़िर मैंने तुम्हें पत्र लिखने का निर्णय लिया.
मैं जानता हूं कि पापा बनने की ख़बर सुनते ही तुम्हारा दिल बल्लियों उछलने लगा होगा. मुझे भी जब डॉक्टर ने तुम्हारे अपनी मां के पेट में आने की सूचना दी थी, तो मेरे पांव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे. एक महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल कर लेने का-सा एहसास अंदर से उठा था. मन कर रहा था घर, ऑफ़िस, आस-पड़ोस में सबको चीख-चीखकर बताऊं कि मैं पापा बननेवाला हूं और मैंने ऐसा किया भी. चिल्लाकर तो नहीं, पर शर्माते, हिचकिचाते, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में सबको जता दिया था कि मैं पापा बनने जा रहा हूं.
उस समय हमारा संयुक्त परिवार था और घर में बड़े-बुज़ुर्गों का थोड़ा ज़्यादा ही लिहाज़ करने का रिवाज़ था. इसलिए मैं रमा का खुलकर ख़याल तो नहीं रख सका. पर हां, अपनी ओर से पूरा ध्यान रखता था. ऑफ़िस से लौटते व़क़्त चुपके से उसके लिए मिठाई या समोसे बंधवा लाता. कभी उसकी पान खाने की इच्छा होती तो रात को टहलाने के बहाने उसे पान खिला लाता. भरे-पूरे घर में भीनी-भीनी ख़ुशबू बिखेरते मिठाई-नमकीन को छुपाकर लाना बेहद जीवट का काम था. पर उन्हें खाते हुए रमा के चेहरे पर जो असीम तृप्ति के भाव उभरते, उन्हें देख मन गहरे आत्मसंतोष से भर जाता. इस दौरान लड़कियों का मन खट्टा, तीखा, मीठा और कभी-कभी तो मिट्टी, चॉक आदि खाने के लिए भी मचल जाता है. तुम बहू की स्वादेन्द्रिय का रुख़ जानकर उसे परितृप्त करने का प्रयास करना. देखना, तुम्हें भी कितनी तृप्ति का एहसास होगा? ऐसा लगेगा, सब तुम्हारे अपने पेट में जा रहा है.
मैं तुम्हें विशेषतः यह बताने के लिए पत्र लिख रहा हूं कि मैंने इस दौरान रमा का कैसे ध्यान रखा और जो मैं नहीं कर पाया, वो तुमसे करने की उम्मीद रखता हूं. पुरुष अपनी संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने में हमेशा से ही कंजूस रहे हैं. इसीलिए शायद पितृत्व को वो गौरव नहीं मिल सका, जो मातृत्व को हासिल है, वरना नंद ने भी कान्हा को उतना ही चाहा था जितना यशोदा ने. लेकिन ग्रंथों के पन्ने यशोदा की ममता के गान से भरे हुए हैं और गली-गली चर्चे भी यशोदा के ही होते हैं. ख़ैर, इन छोटी-छोटी बातों से पिता की महानता और उसका प्यार कम नहीं हो जाएगा.
रमा को उन दिनों सवेरे जल्दी उठने में परेशानी होती थी. मैं चाहता था सुबह की चाय मैं बनाकर उसे बिस्तर पर ही दूं, पर संकोचवश ऐसा कभी नहीं कर पाया. उसे ही सवेरे उठकर काम करना होता था. हालांकि मां, बहन उसकी मदद करती थीं, ख़याल भी रखती थीं. लेकिन मैं उसके लिए कुछ ख़ास नहीं कर पाने के कारण मन मसोसकर रह जाता था. एक दिन तो मैं ऑफ़िस के लिए निकल रहा था और रमा को उल्टियां शुरू हो गईं. मैं पलटकर उसे संभालने लगा. लेकिन तुरंत ही मां आ गई. ‘हम संभाल लेंगे. तुम जाओ, तुम्हें देर हो रही है.’ मुझे जाना पड़ा. उस व़क़्त रमा मुझे जिन कातर निगाहों से ताक रही थी, उन निगाहों को याद कर सीना आज भी छलनी हो जाता है. तुम्हारा तो फिर एकल परिवार है और बहू नौकरी भी करती है. उसे तो तुम्हारे सहारे की और ज़्यादा ज़रूरत है. बेटा, एक बात हमेशा याद रखना. एक स्त्री के लिए उसका पति सबसे बड़ा संबल होता है. ख़ुद से भी ज़्यादा वह उस पर भरोसा करती है. कभी भी कहीं भी उसके इस विश्वास को मत तोड़ना, चाहे इसके लिए संकोच और मर्यादा की बेड़ियां ही क्यों न तोड़नी पड़ जाएं...
पत्र पढ़ती रमाजी की आंखों के सामने अक्षर धुंधलाने लगे थे. उन्होंने घबराकर आंखें पोंछीं तो दो बूंद आंसू टपक पड़े. स्वाति हैरानी से कभी सास को निहारती तो कभी पत्र को. दोनों फिर पत्र पढ़ने में मशगूल हो गईं.
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... थोड़ा ज़्यादा ही गंभीर और भावुक हो गया हूं मैं! चलो, अब कुछ मज़ेदार बातें करते हैं. आख़िर इतने ख़ुशी का मौक़ा है. सब लोग बहू को अच्छा खिलाने-पिलाने की हिदायत दे रहे होंगे. पर मैं कहता हूं उसके साथ-साथ तुम अपने खाने-पीने का भी पूरा ख़याल रखना. आख़िर उसे और घर को संभालना तो तुम्हें ही है न? यदि तुम ही बीमार हो जाओगे तो... और फिर कल को एक नन्हा-मुन्ना भी आ जाएगा. उसके साथ तो तुम्हारी ज़िम्मेदारी व कार्यभार और भी बढ़ जाएगा. इसलिए अपने खाने-पीने का ख़याल ख़ुद रखना. जो फल, जूस, मेवे, घी आदि बहू को खिलाओ, थोड़ा ख़ुद भी खाना. माना बच्चा मां के पेट में रहता है, लेकिन जुड़ा तो पिता के दिल से भी रहता है. तुम गर्भस्थ शिशु को सुनने का प्रयास करना. देखना, उसकी धड़कनें स्वतः ही तुम्हारे दिल में उतरती चली जाएंगी. गर्भ में आने से लेकर गर्भनाल से जुदा होने तक वह तुम्हारे क्रियाकलापों और सोच-विचार से भी उतना ही प्रभावित होगा जितना अपनी मां से, क्योंकि उसकी मां के क्रियाकलाप और सोच-विचार तुमसे जुड़े हैं. तुम मां और शिशु के बीच की अत्यंत महत्वपूर्ण कड़ी हो. और कड़ी का महत्व हमेशा लड़ी से ज़्यादा होता है, क्योंकि वही लड़ी को तोड़ती या जोड़ती है.
गर्भनाल से जुदा होकर एक स्वतंत्र अस्तित्व जब तुम्हारी गोद में आएगा तो ख़ुशियों के साथ-साथ तुम्हारी ज़िम्मेदारियां भी कई गुना बढ़ जाएंगी. शुक्र है, अपनी उन ज़िम्मेदारियों को निभाने के लिए तुम्हारे पास पैटरनिटी लीव यानी पितृत्व अवकाश का विकल्प है, जो हमारे समय नहीं था. उसका पूरा सदुपयोग करना. बच्चे के पालन-पोषण संबंधी टिप्स मैं तुम्हें इस पत्र के सीक्वल-2 में दूंगा.
पत्र लंबा होता जा रहा है, पर देख रहा हूं कुछ महत्वपूर्ण बातें अभी भी छूटी जा रही हैं, जो शायद तुम्हें अभी तक किसी और ने नहीं बताई होंगी. गर्भावस्था के दौरान लगनेवाले टिटनेस के इंजेक्शन बहू को अवश्य लगवा देना और उसकी डॉक्टरी जांच बराबर करवाते रहना. बच्चे के टीकाकरण और देखभाल संबंधी जानकारी सीक्वल-2 में दूंगा. अब सबसे महत्वपूर्ण बात, हमारे लिए सबसे आवश्यक है सुरक्षित प्रसव और स्वस्थ शिशु. शिशु लड़का हो, चाहे लड़की, हमारे लिए परिवार में उसका आगमन बेहद हर्ष और उल्लास का विषय होगा. याद रहे, भ्रूण के लिंग निर्धारण के लिए उत्तरदायी स़िर्फ और स़िर्फ उसका पिता ही होता है. इसके लिए उसकी मां को प्रताड़ित करना बेहद घृणित और संकुचित सोच है.
रमा ने नन्हे शिशु के स्वागत की तैयारियां आरंभ कर दी हैं. झबले, पोतड़े, टोपी, मोजे आदि जाने क्या-क्या तैयार किए हैं. दादी बनने के उसके बड़े अरमान हैं. पर याद है न, हर अरमान और गौरव के साथ कुछ ज़िम्मेदारियां जुड़ी होती हैं. उन्हें पूरा करके ही उस गौरव का भरपूर लुत्फ़ उठाया जा सकता है. तुम्हें एक पिता नहीं, एक अच्छा पिता बनने के लिए ढेरों शुभकामनाएं. बहू को ढेर सारा आशीर्वाद और दुलार. ख़ुशख़बरी का बेसब्री से इंतज़ार करता.
तुम्हारा पिता
पत्र समाप्ति के साथ-साथ रमाजी की आंखों से गंगा-यमुना प्रवाहित होने लगी थी. स्वाति की आंखें भी भीग गई थीं. अचानक उसे सुशांत की अनुपस्थिति का ख़याल आया.
“मम्मीजी, सुशांत कहां चले गए? मेरा मन बहुत घबरा रहा है. मुझे उन पर इस तरह अविश्वास नहीं करना चाहिए था. लगता है, उन्हें मेरे व्यवहार से बहुत ठेस लगी है. मैं उनसे माफ़ी मांगना चाहती हूं. अभी फ़ोन करती हूं.”
स्वाति ने मोबाइल लगाया. लेकिन उधर से फ़ोन काट दिया गया. स्वाति बहुत निराश-हताश हो गई. इस बीच उसके पेट में हल्का-हल्का दर्द होने लगा. वह पेट पकड़कर बिस्तर पर लेट गई.
“मम्मीजी, बहुत दर्द हो रहा है.”
“हाय राम! लगता है लेबर पेन शुरू हो गए हैं. सुशांत को कैसे बुलाऊं?” घबराहट के मारे रमाजी के हाथ-पांव फूलने लगे थे.
“परेशान मत होइए मम्मीजी, मैं मैसेज भेजती हूं.” अभ्यस्त उंगलियों ने खटाखट मैसेज टाइप कर भेज दिया. “सॉरी! कम सून. नॉट फीलिंग वेल.”
“देखना मम्मीजी, वे दस मिनट में दौड़े चले आएंगे. हमारे परस्पर विश्वास की डोर इतनी भी कमज़ोर नहीं है.”
सुशांत स्वाति के विश्वास पर ख़रा उतरा. दस मिनट में ही वह भागता हुआ अंदर घुसा.
“स्वाति, स्वाति... तुम ठीक तो हो?”
“लगता है स्वाति को दर्द शुरू हो गया है. उसे अस्पताल ले जाना होगा. तुम उसे धीरे-धीरे कार तक ले जाओ. मैं बाकी सामान लेकर आती हूं.”
रमाजी और सुशांत ऑपरेशन थिएटर के बाहर चहलक़दमी कर रहे थे. उत्सुकता और बेचैनी का वह समय भी आख़िर बीत ही गया. लेडी डॉक्टर ने बाहर आकर नवजात शिशु के आगमन की बधाई दी. स्वाति को बच्चे के संग वॉर्ड में श़िफ़्ट कर दिया गया था. पोते को गोद में लेकर रमाजी खिल उठीं.
“देख सुशांत, बिल्कुल तेरे पापा पर गया है.”
सुशांत ने पापा को फ़ोन लगाया और ख़ुशख़बरी सुनाई.
“मैंने मोबाइल का स्पीकर ऑन कर दिया है. मैं अपने पोते की आवाज़ सुनना चाहता हूं.” स्पीकर पर बच्चे के रोने की आवाज़ गूंज उठी.
“अपने दादा को पुकार रहा है.” रमाजी का स्वर सुनाई दिया.
“पापाजी, मैं ठीक हूं. जल्दी आइए, हम आपका इंतज़ार कर रहे हैं.” यह स्वाति का स्वर था.
“और सीक्वल-2 का भी.” हंसी के साथ अंतिम पुछल्ला जोड़ते हुए सुशांत ने बात ख़त्म की.
अनिल माथुर
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