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कहानी- मम्मी बस… (Story- Mummy Bas…)

“डॉक्टर मैं उसे बहुत प्यार करती हूं.”
“हां ज़रूर, पर एक बच्ची, एक इंसान की तरह नहीं, अपनी सबसे महंगी गुड़िया की तरह, जिसे आप उसके पिता से भी नहीं बांट पातीं. इससे बच्ची अपने पिता को आपके सामने खुलकर प्यार भी नहीं कर सकती. मिसेज स्वामी आप जैसी मांएं मैं हफ़्ते में चार-पांच देख रहा हूं. 

योगिता जैसे संवेदना-शून्य हो गई. अंकिता को देखती रही, जैसे उसके सीने पर कोई भारी-भरकम पत्थर रख दिया हो. अपने बारे में सोचने लगी. क्या मैं वही योगिता हूं…? आज से चार साल पहलेवाली, जो अपने मायके और ससुरालवालों के सामने शेरनी की तरह दहाड़कर खड़ी हो गई थी, “ये बच्ची पैदा होगी, ये आप सब सुन लीजिए कान खोलकर.”
जैसे ही लिंग-परीक्षण में कन्या के होने का पता चला, तभी से सब उसके पीछे प़ड़ गए कि वह उससे छुटकारा पा ले. मगर सब उसकी ज़िद के आगे धीरे-धीरे नरम पड़ गए. और जब गोल-मटोल अंकिता उसकी गोद में आई तो चंद दिनों में सबका मनपसंद खिलौना बन गई.
अंकिता की दूसरी सालगिरह आई ही थी कि स्कूल की चिंता लग गई. लगभग दस कि.मी. दूर का स्कूल योगिता को अपनी रानी बेटी के लिए सही लगा. अनिल चाहता था कि उसे पास के ही किसी नर्सरी में डाला जाए, मगर योगिता की ज़िद के आगे वह हार गया.
अब बच्ची की नस में चढ़ी सलाइन देख-देख वह सुबक रही है. दस बजे फ़ोन आया था उसे, “मिसेज़ कुमार..? देखिए, आपकी बच्ची बेहोश हो गई है. हम कोशिश कर रहे हैं उसे होश में लाने की, मगर वह आंखें खोलती ही नहीं.” स्कूल की प्राध्यापिका ने बताया था.
अनिल को फोन कर ऑटो पकड़ वह घबराती-हांफती आरोग्य अस्पताल आई. पहुंचते ही अनिल मिल गया. वह उस शिक्षिका से बात कर रहा था, जो अंकिता को लाई थी.
डॉक्टर ने पूछा, “पहले कभी इस तरह बेहोश हुई है?”
“नहीं.”
“पैदा होने से अभी तक कभी सिर पर चोट लगी थी?”
“याद नहीं है डॉक्टर साहब.”
“याद कीजिए, कभी सिर के बल गिरी हो या उसके सिर पर कुछ लगा हो.”
“नहीं डॉक्टर साहब! डॉक्टर साहब, मेरी बेटी है कहां?”
“दिखाता हूं आपको. याद कीजिए, कभी गिरने से वह बेहोश हुई हो, बिल्कुल रोई न हो या चोट लगते ही सो गई हो. ऐसा…”

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“नहीं डॉक्टर साहब, ऐसा कभी नहीं हुआ. डॉक्टर, प्लीज़ मुझे मेरी बेटी दिखाइए.”
“चलिए.” डॉक्टर पंकज बंसल उन्हें आई.सी.यू. की ओर ले जाने लगे, तो योगिता और अनिल का दिल धक् रह गया. योगिता ने एक पल के लिए आंखें मूंद लीं, “कहीं मेरी बच्ची…? नहीं!… नहीं!”
अंकिता पलंग पर निढाल पड़ी थी. “डॉक्टर इसे क्या हुआ है?” योगिता ने पूछा.
“देखिए मैडम, इस बच्ची के साथ आई टीचर ने बताया कि यह यकायक बेहोश होकर गिर गई. बीच-बीच में इसकी सांस तेज़ हो जाती है और धड़कन भी बढ़ जाती है. हमने इसलिए इसे यहां रखा कि कहीं इसे कोई हार्ट ट्रबल हो तो पता चल जाए.”
“तो डॉक्टर साहब…?” अनिल कुर्सी पर आगे तक आ गया. योगिता ने कसकर अनिल की बांह भींच ली.
“उनका कहना है कि वे तो बच्चों को उंगली तक दिखाकर बात नहीं करतीं और ख़ासतौर से नर्सरी के बच्चों के प्रति तो उनका व्यवहार बहुत ही अच्छा है.”
“पर अंकिता घर से तो बिल्कुल ठीक-ठाक गई थी.” योगिता बोली. मगर जब डॉक्टर ने उन्हें एकटक देखते हुए कहा, “बिल्कुल ठीक-ठाक?” तो वह इधर-उधर देखने लगी.
“क्या पूछना चाहते हैं आप?”
“मेरा मतलब है कि क्या वह ख़ुशी-ख़ुशी गई थी? उसके मन में ललक थी स्कूल जाने की?”
योगिता डॉक्टर की आंखों में अनपूछे एक सवाल की भी चमक देख पा रही थी- क्या यह उसका अपराधबोध है? उसकी आंखें झुक गईं.
“देखिए मैडम, इसे दिल में कोई समस्या नहीं है, बी.पी. नॉर्मल है. आप कहती हैं कि उसे कभी कोई चोट नहीं लगी. आवश्यक न हो, तो मैं सी.टी. स्कैन की सलाह नहीं दूंगा. हां, मगर आप सच बता सकें…?”
और रूककर वे उसे देखने लगे. योगिता की आंखें फिर झुक गईं, “हां मिसेज स्वामी, अगर यह स्कूल में नहीं डरी, तो फिर घर में, बस में यानी रास्ते में…, कहीं तो कुछ हुआ होगा ना?”
तभी पलंग से कुनमुनाहट सुन योगिता लपककर उठ खड़ी हुई. डॉक्टर बोले, “धीरे से उसका माथा सहलाइए, हाथ पकड़कर हल्का-सा दबाव दीजिए, नाम पुकारिए.”
“अंकिता! अंकिता!”

“अं हं! यूं घबराकर मत बुलाइए. अपना डर उस तक मत पहुंचाइए.” तभी अंकिता फिर कुनमुनाई, “मम्मी! मम्मी! बस!” योगिता वहां तक जाती, उसके पहले ही वहां एक डॉक्टर अंदर आए.
“आओ वासु! मिसेज स्वामी, ये डॉक्टर वासुदेवन हैं, साइकियाट्रिस्ट. मैंने बुलवाया है.”
“क्यों…? क्या हुआ है मेरी बच्ची को? वह पागल हो गई है क्या?”
“शांत मिसेज स्वामी, मैंने इसलिए बुला लिया कि छोटी बच्ची का मामला है, कोई भी बात हो सकती है. बैठिए आप!”
“मम्मी! बस!” अंकिता फिर बोली.
डॉ. वासु भी आगे आ सुनने लगे… योगिता ने बेटी का हाथ दुलारते हुए कहा, “हां बेटी, बस! देखो अंकिता! मम्मी आ गई है, अब आंखें खोलो.”
“मम्मी! नहीं.”
“क्या नहीं बेटी? क्या हुआ?” सैकड़ों दुश्‍चिंताएं घुमड़ आईं. क्या बस में किसी ने बच्ची को छेड़ दिया? क्यों ‘बस’ कह रही है वह?
“अंकिता! बच्ची?” डॉ. वासु बोले.
“मैडम, उसे शांति से जगाइए.”
“मम्मी!” तभी अंकिता ने पूरी आंखें खोलीं.
“क्या हुआ बेटी?”
“मम्मी मुझे जगाना मत… नहीं मम्मी, नहीं जगाना, नहीं.”
कहते हुए उसकी सांस फूलने लगी.
तभी अनिल अंदर आया, उसे देखकर अंकिता बोली, “पापा! मुझे सोना है.” “हां बेटी, सो जाओ!”
योगिता ने तुरंत अंकिता के माथे पर हाथ रखकर कहा, “अंकिता, सो जा बेटी, मम्मी नहीं जगाएगी.” कहते-कहते वह कांप गई. ये क्या कह रही है वह बच्ची से?…

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धीरे-धीरे माता-पिता के स्पर्श से आश्‍वस्त-सी हो अंकिता सो गई, “आप दोनों स्क्रीन के इस तरफ़ आ जाइए.” कहते हुए दोनों डॉक्टर उस ओर गए और वहां बैठी नर्स से बोले, “सिस्टर, आप बच्ची के पास बैठिए, वह कुछ कहे तो नोट कीजिए.”
चारों जब वहां बैठ गए तो पहले डॉ. पंकज बंसल ने डॉ. वासु को अंकिता के आने व स्वयं द्वारा की गई जांच विस्तार से बताई. “वासु, मुझे लगता है, हमें बच्ची की बातों का मतलब इनसे पूछना चाहिए.”
“यस.” डॉ. बसंल बोले. “मिसेज स्वामी मुझे जगाना मत… इस बात का आपके लिए क्या मतलब है?”
योगिता ख़ामोश रही. अनिल बोला, “डॉक्टर साहब, ये अंकिता को ज़बरदस्ती हर बार उठाती है.”
“हर बार? यानी?”
डॉ. वासु को देख अनिल बोले, “डॉक्टर साहब, स्कूल से वह साढ़े बारह बजे लौटती है. फिर खाना खाकर सोती है तो ढाई बजे से ये उसे फिर उठाकर तीन बजे ‘किड्स एण्ड किड्स मदर्स’ में ले जाती है.”
“क्यों?”
“पर्सनैलिटी डेवलपमेंट के लिए.”
“किसकी पर्सनैलिटी?” डॉ. वासु ने पूछा, “बच्ची की यानी अंकिता की?''
''ओह! फिर?”
“वहां से आती है ये साढ़े पांच, छह बजे. दूध पिलाकर सात बजे ‘रेडी फॉर के.जी. क्लासेस’ में ले जाती है.”
“वह किसलिए?”
“किसी अच्छे स्कूल में के.जी. में भरती के लिए.”
डॉ. वासु ने कहा, “आप दोनों की बातों से लग रहा है कि समस्या कहीं आप ही के द्वारा पैदा की गई है.” दोनों ने एक-दूसरे को देखा.
डॉ. वासु बोले, “देखिए मिसेज स्वामी, एक ही संतान होने से माता-पिता अपनी महत्वाकांक्षा का सारा बोझ उस एक बच्चे पर ही डाल देते हैं. सारे सपने उस एक के इर्द-गिर्द बुनते हैं. मैंने माता-पिता को बच्चों के पीछे 11वीं से पड़ते देखा है या बहुत हुआ तो 9वीं से- पर आपने तो सारी हदें ही तोड़ दीं?”
“मगर डॉक्टर, आजकल के.जी. में एड…?”
“मैडम, के.जी. में एडमिशन की जगह उसे अस्पताल में ‘एडमिट’ करवा दिया है आपने?” डॉ. बंसल ख़ुद को रोक नहीं पाए, “अब आप मुझे अंकिता का पूरा टाइम टेबल बताइए, वह सुबह कितने बजे उठती है? आप ही जवाब देंगी मिसेज स्वामी. मि. स्वामी आप तब ही जवाब देंगे, जब मैं ख़ासतौर से आपसे बात करूंगा. तो बताइए मिसेज स्वामी- अंकिता? यही नाम है न बच्ची का? कितने बजे उठती है?”
“छह-सवा छह, कभी-कभी साढ़े छह.”
“ख़ुद उठती है?”
“नहीं, उठाना पड़ता है.”
“कैसे उठाती हैं?”
“कैसे यानी? आवाज़ देती हूं.” योगिता थोड़ी चिढ़कर बोली.
“शांत! शांत मिसेज स्वामी, आप सही नहीं बताएंगी, तो हम कुछ नहीं कर पाएंगे. मेरा मतलब है कि आप स़िर्फ आवाज़ देती हैं कि हाथ से प्यार से छूकर उठाती हैं या चिल्लाकर-डांटकर उठाती हैं?”
“पहले तो धीरे-से आवाज़ देती हूं, जब साढ़े छह तक नहीं उठती, तो थोड़ा डांटती भी हूं.”
“ओह! तो फिर वो उठ जाती है. फिर?”
“फिर उसे बाथरूम में ले जाती हूं.”
“वह जगी रहती है?”
“… ?”
“वह जगी रहती है क्या?” डॉ. ने दोहराया.
“डॉक्टर, मैं कुछ बोलूं?” अनिल ने कहा.
“कहिए!”
“डॉक्टर, कभी-कभी वह स्टूल पर बैठी-बैठी ऊंघती रहती है. यह झटपट उस पर पानी डालती जाती है. फिर टॉवेल में लपेटकर मुझे पकड़ा देती है. जब तक यह उसका दूध-कॉर्नफ्लेक्स तैयार करती है मैं उसे तैयार कर देता हूं.” डॉ. वासु पेंसिल से नोट करते रहे, फिर हाथ रोक उसी पर नज़र गड़ाए रहे- थोड़ी देर बाद बोले, “मिसेज स्वामी, जब वह ऊंघती है और आप उस पर पानी डालती हैं, तो वह घबरा जाती होगी. ऐसे करती होगी जैसे कि पानी में डूब रही हो?”
“जी, कभी-कभी.”
“आपको कभी उस पर दया नहीं आई?”
“दया करने से वह रोज़ ही स्कूल नहीं जाने के कारण की तरह इसे इस्तेमाल करती!”
“ओह! फिर?”
“फिर नाश्ते की मेज़ पर भी वह कभी सोती कभी जागती. नाश्ता भी आधा-अधूरा करती है. फिर मैं उसे बस में चढ़ाने जाती हूं.”
“पैदल या गोद में? कितनी दूर?”
“चार ब्लॉक आगे पैदल. उसका बैग मैं रखती हूं. बॉक्स और पानी भी.” “बैग भी? नर्सरी में?”

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“हां पिक्चर बुक्स, ड्राइंग कॉपी, कलर बॉक्स वगैरह!”
“फिर? दोपहर को क्या होता है?”
“साढ़े बारह बजे स्कूल से लौटती है.”
“खाना? खाने में क्या देती हैं आप उसे?”
“आकर वह सीधे सो़फे पर लेट जाती है. कपड़े तक नहीं बदलती. फिर उसे उठाकर ज़बरदस्ती खिलाना पड़ता है. कभी एक पूरी रोटी खा लेती है, मगर दाल-चावल ज़्यादा पसंद करती है. फिर से सो जाती है.”
“कितनी देर?”
“आधा-पौन घंटा.”
“फिर? दोबारा जगाती हैं आप?”
“जी.” अबकी बार योगिता की आवाज़ धीमी थी.
“वह आसानी से उठ जाती है ?”
“नहीं, हर ह़फ़्ते दो-तीन बार क्लास मिस होती है?”
“तो आप उसे मारती हैं?”
“न…” जब डॉ. वासु ने भौंहें उठाईं, तो वह बोली, “कभी-कभी… डॉक्टर, ढाई हज़ार रुपये भरे हैं मैंने वहां.”
“अंकिता को ये बात मालूम है?”
“जी! बताना ही पड़ता है ना?”
“आपको लगता है कि उसे इन रुपयों की क़ीमत समझ में आती है?”
“आती ही होगी?” योगिता दबी आवाज़ में बोली.
“मिसेज स्वामी, क्या आपको पता है कि ढाई हज़ार रुपयों और आपकी इस बच्ची में से किसकी क़ीमत ज़्यादा है?”
अब तक तो योगिता की आवाज़ बिल्कुल धीमी पड़ गई थी. डॉक्टर उसे किस बात का एहसास कराना चाहते हैं-
यह शायद वह समझ गई थी. उसने चेहरा झुका लिया.
“आप समझ रही हैं मिसेज स्वामी, आपकी बच्ची क्यों जागना नहीं चाहती? क्यों बस! बस! कर रही है? मेरे ख़याल से वह गर्म या ठंडे पानी के लिये बस कर रही है? है ना?”
“पता नहीं.” योगिता ने फुसफुसाकर कहा.
“मिसेज स्वामी, आपकी समस्या यह है कि बेटी की ज़िद आपने की थी, इसलिए आप उसमें कोई कमी नहीं रहने देना चाहतीं. दूसरे लोगों के बच्चों से होड़ में आप अपनी बेटी को सबसे आगे रखना चाहती हैं, ये आपकी दूसरी समस्या है. तीसरी ये कि आप बच्ची के बारे में, उसकी ज़रूरतों के बारे में, उसके बचपन के बारे में, उसकी रुचि और इच्छाओं के बारे में सारे फैसले ख़ुद ही करना चाहती हैं, क्योंकि उसे आपने पैदा किया है. आप उसे एक व्यक्ति नहीं मानतीं बल्कि…” बीच में ही योगिता ने कहा,
“डॉक्टर मैं उसे बहुत प्यार करती हूं.”

“हां ज़रूर, पर एक बच्ची, एक इंसान की तरह नहीं, अपनी सबसे महंगी गुड़िया की तरह, जिसे आप उसके पिता से भी नहीं बांट पातीं. इससे बच्ची अपने पिता को आपके सामने खुलकर प्यार भी नहीं कर सकती. मिसेज स्वामी आप जैसी मांएं मैं ह़फ़्ते में चार-पांच देख रहा हूं. आप ज़रा अपने बचपन की ओर नज़र डालिए और सोचिए बचपन आपके लिए क्या था? गिलहरियों के पीछे दौड़ना, मोहल्लेभर के बच्चों के साथ धमाचौकड़ी मचाना, क़िताबों के पन्ने फाड़ना… खाना-पीना, सोना, घूमने-जाना… कुल मिलाकर एक बच्ची बने रहना. और अंकिता? उसे आपने एक दिन भी चैन से सोने तक नहीं दिया. आपने उससे उसका बचपन छीन लिया. उसे असमय बड़ा बना दिया. आपके जवाबों से पता चलता है कि हर बार बच्ची को आप ज़बरदस्ती उठाती हैं.”
“मैं भी तो उठती हूं.” वह शिकायती लहजे में बोली.
“आप पच्चीस-तीस कितनी उम्र की हैं?” डॉक्टर ने क्रोधभरी आवाज़ में पूछा.
“और वो अधखिली कली, तीन साल की… आप जानती हैं क़ानूनन तो ये सारे के.जी. और नर्सरीवाले स्कूल गैरक़ानूनी हैं, अमानवीय हैं? जिस बच्ची की आंखों की मांसपेशियां अभी ठीक इमेज तक नहीं बना पातीं, वह आंखें गड़ा-गड़ाकर अक्षरों की बनावट देख उन्हें समझने, याद रखने के लिए मजबूर है. नतीजा- स्किवण्ट, भेंगापन, छोटी-सी उम्र में चश्मा. स्कूल में खड़े रहना अनुशासन में! उसकी छोटी-छोटी टांगों में कितना दर्द होता होगा? जो जीवनभर रहेगा. कमोबेश इस तरह की ज़्यादती के परिणाम आप जानती हैं ना क्या होता है?”
“नहीं.” में सिर हिलाया योगिता ने.
“या तो पांचवी तक आते-आते बच्चे ठस्स हो जाते हैं या पढ़ाई में उन्हें अरुचि होती है. वे हिंसक हो जाते हैं या माता-पिता, पढ़ाई, स्कूल, क़िताब आदि से नफ़रत करने लगते हैं! या उनकी वही हालत हो जाती है, जो… जो अंकिता की हुई है.”
एकाएक योगिता फूट-फूटकर रो पड़ी. अनिल अपनी कुर्सी छोड़ उसकी कुर्सी के पीछे जा खड़ा हुआ. उसके कंधों पर हाथ रख उसे सांत्वना देने लगा. फिर डॉ. वासु की ओर दर्दभरी आंखों से देखता हुआ बोला, “डॉक्टर प्लीज़! बताइए ना अंकिता का क्या होगा?”
“मि. स्वामी! मुझे तो ऐसा लगता है वह देर तक सोएगी! उसे सोने दें. अगर वह कसमसाए, चौंके तो… मिसेज स्वामी उसे थपकी देते रहिए. बच्चे मां की थपकियों से आश्‍वस्त होते हैं. जिस एक व्यक्ति से बच्चा सबसे ज़्यादा सुरक्षा और विश्‍वास पाता है, वह होती है मां! जब वही उसे सताने लगती है…” त़ड़पकर योगिता बोली, “मैं उसे क्यों सताऊंगी डॉक्टर? आप तो सारा आरोप मुझ पर ही डाल रहे हैं.”

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“ऐसा ही समझ लीजिए. दोष कुछ आपके पति का भी है, जिन्होंने बच्ची को बचाने के लिए कुछ भी नहीं किया. खैर, मुझे उम्मीद है आप मामले को सुलझा लेंगे. लेकिन मिसेज स्वामी, आपकी महत्वाकांक्षाएं, आपकी अपेक्षाएं 3 साल की बच्ची की समझ में नहीं आनेवाली हैं. उन्हें उस पर मत थोपिए. इतने घंटे तक आप उसे जो बनाने में लगी हैं- वह सब कुछ आप अपने घर में उसे अपने साथ रखकर भी कर सकती हैं. उसे दीजिए पौष्टिक आहार, जिसे वह जल्दी-जल्दी नहीं, चैन से मज़ा लेकर खाए. 10-12 घंटे सोए. खूब खेले, बच्चा होने का आनंद लूटे, अन्यथा ये तो शुरुआत है. मैं आपको डराना नहीं चाहता, पर आप उसके पूरे नर्वस सिस्टम को ध्वस्त करने में लगी हैं. उसका स्नायुतंत्र एक बार असंतुलित हो गया, तो वह जीवनभर परेशान रहेगी.”
“बस- बस! डॉक्टर! बस! मैं अब ऐसा नहीं करूंगी?” वह सुबकने लगी. अनिल ने पूछा, “तो डॉक्टर, हमें अभी क्या करना चाहिए.”
“मि. स्वामी, अभी तो मेरे विचार से वह एकाध दिन सोकर उठेगी, तो सामान्य हो जाएगी और मिसेज स्वामी- आप तब तक उसके पास बैठकर उससे बातें करते रहिए, जब तक वह जाग न जाए.”
“मगर… मगर वह तो सो रही है.”
‘हां, मगर बच्ची के अवचेतन मन में यह बात जाने दीजिए कि अब उसे बस में बैठकर स्कूल नहीं जाना है. उसे पिकनिक की, घूमने की, खेलने की बातें बताइए, गाने सुनाइए.”
योगिता ने धीरे से बेटी का दायां हाथ अपने हाथ में ले उसे सहलाना शुरू किया- “अंकिता! इस इतवार को कहां चलेगी? पार्क चलेगी कि चिड़ियाघर? अप्पूघर चलेगी? अच्छा, पिंक फ्रॉक पहनेगी कि ग्रीन? ओह! देखो, पापा भी आ गए. अनिल, हम लोग इतवार को कहां चलेंगे?…” और रो पड़ी. अनिल ने धीरे से योगिता को ढाढ़स बंधाते हुए कहा, “बस योगिता, अगर वह जग गई और तुम्हें रोते देखेगी तो और घबरा जाएगी.” दोनों एक-एक स्टूल खींचकर अपने दिल के टुकड़े के जागने के इंतज़ार में बैठ गए. कम से कम वे तो जाग ही गए थे.

आशा अय्यर ‘कनुप्रिया'

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